न बादल फटा, न बारिश हुई, न भूकंप आया और न भूस्खलन, इसके बावजूद चमोली की नीति घाटी में जलप्रलय आई.
अचानक आई इस आपादा में दो सौ से अधिक मानव जिंदगियों के लीलने का अंदेशा है, दो निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनाएं पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी हैं और हजारों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ.
नीति घाटी में पूरा जनजीवन अस्त व्यस्त है, प्रकृति के इस प्रकोप से हर कोई हतप्रभ है. बीते सात साल में केदारनाथ के बाद यह दूसरा बड़ी आपदा है. हर बार की तरह सरकार की विकास नीति पर सवाल उठ रहे हैं, विकास के मॉडल पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत महसूस की जा रही है.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि विकास नीति पर उठने वाले सवाल सरकार को चुभ रहे हैं, इसीलिए सरकार कह रही है कि इस हादसे को विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा न बनाएं.
अब जब बात निकली है तो दूर तक जाएगी. यह सब मान रहे हैं कि नीति घाटी में आई आपदा प्राकृतिक नहीं, मानव जनित ही है. ऐसे में क्या यह सवाल करना प्रोपेगैंडा है कि नीति घाटी में आई जलप्रलय में तकरीबन दो सौ लोगों की मौत और सैकड़ों करोड़ रुपये के नुकसान का जिम्मेदार कौन है ?
तमाम तथ्यों के आलोक में यह कहना कि जिम्मेदार हमारी विकास नीति है, प्रोपेगैंडा है ? क्या यह प्रोपेगैंडा है कि हमारी विकास नीति में विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की राय तथा स्थानीय लोगों की सहमति, असहमति कोई मायने नहीं रखती ?
क्या यह भी प्रोपेगैंडा है कि वर्ष 1974 में स्थानीय लोगों के चिपको आंदोलन चलाने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने विशेषज्ञों और जनप्रतिनिधियों की एक कमेटी गठित की थी, जिसकी सिफारिश पर ऋषिगंगा से लेकर अलकनंदा घाटी के लगभग 1200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में कार्ययोजना के आधार पर होने वाले वन कटान को निरस्त कर दिया गया था.
इसके बावजूद पर्यावरणीय पहलुओं की अनेदखी कर नंदा देवी बायोस्फियर रिजर्व के कोर जोन के समीप 2007 में ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट का निर्माण किया गया.
क्या ग्रामीणों की यह सूचना भी प्रोपेगैंडा थी भविष्य का खतरा और बड़ा हो सकता है ?
नीति घाटी में ही रोंगथी में एक बड़ी झील और बन चुकी है. यहां यह बता दें कि ग्रामीणों की सूचना के आद अब वाडिया संस्थान और स्थानीय प्रशासन भी इसकी पुष्टि कर चुका है.
क्या आपदा प्रभावति क्षे़त्र के नजदीक ही इतिहास की गर्त में समाने जा रहा चाई गांव भी प्रौपेगैंडा है ?
इस गांव के ठीक नीचे से जेपी कंपनी की सुरंग निकाली गई, जिसके बाद से यह गांव लगातार धंस रहा है.
दरअसल प्रौपेगैंडा यह नहीं है, प्रौपेगैंडा तो हजारों करोड़ के खर्च वाली ‘ऑल वेदर रोड’ और ‘रेल परियोजना’ हैं, जो असल में सामरिक परियोजनाएं हैं, जिनकी उत्तराखंड बड़ी कीमत चुका रहा है, मगर प्रचारित उन्हें राज्य की विकास परियोजनाओं के रूप में किया जाता है.
यहां यह भी बता दें कि इसी ऑल वेदर रोड पर भविष्य में राज्य की जनता को जगह-जगह टोल चुकाना होगा.
प्रौपेगैंडा तो सरकार की ओर से वित्त आयोग और नीति आयोग के आगे पर्यावरण सुरक्षा के एवज में ग्रीन बोनस की मांग करना है.
पता है, सरकार ग्रीन बोनस की मांग तो करती है मगर पर्यावरणीय सेवाओं के एवज में हर बार मिलने वाले 7.5 फीसदी अधिमान का कहीं कोई जिक्र नहीं करती. यह बजट नियमानुसार स्थानीय निकायों की मजबूती पर खर्च किया जाना चाहिए मगर सरकार स्थानीय निकायों को तो मजबूत करती ही नहीं. आज तक संविधान के 73वें और 74वें संशोधन तो सही से लागू नहीं किए गए.
प्रौपेगैंडा तो सरकार और उसके अफसरों को मिलने वाले ‘पुरस्कार’ हैं. योजना की कामयाबी या नाकामी कोई मायने नहीं रखती. इधर योजना लांच होती है और उधर उसी पर नेशनल एवार्ड मिल जाता है.
प्रौपेगैंडा है हमारी नीतियां, जो बनती तो कार्पोरेट, माफिया और ठेकेदारों के हित को ध्यान में रखकर हैं लेकिन उन्हें नाम ‘जनहित’ और ‘विकास’ का दिया जाता है.
नीतियां देखिए, आल वेदर रोड पर मानकों के विपरीत हर मंजूरी मिल जाती है मगर गढवाल और कुमाऊं को जोडने वाली कंडी रोड के लिए स्वीकृति नहीं मिलती.
विकास के किस मॉडल पर हम काम रहे हैं, इसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं.
सरकार ने हाल में पंतनगर विश्वविद्यालय की 1072 हेक्टेअर भूमि उड्डयन विभाग के नाम दर्ज की है. पंतनगर विश्वविद्यालय की यह भूमि न्यू ग्रीन फील्ड अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट बनाने के नाम पर मुफ्त दी गई है.
दबी जुबां में चर्चा तो यह है कि यह निर्णय अडानी के हित के लिए लिया गया है, सच क्या है फिलहाल कहा नहीं जा सकता, मगर सरकार ने यह निर्णय लेने से पहले यह विचार करना भी जरुरी नहीं समझा कि पंतनगर विश्वविद्यालय की उपजाऊ जमीन देने के मतलब एक अवधारणा को खत्म करना है.
पंतनगर विश्वविद्यालय कोई सामान्य संस्थान नहीं है. तकरीबन साठ साल पुराना यह देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय है, जिसके नाम तमाम उपलब्धियां दर्ज हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस विश्वविद्यालय की पहचान है.
इस विश्वविद्यालय का गठन वर्ष 1952 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में गठित उच्च शिक्षा समिति की सिफारिश पर खासतौर पर देश में कृषि आधारित शिक्षण शोध और उसके प्रसार के लिए किया गया था.
उत्तराखंड के लिए अपने जन्म के साथ इस विश्वविद्यालय का मिलना एक तरह से वरदान सरीखा था. राज्य के विकास के मॉडल के केंद्र में इस विश्वविद्यालय को रखा जा सकता था मगर दुर्भाग्य यह है कि बीते बीस साल में इस संस्थान को लगातार गर्त में धकेला गया.
सरकारों ने इस विश्वविद्यालय के महत्व को समझने, स्थापित उददेश्यों की पूर्ति करने और लक्ष्य हासिल करने के बजाय कुठाराघात किया.
नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली पहली निर्वाचित सरकार ने ही पंतनगर विश्वविद्यालय की सैकड़ों एकड़ कृषि भूमि औद्योगीकरण के नाम पर सिडकुल के जरिए कौड़ियों के भाव पूंजीपतियों को सौंप कर इसकी शुरुआत कर दी थी, नतीजा आज सामने है.
सबकुछ जानते बूझते त्रिवेंद्र सरकार ने एक बार फिर विकास के नाम पंतनगर विश्वविद्यालय की सैकड़ों हेक्टेअर कृषि भूमि तमाम विरोध के बावजूद लुटा दी.
दरअसल सरकार की प्राथमिकता में कृषि, कृषि सुरक्षा और कृषि तकनीक विकास है ही नहीं.
कृषि को आर्थिकी का आधार बनाना मकसद होता तो उत्तराखंड भांग की खेती का लाइसेंस देने वाला देश का पहला राज्य नहीं होता.
कृषि और बागवानी यदि सरकार की प्राथमिकता में होते तो पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान अल्मोड़ा के निदेशक और पंतनगर विश्वविद्यालय के कुलपति की आपत्ति के बावजूद विश्वविद्यालय की उपजाऊ जमीन हवाई अड्डे के नाम पर यूं लुटाई नहीं जाती.
सरकार चाहती तो उद्योग और हवाई अड्डे जैसी योजनाओं के लिए बंजर या ऐसी भूमि की तलाश की जा सकती थी जिस पर कृषि कार्य न हो रहा हो.
हो तो काफी कुछ सकता था, मगर सच्चाई यह है कि सरकार के लिए विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की राय मायने नहीं रखती.
सरकार तो अपनी ‘विकास नीति’ पर चलती है, चाहे वह कोई जल विद्युत परियोजना हो, स्मार्ट सिटी परियोजना हो, एयरपोर्ट की योजना हो या फिर एग्रीकल्चर और हार्टिकल्चर की. सरकार की वह विकास नीति जो सिर्फ कार्पोरेट, माफिया, नौकरशाहों और ठेकेदारों के हित साधती है.
चलिए जहां से शुरू किया वहीं लौटते हैं, सरकार कहती है कि आपदा में विकास नीति पर सवाल उठाना प्रौपेगैंडा है. सवाल यह है कि नीति घाटी में आई जलप्रलय पर सरकार की विकास नीति पर सवाल अगर प्रौपेगैंडा है तो सरकारी चुस्ती का गुणगान करना क्या है ?
हफ्तेभर से रात दिन राहत और बचाव अभियान चलाने के बावजूद 150 से अधिक लोगों का कोई अता पता नहीं है. अंधेरी सुरंग में पुलिस के जवान और जिंदगी तलाश रहे हैं, मगर उन्हें कामयाबी नहीं मिल रही है.
प्रौपेगैंडा तो यह है कि सरकार का सिस्टम आपदा की भयावहता और उसके कारणों पर बात करने के बजाय ‘मोर्चे पर मुखिया, ‘संवेदनशील नेतृत्व’ जैसे जुमलों के साथ मुख्यमंत्री की ‘मार्कटिंग’ में जुटा है.
कोई पूछे तो कि सरकार ने ऐसा क्या खास कर दिखाया है जो आपादा के दौर में भी उसका ढिंढोरा पीटा जा रहा है. आखिर क्या साबित करना चाहता है सरकार का सिस्टम ?
किसी भी आपदा से निपटने के लि सरकार का मुस्तैद रहना क्या उसका धर्म नहीं है ? दुख की घड़ी में जनता के बीच होना क्या सरकार का कर्तव्य नहीं है ? अगर सरकार ऐसा कर रही है तो उसका ढिंढोरा क्यों ?
ऐसा लगता है कि इस ढिंढोरे से सरकार अपनी तमाम नाकामियों को छिपाना चाहती है, उन सवालों को दबाना चाहती है जो इस आपादा के बाद उठ रहे हैं.
सरकार के रणनीतिकार, सलाहकार और नीति नियंता आखिर कब समझेंगे की आलोचना के मायने विरोध नहीं होता.
सनद रहे कि आपदाएं सिर्फ बांध और जिंदगियां ही नहीं बहाती बल्कि सत्ता की कुर्सियां भी बहा ले जाती हैं, इतना ही नहीं सियासी भविष्य भी तबाह कर डालती हैं.
यह भी पढ़ें : बड़ी चेतावनी है अलकनंदा की सहायक नदियों का यह रौद्र रूप
Discussion about this post