जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार
उत्तराखंड समेत देश के सभी हिमालयी राज्यों की ग्रीन बोनस की उम्मीद एक बार फिर धरी की धरी रह गई है.
बीती एक फरवरी को जब संसद में देश की वित्तमंत्री निर्मला सीमारमण ने वर्ष 2020-21 के लिए बजट भाषण पढ़ना शुरू किया तो हिमालयी राज्यों को उम्मीद थी कि इस बार उनके पिटारे से ग्रीन बोनस पैकेज की सौगात जरूर निकलेगी.
इसकी वजह यह थी कि पिछले साल 28 एवं 29 जुलाई को मसूरी में हिमालयी राज्यों के सम्मेलन में हिमालयी राज्यों ने एक कॉमन एजेंडा तैयार कर केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को सौंपा था जिसमें इन राज्यों ने पर्यावरणीय सेवाओं के लिए ग्रीन बोनस की मांग की थी.
हिमालयी राज्यों ने तब कहा था कि, हिमालयी राज्य देश के जल स्तम्भ हैं, इसलिए नदियों के संरक्षण और उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए केन्द्र की योजनाओं में उन्हें वित्तीय सहयोग दिया जाना चाहिए.
साथ ही नए पर्यटक स्थलों को विकसित करने में केन्द्र सरकार से सहयोग की मांग भी की गई थी.
हिमालयी राज्य के प्रतिनिधियों ने तब कहा था कि देश की सुरक्षा को देखते हुए पलायन रोकने के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
साथ ही हिमालय क्षेत्र के लिए अलग मंत्रालय के गठन का भी सुझाव दिया गया.
इस सम्मेलन में वित्त मंत्री सीतारमण के अलावा नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार भी मैजूद थे और दोनों ने हिमालयी राज्यों की ग्रीन बोनस की मांग को जायज माना था.
ग्रीन बोनस के मुद्दे पर तब वित्तमंत्री ने जिस तरह के सकारात्मक संकेत दिए थे उससे उम्मीद थी कि इस बार हिमालयी राज्यों को ग्रीनबोनस के रूप में उनका बाजिब हक मिल ही जाएगा.
मगर हर बार की तरह उस बार भी हिमालयी राज्यों के हाथ मायूसी ही आई.
हिमालयी राज्यों के लिए इस बजट में अलग से कुछ नजर नहीं आया जबकि ये सभी राज्य कम से कम ग्रीन बोनस की अपेक्षा तो केन्द्र सरकार से कर ही रहे थे.
दरअसल वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के इस बार के बजट में पर्यावरणीय प्राथमिकताएं कहीं से भी नजर नहीं आई.
विकास दर में निरन्तर गिरावट, आर्थिक मन्दी एवं कर संग्रह में गिरावट जैसी चुनौतियों के बावजूद केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्ष 2020-21के वार्षिक बजट में सन्तुलन बनाने का भरसक प्रयास किया है.
उन्होंने इस बजट में स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर फोकस करने के साथ ही मध्य वर्ग को भी आयकर छूट देकर खुश करने का प्रयास किया है.
इसी तरह संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र के लिए भी 15 लाख तक ऋण वितरण का लक्ष्य तय कर दरियादिली दिखाई गई है. यही नहीं समय के साथ कदमताल करने के लिए ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़ने का संकेत दिया है.
लेकिन इस बजट में पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के लिए निर्धारित रकम को देख कर लगता है कि सरकार की प्राथमिकताओं में बेजुबान वन्यजीव, प्राणवायु देने वाले वन और वनवासी नहीं रह गए हैं.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की खाता बही से पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्र के लिए केवल 4400 करोड़ की बहुत ही नाकाफीरकम निकल पाई.
पिछले बजट में तो यह राशि मात्र 3111.20 करोड़ ही थी. उससे पहले 2017-18 में तो वन एवं पर्यावरण के हिस्से में केवल 2586.67 करोड़ ही आए थे.
दरअसल, यह राशि देश के 7,71821 वर्ग किमी रिकार्डेड वन क्षेत्र के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए ही नहीं बल्कि प्रदूषित शहरों की दूषित हवा को साफ करने के लिए भी है.
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में यह भी कहा है कि 10 लाख से अधिक आबादी वाले उन शहरों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा जहां प्रदूषण की ज्यादा समस्या है.
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले 53 शहर हैं और ये सभी प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे हैं.
इनमें से दिल्ली, कोलकाता और बम्बई ऐसे शहर हैं निकी जनसंख्या 1 करोड़ से अधिक है. अगर देश के सारे वन क्षेत्र के संरक्षण एवं संवर्धन के साथ ही प्रदूषित शहरों में स्वच्छ हवा सुनिश्चित करने के लिए सरकार के पास इतनी ही राशि है तो यह ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर ही है.
लगता है कि भारत सरकार ने अमेजन एवं आस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग से हुए वन्य संसार के महाविनाश से भी कोई सबक नहीं लिया. भारत में कमोवेश स्थिति भिन्न नहीं है.
सन् 1988 की वन नीति के अनुसार देश के पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में कुल क्षेत्रफल का दो तिहाई और मैदानी क्षेत्र में एक मिहाई वनावरण होना चाहिए, लेकिन अब तक देश का वनावरण 21.67 प्रतिशत तक ही पहुंच पाया है.
चिन्ता का विषय तो यह है कि उत्तर पूर्वी राज्यों में वनावरण तेजी से घट रहा है जबकि जैव विविधता की दृष्टि से इसे विश्व का एक हाट स्पाट माना जाता है.
देश की अबोहवा को सही बनाए रखने के लिए कार्बन डाइआक्साइड जैसी गैसों को सोखने के लिए घने वन आवश्यक हैं. भारतीय वनों की कुल वार्षिक कार्बन स्टॉक में वृद्धि 21.3 मिलियन टन है, जोकि लगभग 78.1 मिलियन टन कार्बन डाईआक्साइड के बराबर है.
कार्बन सिंक एक प्राकृतिक या कृत्रिम भंडार है जो कि वातावरण से अनिश्चित अवधि के लिए कुछ मात्रा में कार्बनयुक्त रासायनिक अवयवों का भंडारण करता है. यह भण्डारण वनारोपण, कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज से किया जाता है.
राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत ग्रीन इंडिया मिशन, 2030 तक 10 मिलियन हेक्टेयर वृक्ष लगाने की योजना का कार्यान्वयन चल रहा है. लेकिन इतने कम बजट से यह लक्ष्य पूरा हो सकेगा, इसमें संदेह है.
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग की वैश्विक समस्या से निपटने के लिए 2015 में भारत सरकार ने आइआइटी कानपुर के साथ मिलकर राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सूचकांक शुरू किया था.
2019 में, भारत ने 2024 तक 20 से 30 प्रतिशत तक की कमी के अस्थायी लक्ष्य के साथ ‘‘द नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम’’ की शुरुआत की. यह कार्यक्रम उन 102 शहरों के लिये है जहां वायु गुणवत्ता सबसे खराब है.
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