ब्रिटिश काल में देश के तमाम हिस्सों की तरह पहाड़ में भी अंग्रेजों का दमन चरम पर था. तमाम तरह के काले कानूनों तले दबे पहाड़ियों पर ब्रिटिश सत्ता हर जुल्म कर रही थी. इन्हीं जुल्मो में से एक था, कुली बेगार.
कुली बेगार यानी बिना मेहनताना दिए लोगों के काम करवाना. कुली बेगार के जरिए ब्रिटिश सत्ता ने जुल्म की सारी हदें पार कर दी थीं.
कठोर वन कानूनों के जरिए अंग्रेज पहले ही स्थानीय हक हकूकों पर डाका डाल चुके थे, जिसके बाद रही-सही कसर कुली बेगार ने पूरी कर दी थी.
इस अन्याय के विरोध में कभी कोई आवाज उठाने की कोशिश करता तो, उसे ऐसा सबक सिखाया जाता जिससे बाकी लोगों की हिम्मत टूट जाती. मगर लोगों के मन में कुली बेगार के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोश पनप रहा था.
इस आक्रोश के खिलाफ पहाड़ के कुछ हिस्सों में दबे-छिपे तरीके से विरोध की धीमे स्वर सुनाई देने शुरू हुए, जिसके बाद और भी हिस्सों तक विरोध की चिंगारी पहुंचने लगी.
फिर एक दिन ऐसा आया जब 10 हजार से ज्यादा पहाड़ियों ने उत्तरायणी मेले के ऐतिहासिक दिन, बागेश्वर के प्रसिद्ध संगम पर इकट्ठा होकर कुली बेगार से जुड़े रजिस्टर नदी में बहा दिए और ब्रिटिश जुल्म के खिलाफ आर-पार की जंग छेड़ दी.
हजारों लोगों के प्रतिरोध के आगे आखिरकार ब्रिटिश सत्ता को झुकना पड़ा और इस तरह कुली बेगार जैसी बुराई का खात्मा हो गया.
दमन के उस दौर में बैखोफ होकर जिस तरह उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ टक्कर ली, उसने एक असली नेतृत्वकर्ता के रूप में उनकी ख्याति को देशभर में पहुंचाया.
वे आजादी के आंदोलन के सिपाही थे. आजादी के आंदोलन में उन्होंने बतौर पत्रकार और एक्टिविस्ट सक्रिय भूमिका निभाई.
बेहद साधारण पृष्ठभूमि से शुरू होकर असाधारण मुकाम हासिल करने वाली कुमांऊ केसरी बद्री दत्त पांडे की जीवनयात्रा से रूबरू होते हैं.
देश को आजादी दिलाने में उत्तराखंड के वीर सपूतों का भी अहम योगदान रहा है. उनमें एक नाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बद्री दत्त पांडे का रहा है.
पत्रकारिता से जन आंदोलन शुरू करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने अल्मोड़ा में रहकर देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
बद्री दत्त पांडे का जन्म 15 फरवरी 1882 को हरिद्वार में हुआ था. उनके पिता विनायक पांडे प्रसिद्ध वैद्य थे.
जब बद्री दत्त सात वर्ष के थे तब उनकी माता-पिता का देहांत हो गया और वे अनाथ हो गए. माता-पिता के निधन के बाद बद्री दत्त वापस अल्मोड़ा आ गए और उन्होंने अल्मोड़ा में ही शिक्षा प्राप्त की.
वे पढ़ाई में एक कुशल विद्यार्थी थे, पहाड़ की छोटी-बड़ी पगडंडियों से होते हुए वे उम्र की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, कम नादानी और अधिक परिपक्वता के साथ उनका जीवन और अनुभव लगातार बढ़ता जा रहा था.
बद्री दत्त पांडे ने शुरूआत में शिक्षण को अपना पेशा बनाया और उसी क्षेत्र में आगे बढ़े. 1903 में उन्होंने एक स्कूल में पढ़ाना शुरू किया. इसके बाद देहरादून में उनकी सरकारी नौकरी लग गई, लेकिन पढ़ाना उन्हें रास नहीं आया और कुछ समय बाद ही वह नौकरी से त्यागपत्र देकर पत्रकारिता में आ गए.
1903 से 1910 तक उन्होने देहरादून में एक अखबार में काम किया, सात साल के पत्रकारिता सीखकर सन 1913 में उन्होंने ‘अल्मोड़ा अखबार’ की स्थापना की और इसके माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
अल्मोड़ा अखबार ने ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियों का खूब विरोध किया.
बाद में बद्रीदत्त पांडे ने अल्मोड़ा अखबार का नाम बदलकर शक्ति अखबार कर दिया. इस समाचार पत्र का सरकारी रजिस्ट्रेशन नंबर 10 था, यानी यह देश का 10वां पंजीकृत समाचार पत्र था. इसे उत्तराखंड में पत्रकारिता की नींव भी कहा जाता है.
साल 1921 में देश में ब्रिटिशर्स के खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाने के लिए सरकार वो काला कानून लाई जिससे पूरा देश आंदोलित हुआ. कुली-बेगार नाम की इस प्रथा ने देश के गरीब तबके से उनका हक छीनने का प्रयास किया, मजदूरों से बेरहमी की तरह मजदूरी करवाई जाती और उन्हें उनका मेहनताना नहीं दिया जाता.
बद्रीदत्त पांडे ने इस प्रथा को खत्म करने में अपनी अहम भूमिका निभाई, इसी के चलते उन्हें ‘कुमांऊ केसरी’ की उपाधि मिली.
बद्री दत्त पांडे 1921 में एक साल, 1930 में 18 महीने, 1932 में एक साल, 1941 में तीन माह जेल में रहे, देश के प्रति अमूल्य समर्पण और उनके द्वारा लिखे गए लेखों के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा.
साल 1942 में हुए भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्हें जेल भेजा गया. कुछ समय तक वे जेल में रहे, इसके बाद देश की आजादी के बाद भी अल्मोड़ा में रहकर वह सामाजिक कार्यों में सक्रियता से हिस्सा लेते रहे.
पत्रकारिता के बाद बद्रीदत्त पांडे ने राजनीति मेंआने का फैसला किया और 1957 में अल्मोड़ा सीट से चुनाव लड़ा और अपने प्रतिद्वंदी को एकतरफा मात देकर सांसद बने.
साल 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध में उन्होने अपने जीवन में अर्जित किए सभी पुरस्कार और मेडल सरकार को समर्पित कर दिए.
उन्होने प्रसिद्ध पुस्तक ‘कुमाऊं का इतिहास’ जो आज भी कुमाऊं क्षेत्र के इतिहास के संदर्भ में सबसे तथ्यपरक किताब मानी जाती है.
13 जनवरी 1965 को बद्रीदत्त पाण्डेय का निधन हो गया.
जिस बेबाकी से उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ कलम की ताकत का असली रूप दिखाया वो हमेशा हमें प्रेरित करता रहेगा.
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