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स्वतंत्रता दिवस : आजादी के बाद रियासतों के विलय की कहानी

जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार

ukgazetteer by ukgazetteer
August 15, 2020
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स्वतंत्रता दिवस : आजादी के बाद रियासतों के विलय की कहानी
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पिछड़ापन, आर्थिक असमानता, गरीबी, लाचारी और सर्वसुलभ न्याय दुर्लभ होने के कारण अब भी भारत की आजादी को अधूरी मानने वाले लोगों से हम सहमत हो या नहीं, मगर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि 15 अगस्त 1947 को हमें जो आजादी मिली थी वह सचमुच अधूरी ही थी, क्योंकि आजादी की घोषणा केवल ब्रिटिश भारत के लिए की गई थी और लगभग 562 रियासतों वाले शेष भारत का भविष्य तब भी अधर में लटका हुआ था.

देखा जाए तो जिस 15 अगस्त के दिन अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई मुकाम तक पहुंची उसी दिन से देशी शासकों के अधिपत्य वाले रियासती भारत में आजादी की निर्णायक जंग शुरू हुई जो कि 1975 में सिक्किम के विलय तक जारी रही.

मानने वाले तो 5 अगस्त 2019 को संविधान की धारा 370 और 35 ए के प्रावधानों की समाप्ति को ही आजादी के समय शुरू हुई विलय की प्रक्रिया की सम्पूर्णता मानते हैं.

15 अगस्त 1947 को जब भारत में नए लोकतांत्रिक युग का सूत्रपात हुआ उस समय भारत में दो तरह की शासन व्यवस्थाएं थीं. इनमें से एक देशी रियासतों की सामंती व्यवस्था और दूसरी ब्रिटिश शासन व्यवस्था थी.

ब्रिटिश भारत भी बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों तथा पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान समेत भारत के 17 प्रोविन्सों में बंटा हुआ था. उस समय लगभग 562 देशी राज्य थे जिनमें  कुल 27 की जनसंख्या वाली बिलबाड़ी रियासत भी थी तो इटली देश से बड़ी हैदराबाद रियासत भी थी जिसकी जनसंख्या उस समय 1.40 करोड़ थी.

इनमें वे 35 हिमालयी रियासतें भी थीं जिनसे बाद में हिमाचल प्रदेश बना. एक अनुमान के अनुसार इन सभी रियासतों का क्षेत्रफल लगभग 7,12,508 वर्गमील या 11,40,013 वर्ग किलोमीटर था.

कैबिनेट मिशन स्पष्ट कर चुका था कि देशी राज्यों को पौरामौंट्सी संधि के तहत आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की जो गारंटी ब्रिटिश सरकार ने दे रखी है, वह 15 अगस्त 1947 को संधि के समाप्त होने पर स्वतः ही समाप्त हो जाएगी.

सन् 1857 की गदर के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से छीन कर अपने हाथ में लिए जाने के बाद जब 1876 के अधिनियम के तहत ब्रिटिश साम्राज्ञी को ‘क्वीन एम्प्रेस ऑफ इंडिया’ या भारत की महारानी घोषित किया गया और राज्यहरण की नीति त्याग कर देशी रियासतों को आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की गारंटी दी गई तो बदले में उनकी सार्वभौम सत्ता ब्रिटिश क्राउन में सन्निहित हो गई थी.

इसमें देशी राज्यों के रक्षा, संचार, डाक एवं तार, रेलवे एवं वैदेशिक मामले ब्रिटिश हुकूमत में निहित हो गए थे. इसलिए सरदार पटेल और वीपी मेनन ने बहुत ही होशियारी से सबसे पहले देशी राज्यों को भारत संघ में मिलाने से पहले उनसे ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करा कर स्वतंत्र निर्णय लेने के मामले में कानूनी तौर पर उनके हाथ बांध दिए थे.

इसके बाद चरणबद्ध तरीके से उन सबका भारत संघ में विलय करा दिया गया. इस प्रक्रिया में उड़ीसा के 36 राज्यों का विलय 15 दिसंबर 1947 को तो कोल्हापुर और दक्कन ऐजेंसी के 17 राज्यों का विलय 8 मार्च 1948 को हुआ. सन् 1948 में ही सौराष्ट्र और काठियावाड़ की रियासतों का विलय हुआ.

बुंदेलखंड और बाघेलखंड की 35 रियासतों का 13 मार्च 1948, राजपूताना की 19 रियासतों का विलय भी मार्च 1948 में, जोधपुर, जैसलमेर, जयपुर, एवं बीकानेर का 19 मार्च 1948 को, इंदौर, ग्वालियर झाबुआ एवं देवास का जून 1949 में, पंजाब की 6 रियासतों का 1948 में, उत्तर पूर्व के मणिपुर का 21 सितंबर 1948 में, त्रिपुरा का 9 सितम्बर 1949 में, कूच बिहार का 30 अगस्त 1949 में विलय हुआ.

बड़े राज्यों में से हैदराबाद का पुलिस कार्यवाही के बाद 18 सितंबर 1948 को अधिग्रहण किया गया. जबकि त्रावनकोर-कोचीन 27 मई 1949, कोल्हापुर फरबरी 1949 तथा मैसूर का विलय 25 नवंबर 1949 को तथा हिमालयी राज्य टिहरी का विलय 1 अगस्त 1949 को हुआ. हिमाचल प्रदेश का गठन करने से पहले 1948 में ही वहां की 27 रियासतों का संघ बना कर उसे केंद्रीय शासन के तहत लाया गया.

ब्रिटिश भारत में जहां कांग्रेस आजादी के लिए लड़ रही थी वहीं रियासतों में कांग्रेस के ही दिशा निर्देशन में प्रजामंडल सक्रिय थे. इन प्रजामंडलों का संचालन सन् 1927 में बंबई में गठित ‘अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद’ (ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कान्फ्रेंस) कर रही थी. इसकी कमान पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सन् 1939 में स्वयं संभाली जो कि 1946 तक इसके अध्यक्ष रहे.

नेहरू के बाद डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने परिषद की कमान संभाली जो कि 25 अप्रैल सन् 1948 में लोक परिषद के कांग्रेस में विलय के समय तक इसके अध्यक्ष रहे.

इसी लोक परिषद के तहत पंजाब हिल्स की टिहरी समेत हिमाचल की 35 रियासतों के प्रजामंडलों के दिशा-निर्देशन के लिए ‘‘हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउंसिल’’ का गठन किया गया.

दरअसल, देशी रियासतें ब्रिटिश हुकूमत के लिए ‘बफर स्टेट्स’ के समान थी. सन् 1857 की गदर के दौरान देशी शासकों ने अंग्रेजों का साथ देकर उन्हें अहसास दिला दिया था कि भारत पर शासन करना है तो राज्य हरण की नीति पर चलने के बजाय उनसे मिलकर चलने में ही अंग्रेजी हुकूमत की भलाई है.

अंग्रेजों का इन पर नियंत्रण भी था और इनके प्रति सुरक्षा के अलावा कोई खास जिम्मेदारी भी नहीं थी. अंग्रेजी हुकूमत ने पैरामौंटसी हासिल कर देशी शासकों को दंडित करने और उनके उत्तराधिकारी के चयन का अधिकार अपने पास रख कर सार्वभौमिकता साथ ही उनकी वफादारी भी गिरवी रख दी थी.

सन् 1921 में माउटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के तहत देशी शासकों को अपनी जरूरतों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए ’चैम्बर ऑफ प्रिंसेेज’ का गठन हो चुका था, जिसे ‘नरेंद्र मंडल’ भी कहा जाता था.

इसके पहले चांसलर बिकानेर के महाराजा गंगा सिंह बने. जवाहर लाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए जब देशी राज्यों से संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि भेजने की अपील की तो भोपाल के नवाब, जो कि उस समय ‘नरेंद्र मंडल’ के चांसलर भी थे, ने अपील ठुकरा दी. जबकि बीकानेर के महाराजा ने सबसे पहले अपना प्रतिनिधि संविधान सभा के लिए मनोनीत कर दिया.

उसके बाद पटियाला, बड़ोदा, जयपुर और कोचीन के प्रतिनिधियों के  संविधान सभा में शामिल होने से इन राज्यों की नई व्यवस्था के साथ चलने की शुरुआत हो गई.

तत्कालीन गर्वनर जनरल माउंटबेटन ने चैम्बर ऑफ प्रिंसेज की बैठक में साफ कह दिया था की राज्यों का अपना अलग अस्तित्व बनाए रखना अब व्यवहारिक नहीं रह गया है, इसलिए इन राज्यों को भारत या पाकिस्तान में से किसी के साथ भौगोलिक सम्बद्धता के अनुसार मिल जाना चाहिए.

चूंकि जितने देशी राज्य उतने प्रांत बनाना संभव नहीं था इसलिए पूर्ण रूप से भारत संघ में इनके विलय से पहले एकीकरण की कार्यवाही की गई और विलीनीकरण या मर्जर से पहले ‘इंट्रूमेण्ट ऑफ एक्सेशन’ पर देशी शासकों से हस्ताक्षर करा कर पटेल और मेनन ने एक तरह से उनकी सार्वभौमिकता हासिल कर ली, जिसके तहत देशी राज्यों ने सुरक्षा, यातायात और वैदेशिक मामलों के अधिकार भारत संघ को सौंप दिए मगर उनकी आंतरिक स्वायत्तता बरकरार रही.

15 अगस्त 1947 तक हैदराबाद, भोपाल और कश्मीर को छोड़कर 136 राज्यों ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे. इस तरह भारत संघ में मिलने वाले 554 देशी राज्यों में से 551 तो इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर के बाद शांतिपूर्ण ढंग से भारत संघ में विलीन हो गए. लेकिन हैदराबाद और भोपाल के विलय में मामूली बल का प्रयोग करना पड़ा.

सरदार वल्लभ भाई पटेल और हैदराबाद के सातवें निजाम मीर उस्मान अली ख़ान

जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में मिलने की घोषणा कर पाकिस्तान भाग गया था और उसकी रियासत को जनमत के आधार पर भारत में मिलाना पड़ा.

कश्मीर के शासक ने भी स्वतंत्र रहने की घोषणा की थी, लेकिन जब 1948 में पाकिस्तान की ओर से उस पर कबाइली हमला हुआ तो उसने भी इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर कर लिए.

उस समय 216 छोटे राज्यों को निकटवर्ती प्रांतों से जोड़ कर उन प्रांतों को पार्ट-ए में रखा गया. उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के 39 राज्यों को सेंट्रल प्रोविन्स और उड़ीसा में जोड़ा गया जबकि गुजरात के राज्य बंबई में मिलाए गए.

इसी तरह के 61 छोटे राज्यों का एकीकरण कर उन्हें पार्ट-सी की श्रेणी में तथा कुछ राज्यों के पांच संघ बना कर उन्हें पार्ट-बी में रखा गया. इनमें संयुक्त प्रांत पंजाब राज्य संघ राजस्थान संयुक्त प्रांत त्रानकोर-कोचीन आदि शामिल थे. सन् 1956 में संविधान के सातवें संशोधन से पार्ट-बी श्रेणी समाप्त कर दी गया.

आजादी के बाद भी सन् 1975 में सिक्किम का भारत संघ में विलय हुआ जबकि 5 अगस्त 2019 को भारत की संसद ने जम्मू-कश्मीर के लिए विशेषाधिकार वाली संविधान की धारा 370 और 35 को समाप्त कर उस राज्य की भारत संघ में पूर्ण विलय की जो प्रक्रिया 1948 में अधूरी रह गई  थी उसे पूरा कर लिया इसलिए देखा जाए तो 15 अगस्त का दिन स्वतंत्रता दिवस के साथ ही अखंड भारत के संकल्प का दिवस भी है.

यह भी पढ़ें : स्वतंत्रता दिवस : लालकिले से प्रधानमंत्री के संबोधन की प्रमुख बातें

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