उत्तराखण्ड के चार धामों को जोड़ने वाले सड़क मार्माग को सभी मौसमों में खुला रखने के उद्देश्य से बनाई जा रही चारधाम परियोजना (ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट) के तहत सड़कों के चौड़ीकरण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाये जाने के बाद अब बदरीनाथ को स्मार्ट धाम बनाने की सरकार की योजना पर भी सवाल उठने लगे हैं.
पर्यावरणवादियों का मानना है कि राज्य के चारों ही धामों पर वैसे ही भूस्खलन, हिमस्खलन और भूकम्प का खतरा मंडरा रहा है. केदारनाथ में प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ का नतीजा वर्ष 2013 की अकल्पनीय त्रासदी से सामने आ चुका है.
अगर हिमालय के अति संवेदनशील पारितंत्र से छेड़छाड़ जारी रही तो केदारनाथ महाआपदा की पुनरावृत्ति एवलांच की दृष्टि से अति संवेदनशील नर और नारायण पर्वतों की गोद में स्थित करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था के केन्द्र बदरीनाथ धाम में भी हो सकती है.
हिमालयी सुनामी के नाम से भी पुकारी जाने वाली 2013 की केदारनाथ महाअपदा से तबाह केदारनाथ धाम के पुननिर्माण कार्य के साथ ही अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रबल इच्छानुसार हिमालयी धामों को भव्य रूप देने की दिशा में उत्तराखंड सरकार ने बीती 9 सितंबर को बदरीनाथ को स्मार्ट सिटी की तर्ज पर स्मार्ट धाम बनाने के लिये मास्टर प्लान तैयार करने के साथ ही उसका प्रस्तुतीकरण भी सीधे प्रधानमंत्री के समक्ष कर दिया है.
इस प्लान के अनुसार बदरीनाथ धाम में यात्रियों की सुविधा के लिये होटल, पार्किंग, श्रद्धालुओं को ठंड से बचाने का इंतजाम, बदरी ताल तथा नेत्र ताल का सौंदर्यीकरण का निर्माण किया जाना है. श्रद्धालुओं के मनोरंजन के लिये साउंड एवं लाइट आदि की व्यवस्था भी की जानी है.
चूंकि प्रधानमंत्री समय-समय पर वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये केदारनाथ के निर्माण कार्यों का जायजा लेने के साथ ही बद्रीनाथ की कायापलट के निर्देश भी दे रहे हैं इसलिये राज्य सरकार के अधिकारियों ने आनन फानन में नवीन बदरीनाथ का मास्टर प्लान बना कर मोदी जी को दिखा भी दिया मगर भूगर्व और हिमनद विशेषज्ञों तथा उस स्थान के इतिहास और भूगोल की जानकारी रखने वालों को पूछना जरूरी नहीं समझा.

पर्यावरणीय और प्राकृतिक आपदाओं की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तराखंड के चार धामों को जोड़ने वाले ऑल वेदर मार्ग के चौड़ीकरण पर रोक लगाए जाने के बाद करोड़ों हिंदू धर्मावलंबियों की आस्था के केंद्र इन हिमालयी धामों और उनकी यात्रा की सुरक्षा का सवाल फिर खड़ा हो गया है.
भू-गर्भ भौतिकी विशेषज्ञों के साथ ही पर्यावरणविदों को आशंका है कि चारधाम मार्ग पर पहाड़ों और पेड़ों के बेतहाशा कटान तथा मलबे का समुचित निस्तारण न होने से 2013 की केदारनाथ जैसी आपदा की पुनरावृत्ति हो सकती है.
विशेषज्ञों ने बदरीनाथ की कायापलट करने के लिए बनाए गए मास्टर प्लान पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं.
चिपको आन्दोलन के जरिये विश्व में पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाने वाले पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट का कहना है कि बदरीनाथ में यात्री सुविधाओं को बढ़ाने के साथ ही आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार धामों में से एक बदरीनाथ की पौराणिकता को छेड़े बिना उसके कायापलट के प्रयासों का तो स्वागत है, मगर इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिये जिससे इसका पारितंत्र ही गड़बड़ा जाय और लोग तीर्थाटन की जगह पर्यटन के लिये यहां पहुंचें.
चण्डी प्रसाद भट्ट का कहना है कि बदरीनाथ हो या फिर चारों हिमालयी धामों में से कहीं भी क्षेत्र विशेष की धारक क्षमता (कैरीयिंग कैपेसिटी) से अधिक मानवीय भार नहीं पड़ना चाहिये, अन्यथा हमें केदारनाथ और मालपा जैसी आपदओं का सामना करना पड़ेगा.
इससे पहले 1974 में भी बसंत कुमार बिड़ला की पुत्री के नाम पर बने बिड़ला ग्रुप के जयश्री ट्रस्ट ने भी बदरीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कर उसे नया स्वरूप देने का प्रयास किया था.
उस समय सीमेंट कंकरीट का प्लेटफार्म बनने के बाद 22 फुट ऊंची दीवार भी बन गयी थी और आगरा से मंदिर के लिये लाल बालू के पत्थर भी पहुंच गये थे.
लेकिन चिपको नेता चण्डी प्रसाद भट्ट एवं गौरा देवी तथा ब्लाक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत आदि के नेतृत्व में चले स्थानीय लोगों के आन्दोलन के कारण उत्तर प्रदेश की तत्कालीन हेमवती नन्दन बहुगुणा सरकार ने निर्माण कार्य रुकवा दिया था.
इस सम्बन्ध में 13 जुलाइ 1974 को उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री बहुगुणा ने अपने वरिष्ठ सहयोगी एवं वित्तमंत्री नारायण दत्त तिवारी की अध्यक्षता में हाइपावर कमेटी की घोषणा की थी.
इस कमेटी में भूगर्व विभाग के विशेषज्ञों के साथ ही भारतीय पुरातत्व विभाग के तत्कालीन महानिदेशक एम.एन. देशपांडे भी सदस्य थे। कमेटी की सिफारिश पर सरकार ने निर्माण कार्य पर पूर्णतः रोक लगवा दी थी.
तिवारी कमेटी ने बदरीनाथ धाम की भूगर्वीय और भूभौतिकीय एवं जलवायु संबंधी तमाम परिस्थितियों का अध्ययन कर बदरीनाथ में अनावश्यक निर्माण से परहेज करने की सिफारिश की थी. लेकिन बदरीनाथ के इतिहास भूगोल से अनविज्ञ उत्तराखण्ड की मौजूदा सरकार ने मास्टर प्लान बनाने में इस सरकारी विशेषज्ञ कमेटी की सिफारिशों की तक अनदेखी कर दी.
यह मंदिर हजारों साल पुराना है जिसका जीणोद्धार कर आद्यगुरू शंकराचार्य ने भारत का चौथा धाम ज्योतिर्पीठ बदरिकाश्रम स्थापित किया था.
उन्होंने भी स्थानीय भूगोल और भूगर्व की जानकारी लेने के साथ ही वहां की प्राकृतिक गतिविधियों के सदियों से गवाह रहे स्थानीय समुदाय की राय जरूर ली होगी.
मंदिर नर और नारायण पर्वतों के बीच नारायण पर्वत की गोद में शेषनाग पहाड़ी की ओट में ऐसी जगह चुनी गयी जहां एयर बोर्न एवलांच सीधे मंदिर के ऊपर से निकल जाते हैं और बाकी एवलांच अगल-बगल से सीधे अलकनन्दा में गिर जाते हैं.
मंदिर की स्थिति आंख और भौं की जैसी है और नारायण पर्वत की शेषनाग पहाड़ी भौं की भूमिका में आंख जैसे मंदिर की रक्षा करती है.
मंदिर की ऊंचाई भी हिमखण्ड स्खलनों को ध्यान में रखते हुये कम रखी गयी है जबकि मंदिर का जीर्णोद्धार करने वाले इस ऊंचाई को बढ़ाने की वकालत करते रहे हैं.
मंदिर तो काफी हद तक सुरक्षित माना जाता है मगर बदरी धाम केवल मंदिर तक सीमित न होकर 3 वर्ग किमी तक फैला हुआ है, जिसके 85 हैक्टेअर के लिये मास्टर प्लान बना है. इसका ज्यादातर हिस्सा एवलांच और भूस्ख्सलन की दृष्टि से अति संवेदनशील है.
मास्टर प्लान में 85 हेक्टेअर जमीन का उल्लेख किया गया है जो कि भूमि माप के स्थानीय पैमाने के अनुसार लगभग 425 नाली बैठता है.
इतनी जमीन बदरीनाथ में आसानी से उपलब्ध न होने का मतलब चारधाम सड़क की तरह पहाड़ काट कर समतल भूमि बनाने से हो सकता है.
प्लान में नेत्र ताल के सौंदर्यीकरण का भी उल्लेख है. लेकिन स्थानीय लोगों को भी पता नहीं कि इस वाटर बॉडी का श्रोत क्या है. सामान्यतः सीमेंट कंकरीट के निर्माण के बाद पहाड़ों में ऐसे श्रोत सूख जाते हैं.
वास्तव में जब तक वहां के चप्पे-चप्पे का भौगोलिक और भूगर्वीय अध्ययन नहीं किया जाता तब तक किसी भी तरह के मास्टर प्लान को कोई औचित्य नहीं है.
अध्ययन भी कम से कम तीन शीत ऋतुओं के आधार पर किया जाना चाहिये ताकि वहां की जलवायु संबंधी परिस्थितियों का डाटा जुटाया जा सके.
बदरीनाथ के तप्तकुण्डों के गर्म पानी के तापमान और वॉल्यूम का भी डाटा तैयार किये जाने की जरूरत है, क्योंकि अनावश्यक छेड़छाड़ से पानी के श्रोत सूख जाने का खतरा बना रहता है.
नर और नारायण पर्वतों के बीच में सैण्डविच की जैसी स्थिति में भले ही मंदिर को कुछ हद तक सुरक्षित माना जा सकता है, लेकिन एवलांच या हिमखण्ड स्खलन की दृष्टि से बदरीधाम या बद्रीश पुरी कतई सुरक्षित नहीं है.
यहां हर चौथे या पांचवे साल भारी क्षति पहुंचाने वाले हिमखण्ड स्खलन का इतिहास रहा है. सन् 1978 में वहां दोनों पर्वतों से इतना बड़ा एवलांच आया जिसने पुराना बाजार लगभग आधा तबाह कर दिया और खुलार बांक की ओर से आने वाले एवलांच ने बस अड्डा क्षेत्र में भवनों को तहस नहस कर दिया था.
शुक्र हुआ कि शीतकाल में कपाट बंद होने कारण वहां आबादी नहीं होती. जिस तरह का मास्टर प्लान बना हुआ है उसमें एवलांचरोधी तकनीक का प्रयोग कतई नजर नहीं आता. बदरीनाथ को एवलांच के साथ ही अलकनंदा के कटाव से भी खतरा है.
बद्रीनाथ के निकट 1930 में अलकनन्दा फिर अवरुद्ध हुयी थी, इसके खुलने पर नदी का जल स्तर 9 मीटर तक ऊंचा उठ गया था. मंदिर के ठीक नीचे करीब 50 मीटर की दूरी पर तप्त कुंड के ब्लॉक भी अलकनंदा के तेज बहाव से खोखले होने से तप्त कुंड को खतरा उत्पन्न हो गया है.
मंदिर के पीछे बनी सुरक्षा दीवार टूटने से नारायणी नाले और इंद्रधारा के समीप बहने वाले नाले में भी भारी मात्र में अक्सर मलबा इकट्ठा हो जाता है. इससे बदरीनाथ मंदिर और नारायणपुरी (मंदिर क्षेत्र) को खतरा रहता है. अगर मास्टर प्लान के अनुसार वहां निर्माण कार्य होता है तो वह भी सुरक्षित नहीं है.
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