पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में संचार क्रान्ति अपने में जहां असंख्य संभावनाओं को लेकर आयी वहीँ उतनी ही मात्रा में खतरों को भी साथ साथ लाई. इन खतरों की सबसे बड़ी मार संस्कृतियों पर पड़ी है.
सम्पूर्णता में विश्व गाँव की कल्पना भले ही दूर की कौड़ी रही हो, परन्तु ज्यादातर संस्कृतियों का गला घोंटने में तो संचार क्रांति ने सम्पूर्ण विश्व पर अपना भद्दा दाग छोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लोक भाषाएं तेजी से बिलुप्त हो रही हैं.
संयुक्त राष्ट्र की 2010 की एक सर्वे के अनुसार भारत में लगभग 1500 बोलियाँ बिलुप्त हो चुकी हैं. यह त्रास सिर्फ बोलियों के लुप्त होने तक ही सीमित नहीं है.
संकट तो वस्तुतः रीति-रिवाजों, परम्पराओं से लेकर पलायन के गहरे दंश तक हर ओर है. जिन बोलियों की स्थिति अपेक्षाकृत ठीक है, मसलन, भोजपुरी, राजस्थानी, हिमाचली आदि, उनको भी बेढब खिचड़ी ने कहीं का नहीं छोड़ा है.
हाँ संक्रमण के इस दौर में जिन लोकभाषाओं में एक भी सुधी कवि, गायक मौजूद रहा हो, मसलन, असमी में भूपेन हजारिका, या फिर गढ़वाली-कुमाउनी में नरेंद्र सिंह नेगी, उनका लोक संगीत काफी कुछ बचा ही नहीं रहा, बल्कि परिष्कृत-परिमार्जित हो कर भी उभरा है.
उपरोक्त भूमिका के साथ मूल बात पर आते हैं. आज से चालीस साल पहले नरेंद्र दा ने जब लोकगायकी के क्षेत्र में कदम रखा, उस समय लोकगायकी के प्रसारण का एक मात्र जरिया आकाशव़ाणी था. तरुण नरेन्द्र ने भी आकाशव़ाणी से ही गायकी की शुरुआत की.
एक अद्भुत संयोग था की करीब-करीब इसी दौरान भारत में संगीत उद्योग HMV रिकोर्डिंग कम्पनी जैसे अभिजात्य बन्धनों से छिटक कर आम आदमी की पहुँच में आने लगा था.
इलेक्ट्रॉनिक क्रान्ति के कारण टेप रिकॉर्डर जहां आम होने लगे थे वहीँ रिकार्डिंग की दुनिया में गुलशन कुमार के रूप में एक ऐसे धूमकेतु का अवतरण हुआ, जिसने रिकार्डिंग को अमीरों के शौक से हट कर आम आदमी की पहुँच तक ला खडा कर दिया.
इस संयोग ने नरेंद्र दा की प्रतिभा को आगे लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सभी लोक भाषाओं के संगीत के प्रसार में इस क्रान्ति का योगदान है. परन्तु आज उत्तराखंडी और खासकर गढ़वाली लोक संगीत की तुलना यदि अन्य लोक भाषाओं से की जाय तो गढ़वाली लोक संगीत की स्थिति कहीं अच्छी है, और इसका श्रेय जाता है सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र दा को.
सोचता हूँ की श्रव्य माध्यम की क्रान्ति की शुरुआत में यदि नरेंद्र दा (नरू दा, उनके मित्र उन्हें इसी संबोधन से पुकारते हैं) उपलब्ध ना होते तो यहाँ के लोक संगीत की स्थिति भी भोजपुरी, हिमाचली, पंजाबी जैसी लोक भाषाओं से अलग ना होती.
और यह भी फूहड़ता, अश्लीलता और बॉलीवुड गीतों की पैरोडी मात्र बनकर रह जाती. नरेन्द्र ने पिछले चार दसक के दौरान उत्तराखंडी लोक संगीत क्रान्ति के लगभग सम्पूर्ण युग को करीब-करीब अकेले ही एक विराट केनवास पर उकेर दिया हैं. जिसमें मात्रा की प्रचुरता है, विधाओं का वैविद्ध्य है, साहित्य की स्तरीयता है और है बाज़ार की चुनौतियों से निपटने का हुनर.
इस सदी की शुरुआत में दृश्य-श्रब्य संसाधनों के प्रचलन के रूप में लोक संगीत के सामने फिर एक नयी किस्म की चुनौती आयी. नरेंद्र को भी इस सब से दो-चार होना पडा. परन्तु फिर भी उनकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर है, और उन्होंने गुणवत्ता से कभी समझौता भी नहीं किया.
उनकी सफलता उन लोगों की सोच पर एक तमाचा है जो बाजारू दबाव का रोना रोते हुए ओछा संगीत परोसने की बात करते हैं. भोजपुरी में तो लोक संगीत इसी मानसिकता के चलते लगभग बर्बादी के कगार पर खडा है.
उत्तराखंड में भी छुर्की-फुर्की, लबरा, सनका– जैसे असंख्य गाने ब्याह-बारातों में शराबियों में लोकप्रिय हैं. परन्तु उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता. वे जितनी तेज़ी से बाज़ार में आते हैं, उतनी ही तेज़ी से चले जाते हैं.
नरेन्द्र दा का पहला अल्बम “गढ़देश” से लेकर अब तक सैकड़ों एल्बम बाज़ार में आये हैं. लगभग सभी में स्तरीयता बरकरार रही है. वहीँ ये सारे अल्बम प्रचुर विविधता के कारण गीत दर गीत नवीनता का अहसास दिलाते हैं.
विषयों की विविधता तो चकित कर देनेवाली है ही, साथ ही जिन बिम्बों का इस्तेमाल नरेन्द्र सिंह नेगी ने गीतों में किया है वह अत्यंत दुर्लभ है. यही वह प्रतिभा है जो नरेन्द्र सिंह नेगी को गायक से सौ कोस आगे एक कवि के रूप में खड़ा करती है.
उनमें अंगरेजी कवि जॉन कीट्स और शैले का संयोग परिलक्षित होता है. नेगी दुर्लभ प्रतिभा के धनी तो हैं ही, इसके साथ साथ वे हर गीत पर, चाहे वह आम रोमैंटिक गीत हो या फिर “बावानगढों को देश” जैसे ऐतिहासिक शोध के गीत, बेहद मेहनत करते हैं.
नेगी का लगभग हर गीत पहले एक उत्कृष्ट कविता है और उससे भी पहले एक स्तरीय शोध पत्र, लोक संस्कृति का जीवंत दस्तावेज़. यहाँ जानबूझ कर मैं उदाहरण के रूप में गीत विशेष के जिक्र से परहेज रहा हूँ क्योकि हर गीत एक से बढ़ कर एक हैं.
नेगी के गीत अधिकाँशतः बाज़ार के दबाव से मुक्त रहे हैं. यद्यपि कभी कभी “अगने अगने को होलू जाणु घर्या बिरालू सी पून्छ हिलाणु”..जैसे गीत इस दबाव में लिखे और गाये गए प्रतीत होते हैं. परन्तु खुद नेगी ही अपने मार्ग द्रष्टा हैं और उन्होंने इस तरह के गीतों पर ज्यादा भरोसा नहीं किया.
यह अच्छा ही हुआ. वरना नेगी ने उत्तराखंडी लोकगीतों में स्तरीयता के जो मानक स्थापित कर दिए हैं, तुलना तो उन्ही से होनी है, अन्य गायकों की भी और खुद नेगी दा की भी. अगर आज गढ़वाली लोक संगीत से नरेन्द्र सिंह नेगी को अलग कर दें तो क्या बचेगा.
नेगी दा की सबसे बड़ी देन यह भी है कि नए गायकों को अगर पाँव जमाने हैं तो नरेंद्र सिंह नेगी के द्वारा स्थापित मापदंडों की कसौटी पर खरा उतरना होगा. क्योकि तुलना हर बार नरेंद्र सिंह नेगी ही से होगी.
जनगीतों के संदर्भ में यदि नरेन्द्र सिंह नेगी जी के योगदान का वर्णन करें तो इससे पहले एक संक्षिप्त दृष्टि उत्तराखंडी लोकसाहित्य में जनगीतों की परम्परा पर डालनी होगी.
यह एक दिलचस्प पहलू है कि उत्तराखंडी लोकसंगीत में जनगीतों की परम्परा अधिक पुरानी नहीं है. वैसे तो अबनी शब्द समृद्धि के लिए इन बोलियों की प्रशंसा करने वालों की कमी नहीं है, जो की सही भी है.
जैसे विभिन्न प्रकार की गंधों को व्यक्त करने के लिए इन बोलियों में सैकड़ों शब्द हैं जोकि अन्यत्र मिलना दुर्लभ है, यहाँ तक कि उन्नत भाषाओं में भी. फिरभी संघर्ष, विद्रोह जैसे शब्दों के लिए गढ़वाली-कुमाउनी में कोई शब्द नहीं है.
जिस समृद्ध अभिव्यक्ति के साथ इन बोलियों के लोकगीतों में दुःख/ परेशानियों, वियोग की परम्परा रही है, उतनी सिद्दत के साथ जन-संघर्षों कि अभिव्यक्तियाँ नहीं आयी हैं.
इस कमी की छाप आजतक चली आ रही है. हालांकि पिछले साठ-सत्तर साल से इस दिशा में कुछ प्रयास अवश्य हुए हैं जो बहुत अधिक सफल भी रहे हैं. इस सम्बन्ध में कुमाउनी में गौर्दा, गिर्दा जैसे स्वनामधन्य कवियों, और गढ़वाली में घनश्याम सैलानी जैसे जन-संघर्षों के प्रतिनिधि कवियों का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है.
नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने अन्य विधाओं की तरह जनगीतों पर भी सफल प्रयोग किये. उनके कई गीत जनांदोलनों और खासकर उत्तराखंड आंदोलन की जान हो चले थे, तब चाहे “माथि पहाड़ बीटी…” हो या फिर “बोला भाई बन्दों तुमु तैं…” जैसे अत्यंत लोकप्रिय गीत हों, नरेन्द्र दा की जनगीतों के प्रति गहरी समझ की सफलतम अभिव्यक्तियाँ है.
हालांकि उनके कुछ जनगीतों जैसे, सदानी नि रौण ए झोतु तेरी जमादारी, या फिर जाग जाग हे उत्तराखंड ऐ नरसिंह भैरों प्रचंड.., को कुछ आलोचक सही अर्थों में जनगीतों की श्रेणी में नहीं रखते हैं.
मुझे लगता है इसके लिए कुछ गीतों के बोल और कुछ की धुन अधिक जिम्मेदार है. क्योंकि इन गीतों की धुनो से या तो दुःख दर्द की प्रतिध्वनि ज्यादा आती हैं और या फिर उनके बोलों में लोक देवताओं पर भरोसा कर उनका आह्वान. जबकि लड़ने, संघर्ष करने का जुझारूपन अपेक्षाकृत कम.
कहते हैं एक सफल जनगीतकार पहले एक जुझारू जनआंदोलनकारी होना चाहिए. सामाजिक सरोकारों के प्रति नरेन्द्र दा की सक्रियता जग जाहिर है. जनता के पक्ष में खड़ा होने में उन्होंने ना तो अपनी सरकारी नौकरी की परवाह की और ना ही किसी सरकारी सम्मान की.
इस लोकगायक ने अपने विनम्र व्यक्तित्व के संबल के साथ लोकपक्ष के प्रति इतनी हठधर्मिता संजो कर रखी है कि आश्चर्य होता है. सच के पक्ष में सबकुछ गंवा कर भी खड़ा होने कि इतनी तड़फ़?
राज्य बनने के बाद जब खुद को पद्मश्री जैसे अलंकरणों से विभूषित करने कि होड़ लगी थी, ऐन उसी वक्त पर नरेन्द्र दा ने “नौछम्मी नारेण…” जैसा ब्यंग्य गीत गा कर सत्ता का जो बिद्रूप सामने लाया उसने नरेन्द्र दा की सरकारी अलंकरण की संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगा दिया.
ये अलग बात है कि यह गीत तिवारी सरकार के ताबूत पर आखरी कील साबित हुआ. तिवारी सरकार की जड़ें उखाड़ने में इस गीत की महत्वपूर्ण भूमिका रही, यह मानने वालों की कमी नहीं है. फिर उन्होंने रही सही कसर भाजपा के कार्यकाल में “कमिसन को मीट-भात…” गा कर पूरी कर दी.
हाँ इन्ही तेवरों और जनमानस के प्रति गहरी संवेदनाओं वाले इस लोक गायक/लोक कवि के लिए आम जनमानस के मन में जितना सम्मान, जितना प्यार है, उसके सामने करोड़ों सरकारी प्रायोजित अलंकरण दो कौडी के.
उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए जब राष्ट्रीय दल अपने पक्ष में प्रचार करने के लिया तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे थे, जिनसे उन्हें आर्थिक और राजनैतिक फायदा होता, वे इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों- कभी ‘उत्तराखंड क्रान्ति दल’ तो कभी ‘उत्तराखंड रक्षामोर्चा’ के पक्ष में निस्वार्थ भाव से प्रचार करते, जिसके पीछे क्षेत्रीय ताकतों को मजबूत करने की भावना ही प्रधान होती.
यह दीगर बात है की अपनी कमियों के कारण ये दल कुछ खास नहीं कर पाए. वास्तव में नेगी दा स्वभाव से जितने मृदु हैं, जनता और पहाड़ के मुद्दों के प्रति लगभग उतने ही अड़ियल.
उनके सिद्धांतों की एक बानगी देखिये कि पशु बलि प्रथा के विरुद्ध उनके द्वारा लगभग पचीस वर्ष पूर्व लिखा गीत, ” निहोणी-निहोणी रे तेरी..” उन्होंने बहुत बाद में तब गाया जब उन्होंने मांसाहारी भोजन का पूर्णतः त्याग कर दिया.
नेगी कि रचनाधर्मिता पर चर्चा करते हुए उनके व्यक्तित्व पर बात करना कुछ लोगों को अटपटा लगे परन्तु नरेन्द्र दा के रचना संसार को समग्रता में उनके व्यक्तित्वा के विभिन्न पहलुओं कि पड़ताल किया विना नहीं समझा जा सकता है.
सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध नरेंद्र सिंह नेगी जी अपने लगभग हर एल्बम में गीत के माध्यम से कोई ना कोई मुद्दा उठाते हैं. यह भी सुकून कि बात है कि इनमें भी ज्यादातर गीत खासे लोकप्रिय हुए हैं जोकि अपने आप में नरेन्द्र दा का जनकवि और जनगायक होने का प्रमाण है.
अब संक्षेप में नरेन्द्र दा के गीतों में प्रयुक्त बिम्बों: उपमाओं/रूपकों का जिक्र करें. नरेन्द्र नें अपने द्वारा रचित गीतों में गढ़वाली बोली की शशक्तता का लाभ उठाते हुए ऐसे ऐसे उपमान और रूपक गढे हैं जिनकी मिसाल अन्यत्र मिलना दुर्लभ है.
हालांकि मैं जानता हूँ यह बहुत बड़ा दावा है तथापि में पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूँ कि संस्कृत साहित्य में भी इस प्रकार के बिम्ब अत्यंत दुर्लभ हैं.
पहले एल्बम से लेकर आजतक पिछले चालीस वर्षों तक फैले नरेन्द्र सिंह नेगी के रचना संसार में ऐसे असंख्या गीत हैं जो विश्मय्कारी बिम्बों से लबालब हैं. उदाहरण के तौर पर ” हान्सुला धागुला छान्मनान्दा…, रात सुपिन्यों माँ आंदी तू….., मेलु घिन्गोरा कि दानी खाई जा…., चम्म चमकी घाम दान्द्यों माँ….तेरा रूप का झूल माँ नौनी सि ज्यू मेरो… कोधुंगो नि पूजी मीन.. मेरा डांडी कान्त्यों का मुलुक……आदि, आदि, इत्यादि,, सैकड़ों गीत एक से बढ़ कर एक…..’
इतनी विलक्षणताओं के बाबजूद नेगी दा के साथ जुड़ी दो बिडम्बनाओं से बेदना होती है. पहले तों इतनी दुर्लभ प्रतिभा के बाबजूद राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें वह पहचान नहीं मिली जिसके कि वे हकदार थे, और दूसरे उनकी रचनाओं का अंग्रजी भाषाओं सहित अन्य भाषाओं में प्रामाणिक काव्यात्मक अनुवाद ना होना.
उम्मीद कि जानी चाहिए कि गढ़वाली लोक भाषा के शुभ्कामी भविष्य में इन कमियों को दूर करने के सामूहिक अथवा व्यक्तिगत प्रयास करेंगे.
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