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क्या आम आदमी पार्टी के पास उत्तराखंड के ‘सवालों’ के ‘जवाब’ हैं ?

उत्तराखंड के सवाल तो उसके भूगोल, इतिहास और संस्कृति के अंदर बहुत गहरे दबे हैं, जिन्हें समझे बगैर उत्तराखंड की समस्याओं का सिलेबस पूरा नहीं होता, और ना ही इन सवालों को समझे बगैर कोई उत्तराखंड की परीक्षा पास कर सकता है.

ukgazetteer by ukgazetteer
February 15, 2020
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क्या आम आदमी पार्टी के पास उत्तराखंड के ‘सवालों’ के ‘जवाब’ हैं ?
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प्रमोद साह

दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद इन दिनों सोशल मीडिया में ‘आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए’ का तराना उत्तराखंड में तेजी से गूंज रहा है.

सोशल मीडिया के इस ट्रेंड से उत्तराखंड के आम नागरिकों की नाराजगी और असंतोष को समझा जा सकता है. लेकिन दरअसल उत्तराखंड के सवालो का जवाब सिर्फ ‘आप’ नहीं है.

उत्तराखंड में समस्याओं का सिलेबस कुछ बड़ा है. यहां के सिलेबस में बिजली पानी और सब्सिडी से कोई भी सवाल नहीं है.

उत्तराखंड के सवाल तो उत्तराखंड के भूगोल, इतिहास और उसकी संस्कृति के अंदर बहुत गहरे दबे हैं, जिन्हें समझे बगैर उत्तराखंड की समस्याओं का सिलेबस पूरा नहीं होता. और ना ही इन सवालों को समझे बगैर कोई उत्तराखंड की परीक्षा पास कर सकता है.

दरअसल हम उत्तराखंड के लोग एक अर्ध-वनवासी समाज के लोग हैं, जिनका आदिवासियों की ही तरह प्रकृति और अपनी परंपराओं से गहरा अनुराग है. हमारी प्रकृति और परंपरा ही हमें अपने विकास का माडल उपलब्ध कराती है, जिसे समझना आज समय की सबसे पहली जरूरत है.

यही कारण है कि देश के वन आंदोलनों को दिशा हमेशा उत्तराखंड से मिलती है.

तिलाड़ी के कांड से पहले भी यहां टिहरी रियासत में धमानशूं और कुंजरूपट्टी, खास पट्टी में जंगल के हकूक को लेकर राजा को घेरा गया, तिलाड़ी से पहले रंवाई में बड़ी हलचल हुई, श्रीनगर गढ़वाल में भी इसका असर देखा गया. कुली बेगार से पहले अल्मोड़ा में ब्रिटिश कमिश्नर को जंगलात के सवाल पर घेरा गया.

यह अलग बात है कि उत्तराखंड का राष्ट्र की मुख्यधारा से सीधे जुड़े रहने का इतिहास भी लगभग 125 वर्ष पुराना है. लेकिन स्थानीय अस्मिता का सवाल, जिसे हम उत्तराखंडियत अथवा उप-राष्ट्रवाद की संज्ञा दे सकते हैं, यह उत्तराखंडी समाज का मूल है.

यह उसकी संघर्ष की प्रवृत्ति में झलकाता है. यहां हमने अपने अस्तित्व को राज कृपा से नहीं, अपने संघर्ष से बचाया और बढ़ाया है.

उत्तराखंडी आदि-विद्रोही है. जिसकी ताजा मिसाल उत्तराखंड आंदोलन से मिलती है.

उत्तराखंड की समस्याओं का बुनियादी सवाल और उसका समाधान आज भी उत्तराखंड के समाज और उसके इतिहास तथा उसकी कृषि परंपराओं को समझने से ही निकलता है.

हमने अलग राज्य बना दिया, लेकिन विकास का माडल और नजरिया लखनऊ, दिल्ली का ही रहा. इस कारण हम तेजी से हताश हो रहे हैं, गांवो में निराशा पसर रही है, परिणाम पलायन बढ रहा है.

उत्तराखंड में खुशहाली का सूत्र  ‘गांव और पट्टी’ को विकास का आधार बनाकर तय किए जाने की आवश्यकता है.
हमारी पट्टियां अपनी आर्थिक स्वावलंबन की पटकथा अपने भीतर छुपाए हैं.

उदाहरण के लिए यहां टिहरी में धमानशू कुंजरी पट्टी अदरक और मटर से, तो दोगी पट्टी दाल की महक से, जौनपुर की 10 पट्टियां जो सेरे और उसर का मिश्रण हैं, हर प्रकार की कृषि और दुग्ध उत्पादन का भंडार छुपाए हैं.

उत्तरकाशी-नौगांव-पुरौला जबरदस्त फल और सब्जी पट्टी है, भतौरजखान की मिर्च कश्मीरी मिर्च को चुनौती देती है.

संक्षेप में असवालस्यूं पट्टी, नैनीताल में पूर्वी छकाता, पश्चिमी छकाता और भाबररपट्टी, दून, पछुआ दून, अल्मोड़ा में दौरा, मल्ला दौरा, तल्ला दौरा, सल्ट बरौरो की कहानियां तो जगजाहिर हैं.

इन कहानियों में हमारे विकास का माडल छिपा है. इन्हें पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. एक बेहतर शोध प्रबंध की आवश्यकता है.

यही वह कारण है कि जब पहले संयुक्त प्रांत, फिर उत्तर प्रदेश का जमींदारी विनाश अधिनियम लागू किया तो उसे उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर लागू किया गया.

फिर उसमें विशेष रिययायत दी गई. वे अंग्रेज थे हमारी इस विशेषता को समझते थे. लेकिन हमने भुला दिया.
पट्टियों पर आधारित हमारी भूमि व्यवस्था, उनके शोध एवं सहायता के केंद्र जब तक हमारी प्राथमिकता में नहीं आएंगे, तब तक हम उत्तराखंड की जड़ों में पानी नहीं दे पाएंगे.

बस इसके लिए हमें करना है कि हम उत्तराखंड के पर्वतीय जनपदों की लगभग 1000 पट्टियों में बहु – उद्देश्यीजन सुविधा केन्द्र (Facilitation center ) जिसमें बहुत कम संसाधन खर्च कर, बगैर सरकारी तामझाम के ‘दवा बीज परामर्श और अग्रिम समन्वय’ एक साथ दे सकें.

हमारी शीर्ष प्राथमिकता के पांच क्षेत्र, कृषि बागवानी उद्यान, पर्यटन, ग्राम समाज/विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य हैं. यह पांच का मंत्र साधे बगैर उत्तराखंड को सिद्धि नहीं मिलेगी. इन पांच मंत्रों को साधते ही उत्तराखंड से पलायन की समस्या खुद-ब-खुद कम होने लगेगी.

हमारे बजट का जो संतुलन आज शराब और खनन पर केंद्रित हो गया है, सरकारी मुलाजिमों की तनख्वाह के भार से बिगड़ गया है जो आने वाले समय की एक भयावह तस्वीर पेश कर रहा है. उसकी भी सुई बदलेगी लेकिन यह सब आसान नहीं है.

कम से कम सिर्फ ताली बजाने वाले राजनीतिज्ञ तो इस बात को नहीं समझ सकते और न ही राष्ट्रीय चश्मे से क्षेत्र की समस्याओं का समाधान निकलना है.

एक अलग लड़ाई, एक अलग जंग उत्तराखंड की है, जिसे अलग तरीके से लड़ने की आवश्यकता है और आवश्यकता है समर्पित भगीरथ संकल्प की. उजला पक्ष यह है कि उत्तराखंड में आज भी इन सवालों को समझने वाले लोग हैं जो बिखरे हैं.
उन्हें थोड़ा-थोड़ा खुद को संशोधित करते हुए उत्तराखंड के हित का एक राजनीतिक विचार विकसित करना होगा. जो न वामपंथी होगा, ना दक्षिणपंथी होगा. जो ‘उदारवादी लोक हितैषी’ होगा.

जिसकी नजर तो राष्ट्रीय / अन्तर्राष्ट्रीय होगी लेकिन उसे अपनी जड़ों की गहरी समझ होगी और उत्तराखंडियत में जिसकी अस्मिता होगी.

उप-राष्ट्रवाद की संजीवनी को समझे बगैर हम उत्तराखंड के दर्द को साझा नहीं कर सकते.

हमने छोटा राज्य बना दिया, लेकिन क्या हमने विकास की ईकाइयां छोटी की ? एक्ट बनने के बाद भी क्या हम उत्तराखंड की बिखरी पड़ी बंजर जोतों को सुविधाजनक बनाने की दिशा में कुछ कर पाए ?

इस पर विचार करना होगा, क्योंकि हमें समाज निर्माण में सामाजिक-राजनीतिक इतिहास की भूमिका को संदर्भित कर विकास का नया माडल जो शोध व आंकड़ों पर केंद्रित हो, तैयार करना है.

उत्तराखंड में विकल्प की राजनीति का यही एक बेहतर रास्ता दिखता है. भागीरथ कौन बनेगा यह यक्ष प्रश्न है.

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