गृहस्थ जीवन के भोग विलास और सांसारिक वैभव तथा सत्ता से विरक्त धर्मध्वजा के वाहक साधु-संन्यासी जब राजा महाराजाओं की तरह ऊंट, हाथी, घोड़े और पालकियों में सवार हो कर कुंभ में स्नान के लिए चल पड़ते हैं तो उसे शाही स्नान कहते हैं.
कहा तो यह भी जाता है कि कभी स्वयं सम्राट और उनके मातहत राजा साधु- संतो की इन पालकियों को ढोते थे.
तामाम सांसारिक सुखों का परित्याग करने वाले इन मस्त-मलंगों का यह जुलूस संदेश देता है कि वास्तव में फकीरी किसी बादशाहत से कम नहीं है.
धर्मध्वजा वाहकों के 13 अखाड़े
राष्ट्र और धर्म के लिए पूरी तरह समर्पित इन धर्मध्वजा वाहकों के शाही स्नान का दृश्य अपने आप में भव्य और विलक्षण होता है.
कुंभ पर्व पर संन्यासियों, बैरागियों उदासीनों और सिखों के कुल 13 अखाड़े स्नान करते हैं.
इनमें जूना, अटल, महानिर्वाणी, निरंजनी, आनंद, आवाहन तथा पंच अग्नि अखाड़े, उदासीनों के अखाड़े, पंचायती अखाड़ा, बड़ा उदासीन और नया अखाड़ा उदासीन, एक निर्मल अखाड़ा तथा वैष्णव वैरागी सम्प्रदाय के तीन अखाड़े श्री दिसंबर अनी अखाड़ा, निर्वाणी अनी अखाड़ा तथा निर्मोही अनी अखाड़ा शामिल हैं.
इन अखाड़ों के आचार्य महामण्डलेश्वर, मंडलेश्वर और महंत अखाड़ों के शाही स्नानों में भाग लेकर साधु-संतो और नागाओं के साथ स्नान करते हैं.
सनातन धर्म की अखंडता के लिए चार सर्वोच्च पीठें
बौद्ध धर्म के उत्कर्ष काल में आद्य शंकराचार्य ने चोल और पाण्ड्य राजाओं के सहयोग से अपनी उद्भट विद्वता और तप के आधार पर दक्षिण भारत के धार्मिक अनाचार को समाप्त कर भारत में सनातन धर्म और देव संस्कृति की अखंडता के लिए देश के चारों कोनों में चार पीठों की स्थापना की.
उन्होंने ही हिमालय स्थित बद्रीनाथ के निकट ज्योतिर्मठ या ज्योतिष्पीठ की स्थापना की और फिर वहां से वह केदारनाथ पहुंच गए जहां स्वर्गारोहण के लिए उन्होंने बहुत ही कम उम्र में समाधि ले ली.
शंकराचार्य के चार प्रमुख शिष्य थे, जिनमें पद्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्वर तथा त्रोटक शामिल थे. वर्तमान में ज्योतिर्पीठ और शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती हैं.
प्राचीनतम् अखाड़े
दसनामी संन्यासी नागाओं के इतिहास के बारे में हरिद्वार के प्रमोद मिश्र ने महानिर्वाणी अखाड़ा इलाहाबाद के अध्यक्ष महंत लक्षमण गिरि के 1921 में लिखे गए लेख का हवाला देते हुए लिखा है कि अटल सातों संन्यासी अखाड़ों में प्राचीन है.
इसकी स्थापना विक्रमी संवत् 703 मार्ग शीर्ष शुक्ला चतुर्थी रविवार को गौंडवाणा में हुई.
17वीं सदी में इस अखाड़े के वीर संन्यासी राजेंद्र गिरि ने झांसी के 114 गांवों पर अपना अधिपत्य जमाया था. अपनी वीरता के लिए जोधपुर रियासत की ओर से इन्हें नागौर ताल्लुका दान में दिया गया था.इनका प्रधान केंद्र गुजरात में पाटन है. इस अखाड़े का पुर्नगठन 1704 ई. में हुआ.
सर यदुनाथ सरकार ने आवाहन अखाड़े के स्थापना काल को विक्रमी संवत 703, ज्येष्ट कृष्णा नवमी शुक्रवार माना है और इसका पुर्नगठन 1603 ईसवी में हुआ बताया है.
स्वामी अनूपगिरि तथा उमराव गिरि की शौर्य गाथाएं प्रसिद्ध हैं. अखाड़े का मुख्य केंद्र दशास्वमेघ घाट वाराणसी में है. हरिद्वार में इनका आश्रम ऋषिकेश रोड भूपतवाला में स्थित है.
महानिर्वाणी अखाड़ा
महानिर्वाणी अखाड़े की स्थापना 805 विक्रमी संवत अगहन शुक्ला दशमी बृहस्पतिवार को मानी गई है. इसका मुख्य स्थापना केंद्र छोटा नागपुर था. इस आखाड़े का पुर्नगठन सन 1805 में हुआ.
अटल अखाड़े के सात साधु गजानन का प्रसाद न मिलने पर अलग हो गए थे. उन्होंने गंगासागर जाकर तप किया, तथा कपिल मुनि का आर्शीवाद पाकर हरिद्वार में महानिर्वाणी अखाड़े की स्थापना की.
सन 1260 तक अखाड़ा नीलधारा पर नीलेश्वर महादेव मंदिर क्षेत्र में रहा. फिर 1260 ईसवी में महंत भवानंद गिरि के नेतृत्व में 22 हजार नागा सन्सासियों ने बलपूर्वक कनखल पर अपना आधिपत्य जमाया.
कनखल चैक में जहां इनका विजय ध्वज गढ़ा, आज अखाड़ा वहीं स्थापित है. दक्षेश्वर मंदिर का आधिपत्य भी अखाड़ा ही रखता है.आनंद अखाड़ा
आनंद अखाड़े की स्थापना 912 विक्रमी संवत, ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी रविवार के बरार में हुई. अखाड़ा का मुख्य केंद्र वाराणसी में है. हरिद्वार में श्रवणनाथ नगर में भी अखाड़े का केंद्र है.
निरंजनी अखाड़ा
निरंजनी अखाड़े की स्थापना 960 विक्रमी संवत, कृष्णा षष्ठी सोमवार को कच्छान्तर्गत माण्डवी स्थान पर हुई. अखाड़े का मुख्य केंद्र दारागंज इलाहाबाद में है.
हरिद्वार में डामकोठी के पास अखाड़े का भव्य भवन बना है. मनसा देवी मंदिर तथा बिल्वकेश्वर मंदिर भी इसी अखाड़े के अधीन हैं.
अखाड़े की ओर से हरिद्वार में एक स्नातकोत्तर महाविद्यालय तथा जयभारत साधु संस्कृत महाविद्यालय सफलतापूर्व चलाए जा रहे हैं.
जूना अखाड़ा
जूना अखाड़े का एक नाम भैरव अखाड़ा भी है. इसकी स्थापना 1202 विक्रमी संवत कार्तिक शुक्ला दशमी मंगलवार को कर्णप्रयाग (जिला चमोली) में हुई थी.
अखाड़े का मुख्य केंद्र बड़ा हनुमान घाट वाराणसी में है. हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास अखाड़ा स्थित है. प्राचीन इतिहास सिद्ध माया देवी मंदिर अखाड़े की आधिपत्य में है.पंचाग्नि अखाड़ा
पंचाग्नि अखाड़े की स्थापना विक्रमी संवत 1192, आषाढ़ शुक्ला एकादशी ईसवी सन 1136 में हुई. इस अखाड़े में नैष्ठिक ब्रह्मचारी दीक्षित होते हैं. दसनाम सन्यासियों के ब्रह्मचारी इससे संबंधित रहते हैं. इन अखाड़ों में महानिर्वाणी तथा जूना अखाड़ा उत्तराखण्ड भूमि की देन है.
उदासीन अखाड़ा
उदासीन अखाड़े की स्थापना भी हरिद्वार में हुई. उदासीन संप्रदाय का यद्यपि प्रवर्तन सनतकुमार से माना जाता है, पर इसका पुनरुद्धार आचार्य श्रीचंद ने किया.
उनके गुरु अविनाषी मुनि संप्रदाय के 164वें आचार्य थे. श्रीचंद का प्रादुर्भाव 1494 ई. को तथा तिरोधन 1644 ई. में श्रीचंद के बाद संप्रदाय में कोई भी संत आचार्य पद नहीं प्राप्त कर सका.
अखाड़े की स्थापना निर्वाण प्रियतम दास महाराज ने 1825 वि.स. के हरिद्वार कुंभ मेले में की थी. उस समय हरिद्वार, प्रयाग तथा गोदावरी के कुंभ मेले ही प्रसिद्ध थे. इस अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों के प्रमुख संतों के साथ देहरादून रामराय दरबार के महंत स्वरूप दास भी उपस्थित थे.
अखाड़े में आचार्य महामंडलेश्वर का पद नहीं है. चार महंत होते हैं तथा अखाड़ा महंत और मंडलेश्वर बनाता है.पंचायती नया अखाड़ा उदासीन
पंचायती नया अखाड़ा उदासीन की स्थापना 1902 ईसवी में प्रयाग में हुई. अखाड़े का प्रधान कार्यालय कनखल में है.
इसमें भी चार महंत होते हैं. इस अखाड़े के प्रर्वतक गुरु संगत साहब सच्ची दाढ़ी थे.
निर्मल अखाड़ा
निर्मल अखाड़े के मूल प्रर्वतक गुरुनानक देव माने जाते हैं. गुरु गोविंद सिंह ने इसके प्रचार-प्रसार में बड़ा योगदान किया.
गुरुनानक के प्रथम शिष्य संत भाई भगीरथ ने निर्मल मत का व्यापक प्रचार किया था. ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार 1807 के कुंभ में कनखल स्थित डेरा बाबा दरगाह सिंह में निर्मल साधु एकत्र हुए थे.
सन 1856 में भाद्रपद शुक्ला द्वादसी को पटियाला संगरूर आदि नरेशों की उपस्थित में अखाड़े की स्थापना हुई.
सन 1806 में महंत संत बाबा मेहताब सिंह विरक्त अखाड़े के प्रथम महंत थे. 1796 में पटियाला के राजा साहेब सिंह तथा बूढ़िया के रामसिंह और शेरसिंह के नेतृत्व में बन्दूकों और भालों से लैस हजारों की संख्या में घुड़सवार सिख फौज ने हरिद्वार में साधुओं पर हमला कर उन्हें मार भगाया और निर्मल अखाड़े के लिए सम्मानपूर्ण व्यवस्था बनाई.
बाबा मेहताब सिंह ने अखाड़े की स्थापना का निश्चय कुरुक्षेत्र में किया था.रामानंदाचार्य ने की वैरागी संप्रदाय की स्थापना
ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार स्वामी रामानंदाचार्य ने वैरागी संप्रदाय की स्थापना की थी. उत्तर भारत का मध्यकाल में पुर्नजागरण स्वामी रामानंद ने किया.
संत कबीर, रैदास, सेन, धन्ना आदि उन्हीं के शिष्य थे. तुलसीदास के कारण इस संप्रदाय को विश्वव्यापी ख्याति मिली.
17वीं सदी में रामादल के प्रतापी संत बलानंद ने रामादल का संगठन किया. इसका जयपुर में प्रधान केंद्र था.
अनी अखाड़ों की स्थापना का श्रेय बालानंद को जाता है. विक्रमी सम्बत 1729 में मध्य और विष्णु स्वामी तथा निम्बार्क मातानुयायी वैष्णवों को भी उन्होंने रामादल में मिलाया.
उन्होंने दिगंबर, निर्वाणी तथा निर्मोही, अनी और दिगंबर निर्वाणी, निर्मोही खाकी, निरावलम्बी, संतोषी तथा महानिर्वाणी अखाड़ों की स्थापना की. इस प्रकार वैष्णवों में तीन अनीयां तथा सात अखाड़ों की परंपरा शुरू हुई.
अखिल भारतीय श्रीपंच रामानंदीय दिगंबर अखाड़ों का मुख्यालय अयोध्या में है. हरिद्वार में रामानंद आश्रम मुख्य केंद्र है. इस अखाड़े के साथ दो अन्य अखाड़े रामजी दिगंबर तथा श्याम जी दिगंबर वृंदावन स्थित हैं.
पंचनिर्वाणी अखाड़ा अयोध्या
अखिल भारतीय पंचनिर्वाणी अखाड़े का कार्यालय हनुमानगढ़ी में है. इससे संबंधित अन्य अखाड़े रामानंदीय निर्वाणी, निरावलंबी, टाटाम्बरी, हरिव्यासी निर्वाणी, हरिव्यासी खाकी तथा बलभद्री वृंदावनी हैं.
निर्मोही अनी अखाड़े का कार्यालय जगन्नाथ मंदिर अहमदाबाद में है
इसके साथ रामनंदीय निर्मोही, संतोषी, मालाधरी निर्मोही, झाड़ियां निर्मोही, राधबल्लभी निर्मोही, रामनंदीय महानिर्वाणी, हरिव्यासी महानिर्वाणी, हरिव्यासी संतोषी तथा विष्णु स्वामी निर्मोही अन्य अखाड़े संबद्ध हैं.आपसी सहमति से तय होता है शाही स्नान का क्रम
इस प्रकार संन्यासी, उदासी, निर्मल तथा वैष्णव संप्रदायों के अखाड़े कुंभ पर्व पर शाही स्नान करते हैं. शेष साधु किसी न किसी प्रकार इन अखाड़े से जुड़कर ही शाही स्नान का अवसर पाते हैं.
मध्यकाल में कुंभ पर्वो में दसनाम संन्यासियों तथा वैष्णव साधुओं के बीच बर्चस्व के लिए सशस्त्र संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है मगर अखाड़ा परिषद के गठन के बाद अब खून खराबे की बात इतिहास बन गई है.
अब आपसी सहमति से स्नान की तिथि तथा शाही क्रम तैयार कर लिया जाता है और फिर प्रशासन की देखरेख में शांतिपूर्वक स्नान कार्यक्रम संपन्न होता है.
शाही स्नान को आपसी सहमति से सौहार्दपूण ढंग से संपन्न कराने के लिए विभिन्न अखाड़ों के प्रमुखों के बीच एक लिखित समझौते के दस्तावेज अखाड़ों में मौजूद हैं.
इस समझौते पर 15 जनवरी 1879 को को निरंजनी अखाड़े के महंत हीरागिरि, महंत शिवदयाल भारती तथा महंत पंचमपुरी, महानिर्वाणी के महंत लक्ष्मणपुरी, वैष्णवों के महंत शोभाराम वैरागी अखाड़ा कला उदासीन के महंत ज्ञानदास, अखाड़ा खुर्द उदासियान के महंत बलवंतदास तथा अखाड़ा निर्मल के महंत कर्मसिंह तथा महंत हरनाम सिंह ने हस्ताक्षर किये थे.इससे पूर्व स्नान को लेकर 1879 में हरिद्वार कुंभ पर भीषण रक्तपात हो गया था.
इससे पूर्व भी 1807 के हरिद्वार कुंभ तथा 1838 के नासिक कुंभ में वैष्णव और नागा सन्यासियों में स्नान को लेकर खून खराबा हुआ था.
इसके बाद वहां पेशवा ने यह निर्णय दिया था कि वैष्णव अखाड़े नासिक में रामघाट तथा सन्यासी और अन्य साधु अखाड़े त्रयम्बक में स्नान करेंगे. यह परंपरा नासिक में आज भी जारी है.
इसी समझौते के तहत तय हुये क्रम में इस बार महाकुम्भ के शाही स्नानों का क्रम तय हुआ है.
ज्योतिष के आधार पर तय होते हैं चारों कुंभ
चारों कुंभ मेले ज्योतिष के आधार पर अलग अलग गृह नक्षत्रों के संयोग पर होते हैं. ये संयोग बारह साल बाद ही आते हैं.
सूर्य, चंद्र और बृहस्पति ये नक्षत्र अपनी निश्चित गति से विभिन्न बारह राशियों के चक्कर लगाते रहते हैं. धर्म शास्त्रों में तय है कि माघ महीने में जब सूर्य मकर राशि में हों और बृहस्पति वृष राशि में हों तब प्रयाग कुंभ का योग होता है.
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