साल 2016, तारीख 27 दिसंबर और स्थान देहरादून का परेड मैदान. मौका था 2017 के विधानसभा चुनावों से डेढ़ महीने पहले भाजपा के चुनाव प्रचार अभियान के शंखनाद का.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस परिवरितन रैली के मुख्य वक्ता थे और उन्हें सुनने के लिए हजारों की संख्या में लोग परेड मैदान में जुटे थे.
हजारों की भीड़ के बीच लगभग 50 मिनट तक प्रधानमंत्री ने अपने अंदाज में सभा को संबोधित किया.
आज लगभग साढ़े चार साल बाद उस रैली का जिक्र करना बेहद प्रासंगिक है.
लगभग 50 मिनट के अपने इस भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यू तो कई सारे चुनावी वादे किए, मगर उनकी जिस बात ने तब सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी थी, वह थी ‘डबल इंजन सरकार’ का वादा.
अपने भाषण के आखरी हिस्से में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इस समय उत्तराखंड बदहाली के ऐसे खड्डे में गिरा हुआ है जहां से बाहर निकालने के लिए डबल इंजन की जरुरत है.
डबल इंजन से प्रधानमंत्री का मतलब था केंद्र के साथ ही उत्तराखंड में भी भाजपा की सरकार.
उन्होंने जनता को भरोसा दिलाया था कि केंद्र की तरह राज्य में भी भाजपा की सरकार बनने पर दोनों सरकारें डबल इंजन की तरह काम करेंगी और प्रदेश में विकास की रफ्तार दुगनी हो जाएगी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया डबल इंजन सरकार का भरोसा लोगों को भा गया और जनता ने भाजपा को 70 में से 57 सीटें जिता कर प्रचंड बहुमत दे दिया.
लेकिन तबसे लेकर आज तक साढ़े चार साल की अवधि में केंद्र सरकार ने उत्तराखंड के साथ जिस तरह का व्यवहार किया है उसे देख कर पीएम मोदी का डबल इंजन सरकार का वादा जुमले के सिवा कुछ और नहीं लगता.
इस कोरोना काल की ही बात करें तो इस संकट काल में पीएम मोदी का डबल इंजन सरकार के वादे की असलियत खुल कर सामने आ चुकी है.
आज कोरोना की दूसरी लहर के दौरान डबल इंजन का पहला इंजन यानी राज्य सरकार का तो पहिया जाम हो चुका है साथ ही उसे खींचने वाले बड़े इंजन यानी केंद्र सरकार ने भी उसका साथ छोड़ दिया है.
कोरोना की दूसरी लहर के कहर के दौरान ऐसा लगा मानो केंद्र का इंजन राज्य सरकार के इंजन से पीछा छुड़ा लेना चाहता हो.
अप्रैल से लेकर जून तक नैनीताल हाई कोर्ट के सवालों पर राज्य और केंद्र सरकार ने जो जवाब दिए, उनसे भी डबल इंजन की असलियत उजागर हो गई है.
अप्रैल से लेकर मई और जून तक हाईकोर्ट में कोरोना को लेकर चली सुनवाइयों के दौरान केंद्र और राज्य सरकार की नाकामियों की कई सारी परतें खुल कर कर सामने आई हैं.
10 मई को हाईकोर्ट में राज्य के स्वास्थय सचिव अमित नेगी ने बताया कि 7 मई को एक पत्र सूबे के सबसे बड़े नौकरशाह यानी मुख्य सचिव ओम प्रकाश ने केंद्र के स्वास्थय विभाग को लिखा जिसमें उन्होंने ऑक्सीजन की कमी को लेकर वस्तुस्थिति सामने रखी.
पत्र के मुताबिक उत्तराखंड का ऑक्सीजन का कोटा 183 मैट्रिक है जिसमें से 60 मीट्रिक टन दूसरे राज्यों से लाना पड़ रहा है, जिसके चलते मरीजों तक ऑक्सीजन पहुंचने में समय लग रहा है.
पत्र के जरिए केंद्र सरकार से मांग की गई कि उत्तराखंड को ऑक्सीजन की आपूर्ति का अधिकार दिया जाए, लेकिन मुख्य सचिव की इस बात का कोई जवाब तक केंद्रीय स्वास्थय मंत्रालय से नहीं मिला.
20 मई को स्वास्थय सचिव अमित नेगी ने कोर्ट को बताया कि 13 मई को प्रदेश का आक्सीजन का कोटा 183 मीट्रिक टन से 300 मीट्रिक टन तक बढ़ाने की गुजारिश केंद्र सरकार से की गई लेकिन उस पत्र तक का जवाब देना मोदी सरकार ने जरुरी नहीं समझा .
20 मई को ही कोर्ट में केंद्र की तरफ से जवाब देते हुए सरकार के असिस्टेंट सौलिसिटर जनरल राकेश थपलियाल ने राज्य सरकार की इस मांग को नकारते हुए कहा कि ऐसा कर पाना केंद्र सरकार के लिए मुशकिल है.
9 जून को , कोर्ट की फटकार के बाद, केंद्र सरकार ने राज्य सरकार की दोनों मांगे मान ली और आक्सीजन का कोटा 200 मैट्रिक टन कर दिया. कोर्ट के आदेश के बाद केंद्र सरकार स्थानीय स्तर पर ही ऑक्सीजन की आपूर्ती के लिए राजी हो गई.
सवाल यह है कि आखिर राज्य की इन जायज मागों को केंद्र सरकार ने पहले ठुकराया ही क्यों ?
जरा सोचिए, यदि हाईकोर्ट इन मामलों में केंद्र को फटकार न लगाता तो क्या उत्तराखंड को कोरोना काल में यह जरूरी राहत मिल पाती ?
गौर करने लायक तथ्य है कि 20 अप्रैल से 20 मई तक प्रदेश में कोरोना से तीन हजार से ज्यादा मौतें हुईं. मरने वालों में बड़ी संख्या में ऐसे मरीज थे जिन्हें समय पर ऑक्सीजन नहीं मिल पाई.
यदि केंद्र सरकार इस दौरान उत्तराखंड को ऑक्सीजन की मदद करती तो इनमें से बहुत लोगों की जान बचाई जा सकती थी.
इसी तरह का एक पत्र 10 मई को उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव ओम प्रकाश ने केंद्रीय स्वास्थय सचिव को लिखा, जिसमें उन्होंने 10 हजार ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और 10 हजार ऑक्सीजन सिलेंडर के अलावा जीवन रक्षा से जुडी मशीनों की मांग की, लेकिन इस मांग पर भी उत्तराखंड की मदद नहीं की गई.
प्रदेश में रैमडेसिवर दवाओं की उपल्बधता के जवाब में 10 मई को स्वास्थय सचिव ने हाईकोर्ट को बताया कि केंद्र ने उत्तराखंड के लिए 74 हजार का कोटा निर्धारित किया लेकिन लगभग 33 हजार ही उपलब्ध हो पाऐ हैं.
प्रदेश के औद्योगिक सचिव सचिव कुर्वे ने बाताया कि जिन कंपनियों को केद्र सरकार ने इंजैक्शन की आपूर्ति के जिम्मेदारी दी है, वे कंपनियां आपूर्ति नहीं कर पा रही हैं.
इस जवाब पर जब कोर्ट ने पूछा कि सरकार इन कंपनियों पर क्या कार्रवाही कर सकती हैं तो सचिव को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. इससे पता चलता है कि कोरोना काल में राज्य के अफसर कितनी ‘गंभीरता’ से काम कर रहे थे.
10 मई को कोर्ट के समाने अपना पक्ष रखते हुए स्वास्थय सचिव ने बताया कि टेस्टिंग प्रक्रिया को और ज्यादा तेज कर करने के लिए लैब आधारित मोबाईल टेस्टिंग वैन प्रदेश में आने में कम से कम तीन महीने का समय लग जाएगा, क्योंकि आईसीएमआर द्वारा मान्यता प्राप्त वैन आने समय लगेगा.
सुनवाई के दौरान सचिव को ये याद दिलाया गया कि आपदा प्रबंधन एक्ट इस समय प्रदेश में लागू है और ऐसे में इस तरह के कामों के लिए किसी टेंडर की जरुरत नहीं है.
20 मई को सचिव स्वास्थ अमित नेगी ने जवाब देते हुए बताया कि उन्होने कई लैब्स से संपर्क किया लेकिन कहीं से भी कोई जवाब अभी तक नहीं आया है.
इसके साथ ही उन्होंने बताया कि 14 मई को केंद्र सरकार के विज्ञान और तकनीकी सचिव के एक पत्र से बताया गया कि विशाखापट्टनम की एक कंपनी से मोबाईल लैब अधारित वैन की सुविधा त्वरित जांच के लिए ली जा सकती है.
सचिव ने बाताया कि इस पर विचार चल रहा है. और ये विचार आज की तारीख तक चल ही रहा है.
इन तारीखों में कोर्ट ने केंद्र सरकार को बहुत बार लताड़ा.
कोर्ट ने केंद्र सरकार को कहा कि राज्य की बुरे वक्तत में मदद करना मोदी सरकार की सैंवेधानिक जिम्मेदारी है. कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार इतना तो कर ही सकती है.
ऐसा नहीं कि राज्य सरकार का इंजन इस समय सरपट दौड़ रहा था. राज्य सरकार के कई झूठ इस दौरान बेनकाब हुए लेकिन डबल इंजन की इन दोनों सरकारों, खास तौर पर केंद्र सरकार का इंजन शोर तो मचाता रहा लेकिन उत्तराखंड के काम नहीं आ सका.
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