देवकान्त बरुआ याद हैं आपको ? जिनके लिए देश 2014 के बाद ही अस्तित्व में आया, उन्हें यदि आईटी सेल ने नहीं बताया होगा तो उन्हें नहीं मालूम होगा.
लेकिन जो देश को जानते हैं, देश का इतिहास जानते हैं, उन्हें देवकान्त बरुआ अवश्य याद रहते हैं.
देवकान्त बरुआ 1975 में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बने थे, 1977 तक रहे. 1975 वही वर्ष है, जब इस देश पर इन्दिरा गांधी ने आपातकाल थोप दिया था.
बरुआ कांग्रेस के अध्यक्ष थे और इस हैसियत से उन्होंने जो किया, वह राजनीतिक चाटुकारिता का अभूतपूर्व नमूना था. बरुआ ने नारा दिया- ‘इंडिया इज इन्दिरा एंड इन्दिरा इज इंडिया’ यानि इन्दिरा भारत है और भारत इन्दिरा है.
यह नारा लोकतांत्रिक देश में आलोकतांत्रिक प्रवृत्ति का द्योतक था. उस आलोकतांत्रिक प्रवृत्ति जिसका चरम प्रकटीकरण आपातकाल के रूप में हुआ.
आपातकाल को बीते 45 साल हो चुके हैं. संविधान के जिस अनुच्छेद 352 का उपयोग करके भारत में आपातकाल लागू किया गया और सभी नागरिक आधिकार निलंबित कर दिये गए, 44 वें संविधान संशोधन के बाद अब वैसा करना मुमकिन नहीं रह गया है.
लेकिन क्या उन प्रवृत्तियों का भी शमन हो चुका है,जो आपातकाल के भयावह दौर तक इस देश को ले गयी ?
देवकांत बरुआ का बयान अपने नेता को देश के बराबर रखने या देश पर अपने सर्वोच्च नेता को तरजीह देने की प्रवृत्ति का प्रारंभिक लक्षण जरूर रहा होगा, लेकिन उस प्रवृत्ति का खात्मा आपातकाल के समापन के साथ नहीं हो सका. बल्कि वह प्रवृत्ति तो निरंतर फल-फूल रही है.
बीते दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी नरों के ही नहीं सुरों यानि देवताओं के भी नेता हैं.
लगभग चार वर्ष पहले तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और वर्तमान उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने कहा था कि मोदी इस देश के लिए ईश्वर का तोहफा(गॉड गिफ्ट) हैं.
कांग्रेस के अध्यक्ष रहे देवकांत बरुआ के बयानों से इन भाजपा अध्यक्षों के बयानों की तुलना करिए तो ये बयान बरुआ के बयानों से कमतर नहीं हैं बल्कि उनसे चार हाथ आगे हैं.
बरुआ तो इन्दिरा गांधी को देश ही बता रहे थे,भाजपा के अध्यक्षों ने तो मोदी को भगवान के उपहार से लेकर देवताओं का नेता तक बना दिया है.
यानि आपातकाल में सर्वोच्च नेता देश के समकक्ष था या देश उसमें समाहित था. आपातकाल के 45 सालों के बाद सर्वोच्च नेता देश से ऊपर की चीज हो चुका है. वह इस लोक का ही नहीं परलोक का भी नेता घोषित कर दिया गया है.
पाकिस्तान में फौजी डिक्टेटरों की हुकूमतों के खिलाफ शायरी करने के लिए 25 बरस से अधिक जेलों में बिताने वाले शायर हबीब जालिब ने एक नज्म लिखी – ‘मैंने उससे ये कहा.’ इसके बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘ये नज्म उनके लिए है, जो डिक्टेटरों के एडवाइजर यानि सलहाकर होते हैं और जो डिक्टेटर को खुदा का नूर और बा शऊर बताते हैं.’ उनकी मिलेटरी तानाशाही में जो काम डिक्टेटर के सलाहकार करते हैं, उसे हमारे यहां पार्टी अध्यक्ष कर लिया करते हैं. आखिर हम लोकतंत्र जो हैं.
लोकतंत्र है तो पार्टी है,पार्टी है तो पार्टी अध्यक्ष हैं और पार्टी अध्यक्ष हैं तो सर्वोच्च नेता को ‘खुदा का नूर’ बताने के लिए एडवाइजर की क्या जरूरत है !
लेकिन यह प्रवृत्ति ही है जिसकी कोख में आपातकाल और तानाशाही पलते हैं. लोकतंत्र हमारे यहां शासन प्रणाली है, जीवन मूल्य नहीं है. इसलिए पांच साल में वोट देने को ही हम लोकतंत्र समझते हैं.
इस वोट के जरिये प्रतिनधि नहीं, शासक चुने जाने की प्रवृत्ति है. हमारे समाज में यह प्रवृत्ति है कि वह मसीहाओं या अवतारी पुरुषों के इंतजार में रहता है.
इसलिए बाबाओं से लेकर नेताओं तक में वह मसीहा या अवतार की तलाश करता है,जो जादुई शक्तियों से चुटकियों में उसकी समस्या हल कर दे.
इसलिए चुनाव जीतने के लिए पार्टियां जनता को यह भरोसा दिलाने का हर संभव प्रयास करती हैं कि उनका ही नेता है,जो ईश्वरीय गुणों से लबरेज है या धरती पर साक्षात ईश्वर का अवतार है.
ईश्वरीय गुणों से लबरेज या ईश्वर समान नेता से भला कौन सवाल पूछ सकता है ! सवाल पूछने के अधिकार पर पाबंदी मतलब लोकतंत्र पर ताला.
लोकतंत्र की ऐसी तालाबंदी ही घोषित या अघोषित आपातकाल और तानाशाही की राह सुगम बना देती है.
जब लोकतंत्र में तानाशाहों की मांग की जाने लगे तो समझिए कि आपातकाल के चेहरे पर रंग-रोगन भले ही चमकता-दमकता कर लिया गया हो पर उसका खतरा टला नहीं है. यह भी याद रखिए कि तानाशाही कितनी ही चमकदार क्यूँ न दिखाई दे,वह आधे-अधूरे-अधकचरारे किस्म के लोकतंत्र का भी स्थानापन्न नहीं हो सकती.
लोकतंत्र किसी नेता पर आस्था का मामला नहीं है. लोकतंत्र तो तंत्र पर लोक का नियंत्रण स्थापित करने वाला होना चाहिए. लेकिन जब तंत्र अपने तिकड़म से लोक को अपनी भक्ति में लगा दे तो लोकतंत्र का क्षरण होना तय है.
भक्ति मंदिरों से निकल कर राजनीति में पदारूढ़ हो गयी है. राजनीति की भक्ति और भक्ति की राजनीति,लोकतंत्र के मार्ग के अवरोध हैं.
45 साल पहले के आपातकाल का सबक यही है कि समाज में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को मजबूत किया जाये, लोकतंत्र को जीवन मूल्य बनाया जाये वरना वे भी पिछले आपातकाल का विरोध करने में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदार हो जाएंगे जो अभी लोकतंत्र का चूं-चूं का मुरब्बा बनाने पर तुले हैं !
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