लंबी बीमारी के चलते वर्षों से खाट पर पड़े किसी मरणासन्न व्यक्ति का नाम यदि दुनिया के सबसे तेज धावक उसैन बोल्ट के नाम पर रख दिया जाए तो क्या ऐसा कर देने मात्र से वह ओलंपिक की रेस में दौड़ कर स्वर्ण पदक हासिल कर सकता है ?
इसी तरह, युद्ध के समय हथियारों की कमी से जूझ रहे किसी देश के सैनिकों को उनका सेनापति लाठी-डंडे थमा पर उनका नाम AK-47 रख दे, तो क्या उन लाठियों से सचमुच गोलियां बरसाई जा सकती हैं ?
और इसी तरह, करेले या नीम का नाम बदल कर यदि आम या सेब रख दिया जाए तो क्या इसके बाद उनका स्वाद मीठा हो जाएगा ?
शायद ही कोई शख्स होगा जो इस तरह के विचारों को मूर्खता की संज्ञा देने से इंकार करेगा ?
लगभग इसी तरह की मूर्खता को उत्तराखंड के शिक्षा महकमे ने सालभर की ‘अथक मेहनत’ के बाद चरितार्थ कर दिखाया है.
इस ‘मेहनत’ का नतीजा यह है कि प्रदेश के 155 स्कूलों में दसवीं और बारहवीं कक्षा के लगभग पचास प्रतिशत बच्चे फेल हो गए हैं.
इन 155 स्कूलों को सालभर पहले ही नाम दिया गया था ‘अटल उत्कृष्ट विद्यालय’
नाम बदलकर इन स्कूलों का राम भरोसे छोड़ दिया गया. ऐसे में इनका ये हश्र नहीं होता तो क्या होता ?
करीब दो साल पहले तत्कालीन राज्य सरकार ने प्रदेश के हर विकासखंड में दो-दो विद्यालयों को ‘अटल उत्कृष्ट विद्यालय’ नाम देकर सीबीएसई पाठ्यक्रम के तहत संचालित करने का निर्णय लिया.
तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और तत्कालीन शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय ने दावा किया कि ये अटल उत्कृष्ट विद्यालय उत्तराखंड की स्कूली शिक्षा को बदल कर रख देगें.
इस तरह प्रदेश के हर ब्लॉक में दो-दो विद्यालय चुन लिए गए जिनमें से 155 विद्यालयों ने सीबीएसई पैटर्न के मुताबिक पढ़ाई कराने की सहमति दी, जिसके बाद परिणाम सामने है.
आगे बढ़ने से पहले इन 155 अटल उत्कृष्ट विद्यालयों के ‘निकृष्ट’ प्रदर्शन पर एक सरसरी नजर मार लेते हैं.
सीबीएसई की बोर्ड परीक्षा में इस बार प्रदेश के 155 अटल उत्कृष्ट स्कूलों ने भाग लिया था. इनमें हाई स्कूल के कुल 8499 और इंटर के 12534 बच्चों ने परीक्षा दी.
हाईस्कूल के 8499 छात्रों में से केवल 5141 बच्चे ही पास हो पाए. 3358 बच्चे फेल हो गए. इसी तरह इंटर मीडिएट के कुल 12534 छात्रों में से 6454ही पास हुए जबकि 6080 बच्चे फेल हो गए.
सबसे बुरा प्रदर्शन हरिद्वार जिले के सिकरोड़ा स्कूल का रहा जहां 12वीं की परीक्षा देने वाले सभी 27 बच्चे फेल हो गए.
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के विधानसभा क्षेत्र चंपावत और पिछले विधानसभा क्षेत्र खटीमा का भी हाल बुरा रहा.
चम्पावत के चौमेल स्कूल के 12वीं के 49 बच्चों में से महज 15 हीपास हो पाए. खटीमा इंटर कालेज के 12वी कक्षाके 162 बच्चों में से केवल 14 ही पास हो पाए.
अल्मोड़ा के जीआईसी दन्या में दसवीं के 37 बच्चों में से महज 7 और बागेश्वर जिले के स्याकोटे स्कूल के 46 बच्चों से 3 ही पास हो पाए.
सूबे के सबसे वीआईपी जिले देहरादून की कहानी भी कुछ जुदा नहीं है. यहां के जीआईसी सेलाकुई के 309 बच्चों में से 77 ही पास हुए. जीआईसी सौड़ा सरोली में 38 में से सात बच्चे ही पास हुए.
कुल मिलाकर पूरे प्रदेश का लगभग एक जैसा हाल है.
इस सबके बावजूद कुछ ऐसे भी स्कूल हैं जिनका रिजल्ट शत प्रतिशत रहा मगर ऐसे स्कूलों की संख्या बहुत कम है.
एक और अहम तथ्य यह है कि पिछले वर्ष उत्तराखंड बोर्ड के हाई स्कूल और इंटर का परीक्षा का परिणाम क्रमशः 78 और 85 प्रतिशत रहा था, जिसमें ये 155 स्कूल भी शामिल थे.
उत्तराखंड बोर्ड परीक्षा का परिणाम आना अभी बाकी है. यदि उत्तराखंड बोर्ड परीक्षा का परिणाम पिछले वर्ष के रिजल्ट के आसपास ही रहता है तो उस हिसाब से देखें तो, अगर इन 155 स्कूलों को पहले की ही तरह चलने दिया जाता तो कम से कम चार से पांच हजार बच्चों का एक साल बर्बाद होने से बचाया जा सकता था.
ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि आखिर प्रदेश के बच्चों पर सीबीएसई का पैटर्न जबरन क्यों थोपा गया ?
गौर करने वाली बात यह है कि ये 155 स्कूल नए नहीं खोले गए थे बल्कि पुराने स्कूलों को अटल उत्कृष्ट विद्यालय का नाम देकर सीबीएसई बोर्ड से संबद्ध किया गया था.
हर ब्लॉक के दो इंटर कालेजों का चयन कर राज्य सरकार ने उन्हें अटल उत्कृष्ट विद्यालय का नाम दिया था.
ऐसे में इन स्कूलों में पहले से ही पढ़ रहे बच्चों में से ज्यादातर के पास इन्हें बदलने का कोई विकल्प नहीं था क्योंकि उनके घरों के नजदीक कोई दूसरा इंटर कालेज नहीं था.
ऐसे में बर्षों से हिंदी माध्यम में पढ़ाई करने वाले इन छात्रों को अचानक सारी पढ़ाई अंग्रेजी में करनी पड़ी जिससे उनकी कठिनाई बढ़ना लाजमी था.
सरकार ने इन स्कूलों का नाम बदल कर अटल उत्कृष्ट विद्यालय तो कर दिया लेकिन उसके बाद उन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया.
ज्यादातर अटल उत्कृष्ट विद्यालयों में आज की तारीख में पूर्णकालीक प्रधानाचार्य नहीं हैं. ज्यादातर अटल उत्कृष्ट विद्यालयों में पहले से ही पढ़ा रहे शिक्षक कार्यरत हैं.
हालांकि शिक्षा विभाग ने पिछले साल इन विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए परीक्षा भी आयोजित करवाई थी, लेकिन परीक्षा केवल उन्हीं पदों के लिए करवाई गई जो पद उन विद्यालयों में खाली थे.
सीबीएसई के मानकों के मुताबिक तमाम विद्यालयों में न तो छात्र संख्या के आधार पर पर्याप्त स्टाफ है, न ही अन्य जरूरी संसाधन.
ऐसे में बिना तैयारियों के केवल राजनीतिक आकाओं को खुश करने और नाम बदलने की सनक ने प्रदेश के हजारों नौनिहालों का पूरा एक साल बर्बाद कर दिया.
ऐसे में सवाल यही है कि आखिर बिना पुख्ता तैयारियों के सरकार ने प्रदेश के स्कूलों को अटल उत्कृष्ट विद्यालय का नाम देकर सीबीएसई बोर्ड के पैटर्न पर चलाने का तुगलकी निर्णय क्यों लिया ?
अब रिजल्ट आने के बाद दिखावे के नाम पर खराब परिणाम वाले स्कूलों पर सख्त एक्शन की बात की जा रही है.
रिजल्ट घोषित होने के अगले ही दिन प्रदेश के शिक्षा महानिदेशक बंशीधर तिवारी के हवाले से दो आदेश जारी किए गए. पहले आदेश में खराब रिजल्ट वाले स्कूलों पर एक्शन लेने के साथ ही शिक्षकों की ग्रीष्मकालीन छुट्टियां रद्द करने का फरमान सुनाया गया.
जबकि दूसरे आदेश में शिक्षकों को चेतावनी जारी की गई कि वे खराब रिजल्ट को लेकर किसी तरह का सार्वजनिक बयान न दें. आदेश में लिखा गया कि ऐसा करने से विभाग की ‘छवि’ खराब होगी.
विभाग की छवि खराब होने की जितनी चिंता अब हो रही है, यदि इसके आधी चिंता भी पहले की जाती तो आज उन्हें ऐसा बचकाना फरमान नहीं निकालना पड़ता.
खैर, इन दो आदेशों के बीच अहम सवाल यह है कि क्या इतना भर कर देने से शिक्षा महकमे के कर्ताधर्ताओं की जवाबदेही खत्म हो जाती है ?
प्रदेश की विद्यालयी शिक्षा महकमे के सबसे बड़े और जवाबदेह अधिकारी होने के नाते क्या तिवारी साहब को यह नहीं बताना चाहिए कि इन स्कूलों की बेहतरी के लिए सालभर में उनके विभाग ने क्या-क्या काम किए ?
सच तो यह है कि प्रदेश का शिक्षा महकमा यदि इन स्कूलों को वास्तव वे उत्कृष्ट बनाने को लेकर गंभीर होता तो आज यह हालत नहीं होती.
शिक्षा महकमे की अकर्मण्तया का ही नतीजा है कि न केवल प्रदेश के हजारों नौनिहालों का एक साल खराब हो गया बल्कि सीबीएसई के ओवरआल रिजल्ट में भी पिछले वर्षों के मुकाबले गिरावट आई है.
इस बार सीबीएसई के देहरादून रीजन के परीक्षा परिणाम देश में सबसे कम लगभग 90 फीसदी रहे हैं. इसका एक बड़ा कारण इन 155 अटल उत्कृष्ट स्कूलों का खराब रिजल्ट माना जा रहा है.
सीबीएसई के देहरादून रीजन में इन अटल उत्कृष्ट स्कूलों के अलावा केद्रीय विद्यालयों, जवाहर नवोदय विद्यालयों तथा अन्य प्राइवेट स्कूलों का परीक्षा परिणाम लगभग 98 फीसदी के आसपास रहा है.
इस लिहाज से देखें तो महज सालभर में ही उत्तराखंड का शिक्षा महकमा छात्रों के साथ ही सीबीएसई पर भी बोझ बन गया है.
विभागीय मंत्री डॉक्टर धन सिंह रावत की बात करें तो, रिजल्ट जारी होने के बाद पास हुए छात्रों को बधाई और फेल हुए छात्रों को सांत्वना देने के अलावा उन्होंने अटल उत्कृष्ट स्कूलों की इस दुर्गति पर अभी तक एक शब्द भी नहीं कहा है.
ऐसे में समझा जा सकता है कि उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था की बेहतरी को लेकर उनकी ‘दृष्टि’ कितनी स्पष्ट है.
कुल मिलाकर अटल उत्कृष्ट विद्यालयों के इस निकृष्ट प्रदर्शन ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि केवल किसी कार्यक्रम को लांच कर देने भर से ही उसका मकसद पूरा नहीं हो जाता, बल्कि उसकी सफलता के लिए धरातल पर ईमानदारी से काम करना जरूरी होता है.
लेकिन नीति नियंताओं को ये बात कभी भी समय रहते समझ नहीं आती. यही साश्वत सत्य है.
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