उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने उत्तराखंड में एनआईटी के अस्थायी परिसर श्रीनगर और स्थायी परिसर निर्माण के संदर्भ में अपना बहुप्रतीक्षित फैसला 27 जुलाई 2020 को सुना दिया.
उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमेश रंगनाथन और न्यायमूर्ति आरसी खुल्बे की खंडपीठ ने अपने 80 पृष्ठों के फैसले में जो बातें लिखी हैं और केंद्र व राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर जो टिप्पणी की है,वह दोनों सरकारों के गाल पर करारा तमाचा है.
पैरा-दर-पैरा सरकारी कार्यप्रणाली पर जितनी तीखी टिप्पणी उच्च न्यायालय ने की है, वह उत्तराखंड में एनआईटी निर्माण में सरकारी नकारेपन का जीवंत प्रमाण है.
केंद्र सरकार द्वारा उत्तराखंड में एनआईटी स्थापना की घोषणा वर्ष 2009 में हुई थी. इस घोषणा के साथ उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने ऐलान किया कि एनआईटी का निर्माण सुमाड़ी (पौड़ी) में किया जाएगा.
एक दशक बीत गया. निशंक जी मुख्यमंत्री से आगे बढ़ कर केंद्र सरकार में मानव संसाधन यानि उस महकमे के मंत्री हो गए जिसके अंतर्गत एनआईटी आता है. लेकिन इसके बावजूद एनआईटी के स्थायी परिसर के निर्माण के लिए एक ईंट भी आज तक रखी न जा सकी.
एनआईटी का अस्थाई परिसर श्रीनगर (गढ़वाल) में पॉलिटैक्निक और आईटीआई में चलता है. एक संस्थान है और उसका परिसर दो हिस्सों में बंटा है.
परिसर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने के लिए छात्र-छात्राओं को राष्ट्रीय राजमार्ग-58 से गुजरना होता है. इसी सड़क पर गुजरते हुए 03 अक्टूबर 2018 को दो छात्राएं तेज रफ्तार गाड़ी से दुर्घटनाग्रस्त हो गईं.
इनमें से एक छात्रा का कमर से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया. इससे एनआईटी में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं में व्यापक आक्रोश पैदा हुआ. इन छात्र-छात्राओं ने कक्षाओं के बहिष्कार से लेकर जंतर-मंतर, दिल्ली पर धरना देने तक तमाम आंदोलनात्मक कार्यवाहियाँ की.
इसी सिलसिले में एक पूर्व छात्र जसवीर सिंह ने उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की,जिस पर उच्च न्यायालय ने 13 जुलाई 2020 को फैसला सुरक्षित रख लिया था,जिसे आज सुनाया गया.
उक्त फैसले की पहली पंक्ति से आखिरी पंक्ति तक, जैसे सरकारी काहिली की दास्तान है.
श्रीनगर में दो हिस्सों में चलने वाले अस्थाई परिसर के बारे में फैसले में कहा गया है कि पॉलिटैक्निक और आईटीआई परिसरों में जो ढांचा था, एनआईटी के ढांचे के स्तर से उसका कोई मेल नहीं है.
इंजीनियरिंग ड्राइंग लैबोरेटरी ढहते हुए ढांचे वाले कक्ष में थी, जिसमें बीस विद्यार्थी भी मुश्किल से आ पाते थे, जो कि 70 छात्रों के मानक कक्षा कक्ष के मुकाबले अपर्याप्त था.
अदालत ने कहा कि एनआईटी उत्तराखंड के छात्र-छात्राएं फीस तो देश के अन्य एनआईटी के छात्र-छात्राओं के बराबर ही दे रहे थे. लेकिन सुविधाएं उनकी तुलना में नगण्य पा रहे थे. अदालत ने कहा कि यह संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार(अनुच्छेद 14) का खुला उल्लंघन है.
एनआईटी गुणवत्तापरक शिक्षा के संस्थान हैं. इनकी स्थापना के वक्त केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा इस बात पर जोर दिया गया था कि युवाओं को शिक्षा देने की आवश्यकता, भारत के भविष्य में निवेश करने के लिहाज से जरूरी है.
भारत के भविष्य में कैसे निवेश एनआईटी श्रीनगर गढ़वाल में किया जा रहा है,इसके आंकड़े में भी उच्च न्यायालय के उक्त फैसले में देखे जा सकते हैं.
फैसले में यह दर्ज है कि एनआईटी श्रीनगर गढ़वाल में एक भी प्रोफेसर नहीं है. एसोसिएट प्रोफेसरों के 09 पदों में से 04 खाली हैं और असिस्टेंट प्रोफेसरों के 72 पदों में से 18 रिक्त हैं.
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मास्टर सर्क्युलर द्वारा परिसर के लिए निर्धारित मानदंड के हिसाब से एन.आई.टी. श्रीनगर(गढ़वाल) में 78 प्रतिशत ढांचागत मानकों का अभाव है.
ढांचागत सुविधाओं के अभाव के कारण यह हुआ कि बीटेक के लिए स्वीकृत सीटों में 2017 में 50 प्रतिशत की कटौती कर दी गयी. सभी कोर्सों में निर्धारित सीटों से भी कम सीटों पर प्रवेश हुए.
ढांचागत सुविधाओं के इस अभाव पर तीखा तंज करते हुए उच्च न्यायालय ने अपने फैसले के बिंदु संख्या 04 में लिखा है, ‘जब पूरा देश कोविड 19 महामारी के फलस्वरूप कई कठिनाइयों और धक्के से गुजर रहा है, एनआईटी उत्तराखंड संभवतः एकलौता संस्थान होगा, जिसने गहरी राहत की सांस ली होगी कि अकादमिक सत्र 2020-21 के स्नातक प्रथम वर्ष के प्रवेश की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई, जिससे बीटेक प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने वाले छात्र-छात्राओं के लिए आवास और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के दुष्कर कार्य से संस्थान बच गया.
अदालत ने कहा, ‘ढांचागत सुविधाएं तत्काल उपलब्ध करवाने की आवश्यकता पर बल देते हुए, हमारे पिछले अंतरिम आदेश के बावजूद,एक साल के बाद भी स्थितियाँ जस की तस हैं.’
इस मामले में अदालत परमादेश (mandamus) जारी कर सकती है या नहीं और सुमाड़ी में एनआईटी का स्थायी परिसर बनाने के नीतिगत निर्णय के मामले के संबंध में अदालत हस्तक्षेप कर सकती है या नहीं, इस पर उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों और अमेरिकी अदालतों के फैसलों के हवाले से उच्च न्यायालय ने तफसील से प्रकाश डाला और कहा कि सत्ता का दुरुपयोग न हो इसके लिए यह आवश्यक है.
सुमाड़ी में एनआईटी के स्थायी परिसर निर्माण के मामले में हुई कार्यवाहियों का भी विस्तृत ब्यौरा फैसले में दिया गया. फैसले से ज्ञात होता है कि 2013 से अब तक विभिन्न कमेटियाँ सुमाड़ी की जमीन का निरीक्षण करती रही और रिपोर्ट देती रही और मामला इससे आगे नहीं बढ़ सका.
एक पूर्व छात्र द्वारा दाखिल की गयी याचिका में सुमाड़ी में एनआईटी न बनाए जाने की भी प्रार्थना की गयी है. यह विचित्र है.
कोई छात्र या पूर्व छात्र अपने परिसर में ढांचागत सुविधाओं की मांग करे, सुरक्षा की और प्राध्यापकों की मांग करे, यह स्वाभाविक है.लेकिन वह मांग करे कि संस्थान अमुक जगह नहीं बनाना चाहिए, यह थोड़ा अजीब है.
लेकिन इससे ज्यादा अजीब तो सरकारी कार्यप्रणाली और तर्क हैं, जिन्हें उच्च न्यायालय ने तार्किकता (rationality) और युक्तियुक्ता ( reasonableness) के दायरे से बाहर पाया.
उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में दर्ज किया कि 2016 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में सुमाड़ी की जमीन को एनआईटी निर्माण के लिए भूकंप, भूस्खलन, बादल फटने के अंदेशे के आधार पर अनुपयुक्त बताया.
12 जुलाई 2017 में केन्द्रीय मानव संसाधन सचिव ने उत्तराखंड के मुख्य सचिव को पत्र द्वारा सूचित किया कि एनआईटी निर्माण के लिए सुमाड़ी की जमीन अनुपयुक्त और असुरक्षित है.
लेकिन 03 मई 2019 को उच्च न्यायालय में दाखिल प्रति शपथपत्र में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कहा कि वह ‘गतिरोध समाप्त करने के लिए’ सुमाड़ी में एनआईटी के स्थायी परिसर के निर्माण के लिए तैयार हो गए थे.
जरा इस पूरे घटनाक्रम को शुरू से सोच कर देखिये. 2009 में मुख्यमंत्री की हैसियत से रमेश पोखरियाल निशंक सुमाड़ी में एनआईटी निर्माण की घोषणा करते हैं. उनके समर्थक गाहे-बगाहे सुमाड़ी में एनआईटी को निशंक जी का ड्रीम प्रोजेक्ट भी बताते रहते हैं.
2019 में वही निशंक जब केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री हैं तो सुमाड़ी में एनआईटी ड्रीम प्रोजेक्ट नहीं बल्कि गतिरोध समाप्त करने के लिए राजी होने की चीज हो गया है !
‘गतिरोध समाप्त करने के लिए’ के राजी होने की बात पर उच्च न्यायालय के फैसले में कई-कई बार कड़ी टिप्पणी है और इतने गंभीर मसले से निपटने का सतही रवैया अदालत ने इसे बताया है.
उच्च न्यायालय ने परमादेश(mandamus) जारी करते हुए कहा कि इस आदेश की प्रमाणित प्रति मिलने के तीन महीने के भीतर श्रीनगर(गढ़वाल) स्थित एनआईटी के अस्थायी परिसर में ढांचागत सुविधाओं की डीपीआर पर विचार करे और ढांचागत सुविधाओं के विकास के लिए धन जारी करे.
भारत सरकार द्वारा धन जारी करने बाद एआईटी प्रशासन अस्थायी परिसर श्रीनगर(गढ़वाल) में ढांचागत सुविधाओं के निर्माण के लिए यथाशीघ्र टेंडर निकाले. उच्च न्यायालय ने कहा कि सभी निर्माण कार्य एक वर्ष के भीतर पूरे हो जाने चाहिए.
श्रीनगर(गढ़वाल) में एनआईटी अस्थायी परिसर के हिस्से से दूसरे हिस्से में जाते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग पर दुर्घटना की शिकार हुई एनआईटी की छात्रा के इलाज का खर्च वहन करने,अब तक दिये गए मुआवजे के अतिरिक्त 25 लाख रुपये और देने का निर्देश अदालत ने दिया.
इस दुर्घटना पर टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा, ‘हालांकि इस हिट एंड रन दुर्घटना के लिए प्रतिवादी सीधे तौर पर जवाबदेह नहीं हैं, लेकिन पूरे दोष से वे बच भी नहीं सकते क्यूंकि ऐसी दुर्घटना से आसानी से बचा जा सकता था यदि परिसर के हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने के लिए आंतरिक रास्ता उपलब्ध करवाने को थोड़ा अधिक महत्व दिया गया होता और चिंता की जाती.’
दुर्घटना ग्रस्त छात्रा का जिक्र करते हुए उच्च न्यायालय ने अनायास ही उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी टिप्पणी कर दी. न्यायालय ने लिखा कि छात्रा को घायल हालत में श्रीनगर गढञवाल से 106 किलोमीटर दूर ले जाना पड़ा क्यूंकि श्रीनगर(गढ़वाल) बेस अस्पताल अच्छी हालत में नहीं है.
इस निर्णय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा है सुमाड़ी में एनआईटी के स्थायी परिसर निर्माण पर निर्देश.
उच्च न्यायालय ने ‘गतिरोध समाप्त करने के लिए’ सुमाड़ी में एनआईटी निर्माण के सरकार के फैसले को अतार्किक और मनमाना बताते हुए उसे निरस्त कर दिया.
साथ ही उच्च न्यायालय ने निर्देशित किया कि विशेषज्ञों से सलाह लेने के बाद, इस मामला का पुनरीक्षण करे और स्वयं को संतुष्ट करे कि एनआईटी उत्तराखंड का स्थायी कैम्पस सुमाड़ी में बनाने से एनआईटी के छात्र-छात्राओं,प्राध्यापकों और स्टाफ को किसी प्रकार का खतरा न हो.
इस बात पर गौर करने के बाद ही केंद्र सरकार सुविचारित फैसला ले कि एनआईटी स्थायी कैम्पस सुमाड़ी में बनाना है या उत्तराखंड में कहीं और.
इस प्रक्रिया को शीघ्रता पूर्वक करने का निर्देश देते हुए उच्च न्यायालय ने फैसला लेने की समयावधि केंद्र सरकार के लिए निर्धारित कर दी-उच्च न्यायालय के फैसले की प्रमाणित प्रति उपलब्ध होने के चार महीने के भीतर.
भले ही यह फैसला एनआईटी के संदर्भ में है, लेकिन सभी महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों के मामले में सरकारी रवैया इसी तरह का गैरजिम्मेदारना और उदासीनता भरा ही है.
इस फैसले में जितनी तीखी टिप्पणियाँ केंद्र और राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर की गयी हैं, वे थोड़ी भी हया और लिहाज वाले को झकझोर देने को पर्याप्त है. पर प्रश्न यह है कि क्या सरकारें कोई सबक लेंगी ?
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