हाल ही में उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के दो सलाहकारों की नियुक्ति हुई है. हालांकि नियुक्तियां तो तीन हुई थी, जिनमें मीडिया सलाहकार की नियुक्ति को चौबीस घंटे बीतने से पहले ही निरस्त कर दिया गया.
फिलवक्त जो दो नियुक्तियां हुई हैं, उनमें एक मुख्य सलाहकार हैं तो दूसरे प्रमुख सलाहकार.
मुख्य सलाहकार रिटायर्ड आईएएस शत्रुध्न सिंह हैं जो राज्य के मुख्य सचिव रह चुके हैं और प्रमुख सलाहकार भारतीय वन सेवा के रिटायर्ड अधिकारी डॉक्टर आरबीएस रावत.
आरबीएस रावत राज्य में वन विभाग के मुखिया रह चुके हैं.
राज्य के बीस साल के इतिहास में पहला ऐसा मौका है जब राज्य के दो शीर्ष पदों पर नियुक्त रह चुके नौकरशाहों को मुख्यमंत्री का सलाहकार नियुक्त किया गया है.
इन दोनों सलाहकारों की नियुक्ति राज्य की नौकरशाही में तो चर्चा का विषय है ही, मौजूदा परिस्थतियों में कुछ गंभीर सवाल भी खडे़ कर रही है.
सरकार में सलाहकारों को निुयक्त करने की परंपरा हालांकि को नई नहीं है. उत्तराखंड में ही नहीं, अन्य राज्यों में भी मुख्यमंत्री अपने सलाहकार नियुक्त करते रहे हैं.
केंद्र में सलाहकारों की जरुर बड़ी भूमिका रहती हो मगर राज्यों में इन सलाहकारों की कोई खास उपयोगिता नहीं रही है.
अपने उत्तराखंड में तो जबकि सलाहकारों का अनुभव भी बहुत अच्छा नहीं रहा है. कई मौकों पर मुख्यमंत्री के सलाहकार ही मुख्यमंत्री और सरकार बदलने का कारण भी बने हैं.
बहरहाल फिलवक्त सवाल उत्तराखंड में दो सेवानिवृत्त अफसरों को मुख्यमंत्री का सलाहकार नियुक्त किए जाने का है. सियासी हलकों में तो इसके अलग-अलग मायने निकाले जा रहे हैं.
कोई इसे सियासी खेमेबंदी से जोड़कर देख रहा है तो कोई इसे नौकरशाही पर मानसिक दबाव की रणनीति के तौर पर देख रहा है.
मगर एक आम आदमी की नजर में सवाल यह है कि महामारी के संकट में भी जिस सरकार को एक स्वास्थ्य मंत्री की जरुरत नहीं है, उस सरकार को मुख्य सलाहकार और प्रधान सलाहकारों की जरुरत क्यों है?
मगर सिस्टम की नजर से देखा जाए तो पूर्व शीर्ष नौकरशाहों को फ्रंटलाइन में लाने का मतलब यह साफ है कि मौजूदा सिस्टम ‘संदिग्ध’ है.
नए मुख्यमंत्री को मौजूदा नौकरशाहों पर भरोसा नहीं है. ऐसा है तो यह अपने आप में बेहद गंभीर है, कारण यह है कि कोई भी सिस्टम रिटायर्ड अफसरों से नहीं चलता.
जाहिर है सरकार के इस फैसले के बाद से मौजूदा मुख्यसचिव, अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव और सचिवों की काबिलियत पर बड़ा सवाल है.
सवाल सिर्फ अफसरों पर ही नहीं, सवाल तो पूरी सरकार यानी मंत्रीमंडल पर भी है.
क्या मुख्यमंत्री और सरकार में शामिल मंत्री इतने अक्षम हैं कि उन्हें राज्य की समस्याएं और समाधान की जानकारी नहीं है? या फिर यह मान लिया जाए कि सरकार में आत्मविश्वास और मौजूदा नौकरशाही से काम लेने का दम नहीं है.
जहां तक सलहकारों का सवाल है तो वे कभी भी सरकारों के लिए फायदेमंद साबित नहीं हुए.
यहां तो शीर्ष पदों पर नौकरशाहों की मुख्य सलाहकार और सलाहकार के रूप में नियुक्ति को समांतर शासन व्यवस्था और अहम पदों पर बैठे पुराने मुख्यमंत्री के पसंदीदा अफसरों की काट के तौर पर देखा जा रहा है.
चलिए सलाहकारों के इतिहास पर नजर डालते हैं.
यह सही है कि सरकार को सलाह की जरूरत होती है. लेकिन निर्भर यह करता है कि किन मामलों में?
केंद्र की बात करें तो राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर आर्थिक, तकनीकी और तमाम नीतिगत और अहम मसलों पर सरकार को निष्पक्ष सलाह की जरुरत होती है.
केंद्र सरकार के अधिकांश सलाहकार तो नेपथ्य में रहकर निरंतर सरकार को सलाह देने का काम करते हैं मगर कुछ सलाहकार ऐसे में भी होते हैं जो सरकार का चेहरा होते हैं, मसलन राष्ट्रीय सुरक्षा सलहाकार, अर्थिक सलाहकार, वैज्ञानिक सलाहकार आदि.
हर सरकार संबंधित क्षेत्र से जुड़े नामचीनों की इन पदों पर नियुक्त करती है.
जहां तक राज्यों का सवाल है तो आमतौर पर प्रदेश स्तर पर इस तरह के विषय नहीं होते हैं, फिर भी मुख्यमंत्री और कई बार तो पावरफुल मंत्री भी अपने विभाग में सलाहकार नियुक्त कर देते हैं.
दरअसल किसी भी सरकार या उसके मुखिया को सलाहकार की जरुरत कब होती है?
जब सरकार के सामने कोई चुनौती हो, सरकार राज्यहित में कोई नवाचार करना चाहती हो या फिर भविष्य के लिए किसी बड़े बदलाव की योजना हो, तो ही सलाहकार की जरुरत हो सकती है.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उत्तराखंड में इस लिहाज से तो सलाहकार कभी रखे ही नहीं गए, यह सब तो हमेशा से नौकरशाहों के भरोसे ही रहता चला आ रहा है.
बीते बीस साल में नौकरशाह उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों के सिस्टम को ‘कापी पेस्ट’ कर राज्य की व्यवस्थाएं चलाते आ रहे हैं.
राज्य के भौगोलिक और सामाजिक परिवेश के अनुरूप नीतियां बनाने की ईमानदार कोशिश तो कभी हुई ही नहीं.
और तो और तमाम विविधताओं और विषमताओं भरे इस प्रदेश में योजना आयोग जैसी संस्थाएं भी महज खानापूर्ति के लिए ही रहीं.
मोटे आकलन के मुताबिक अब तक करोड़ों रुपये सलाहाकारों पर लुटाये जा चुके है मगर हासिल क्या रहा इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं है.
सच तो यह है कि सलाहकारों के जरिए या तो राजनेता अपना उल्लू सीधा कर रहे होते हैं या फिर खुद सलाहकार अपने निजी हित साध रहे होते हैं.
बहरहाल मौजूदा सरकार द्वारा की गई सलाहकारों कि नियुक्ति पर वापस लौटते हैं..
सरकार द्वारा सलाहकार बनाए गए दो लोगों में से एक शत्रुघ्न सिंह हाल ही तक प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त थे और इसके लिए उन्होंने प्रदेश के मुख्य सचिव पद से इस्तीफा दिया.
मुख्य सचिव बनने से पहले शत्रुघ्न सिंह उत्तराखंड में तमाम विभागों के सचिव भी रहे हैं.
दूसरे सलाहकार बनाए गए आरबीएस रावत प्रदेश की वन सेवा के सबसे बड़े अधिकारी, वन विभाग के मुखिया रहे हैं.
सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें सरकार ने अधीनस्थ चयन आयोग का चेयरमैन बनाया गया. इस पद से उन्होंने इस्तीफा दिया था
इन दोनों अधिकारियों का प्रदेश में लंबा सेवाकाल रहा है. ऐसे में जाहिर है इसका आंकलन जरुर होना चाहिए कि सेवाकाल के दौरान आला अधिकारी के तौर पर उनकी क्या उपलब्धियां रहीं.
यहां पर सवाल शत्रुघ्न सिंह और आरबीएस रावत की काबिलियत, नाकाबिलियत से ज्यादा सरकार की ‘मंशा’ पर है.
मान भी लिया जाए कि इन रिटायर्ड नौकरशाहों की सलाहकार के तौर पर नियुक्ति के पीछे मुख्यमंत्री तीरथ सिह रावत की मंशा साफ है, तब भी सवाल उठता है कि क्या ये सलहाकार आसन्न चुनौती से निपटने में कोई प्रभावी भूमिका निभा पाएंगे?
क्योंकि मुख्यमंत्री के तौर पर तीरथ के पास वक्त बहुत कम है और चुनौतियां ज्यादा. शुरुआती दिनों में तीरथ ने अपनी ही सरकार के फैसलों को पलटकर जो सुर्खियां बटोरीं वो भी धुंधली पड़ चुकी हैं .
कोराना का प्रकोप जैसे-जैसे पहाड़ और गांवों की ओर बढ़ रहा है ऐसे में तीरथ की मुश्किलें और बढ़ने जा रही हैं.
आने वाले दिनों में उन्हें न सिर्फ जनता का भरोसा जीतना है बल्कि अपनी सियासी जमीन भी मजबूत करनी है.
हालांकि मुख्यमंत्री तीरथ की ओर से लिया जाने वाला निर्णय उनका अपना ‘खुद’ का ही निर्णय होगा इसमें भी संशय है.
फिर भी सेवानिवृत्त नौकरशाहों को सलाहकार नियुक्त करने का फैसला अगर उनका है तो स्पष्ट है कि दूसरे मुख्यमंत्रियों की तरह तीरथ पर भी नौकरशाही का ‘तिलिस्म’ हावी है.
वे शायद इस बात से वाकिफ नहीं कि नौकरशाह कभी किसी का सगा नहीं होता, नौकरशाह तो उस घोड़े की तरह है जो कभी कमजोर घुड़सवार को अपनी सवारी नहीं करने देता.
मुख्य सलाहकार और प्रमुख सलाहकार की यह व्यवस्था आने वाले दिनों में तीरथ के लिए परेशानी का कारण भी बन सकती है.
इतिहास गवाह है कि सलाहकारों ने ही सरकारों की लुटिया डुबोई है.
जानकारों का भी मानना है और खुद पुराने नौकरशाहों का भी कहना है कि बेहतर होता यदि तीरथ ‘बिगड़ैल’ नौकरशाहों को काबू में लेते, उन्हें काम पर लगाते.
अगर लगता है कि मुख्यसचिव पद पर नियुक्त अधिकारी राज्य हित में नहीं हैं या उनके प्रति नाराजगी है तो उन्हें बदलते.
तीरथ यह कर सकते थे मगर उन्होंने जो रास्ता चुनना उससे साफ है कि नौकरशाही का तिलिस्म दूसरे मुख्यमंत्रियों की तरह उन पर भी बुरी तरह हावी है.
एक और अहम बात यह है कि सरकार के पास गिनती के छह महीने बचे हैं, उस पर भी कोरोना महामारी सिर पर खड़ी है..
यह बात उठ रही है कि ऐसे में क्या जरुरत है भारी भरकम सलाहकारों की?
सरकार को सलाहकार बनाने ही थे तो किसी योग्य व्यक्ति को स्वास्थ्य सलाहकार बनाते. किसी आर्थिक मामलों के जानकार की नियुक्ति की जाती जो कर्ज के बोझ को कम करने और आमदनी बढ़ाने के रास्ते बताते.
बेहतर कानूनी सलाहकार रखते जो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बार-बार होती फजीहत से मुख्यमंत्री और सरकार को बचाते. अच्छा होता कि शिक्षा क्षेत्र के उन्ययन के लिए अच्छी राह दिखाने वाले किसी शिक्षाविद को सलाहकार बनाते.
हकीकत यह है कि यह सब संभव था यदि सरकार की आंखों पर ‘सियासत’ का चश्मा नहीं होता. यहां तो सत्ताधारी पार्टी में ही घमासान है.
ऐसा लग रहा है मानो नेतृत्व परिवर्तन नहीं बल्कि सत्ता का ही परिवर्तन हो गया हो. नौकरशाह अपनी धुन में हैं तो मंत्री,विधायकों की अपनी ढपली-अपना राग है.
सरकार से लेकर संगठन के अंदर ही शह-मात का खेल चल रहा है. हर किसी को बखूबी पता है कि कोरोना महामारी के इस संकट भरे दौर में उत्तराखंड की स्थित बेहद चिंतानजक है.
उत्तराखंड देश में सर्वाधिक मृत्यु दर और सबसे कम रिकवरी दर वाले राज्यों में है. कोरोना का संक्रमण शहरों से गांवों की तरफ बढ़ता जा रहा है, जहां का हैल्थ सिस्टम पहले से ही बुरी तरह चरमराया हुआ है.
इसके बाद भी सरकार और उसके मंत्री संकट के इस दौर में सिर्फ चेहरा चमकाने और सियासत बचाने में लगे हैं .
रोज सवाल उठ रहे हैं. कभी सिस्टम के नकारेपन को लेकर तो कभी सरकार की दूरदर्शिता को लेकर. सरकार और सिस्टम का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है.
हर जिम्मेदार बयान जारी कर या फिर फोटो खिंचवाकर अपने दायित्वों की इतिश्री करने में लगा है.
विधायक इसमें ही खुश हैं कि उन्हें कोरोना के नाम पर विधायक निधि खर्च करने की मंजूरी मिल गई है. मंत्रियों को भी मनमानी की छूट है. भविष्य क्या होगा कोई नहीं जानता.
अनिश्चितता और अराजकता चारों ओर पसरी है, यह पिछले दिनों कोरोना से जूझते प्रदेश ने साफतौर पर देखा है.
आम जनता कराह रही थी, तड़प रही थी, लुट रही थी, अपने हाल पर लाचार थी और जिम्मेदारों में किसी को कुर्सी और सियासत की फिक्र थी तो किसी को करोबार की.
सही मायने में इस संकट भरे वक्त में यदि जरूरत थी तो एक काबिल स्वास्थ्य सलाहकार की थी, जो इस संकट से बाहर निकलने में सरकार और सिस्टम की मदद करता.
सनद रहे, जब सरकारों का अपराध लिखा जाएगा तो यह जरुर दर्ज होगा कि जब राज्य को कोरोना महामारी के खिलाफ मेडिकल एक्सपर्ट की जरूरत थी उस वक्त रिटायर्ड नौकरशाहों का पुनर्वास किया जा रहा था.
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