पहाड़ों से बेहद प्रेम करने वाले, प्रसिद्ध रूसी कवि ओर लेखक रसूल हमजातोव को याद करते हुए इस लेख की शुरुआत कर रहा हूं.
उन्होंने लिखा था, ‘पहाड़ी व्यक्ति दो चीजों की बड़ी हिफाजत करता है, एक अपनी टोपी की और दूसरा अपने स्वाभिमान की. टोपी बचाए रखने के लिए उसके नीचे ‘सिर’ होना जरूरी है और स्वाभिमान बचाए रखने के लिए दिल में आग का. अगर टोपी के नीचे सिर और दिल में आग न हो तो टोपी और स्वाभिमान दोनों खतरे में आ जाते हैं.’
उत्तराखंड के मौजूदा हालातों के आलोक में इन पंक्तियों को देखें, तो कहना गलत नहीं होगा कि इस पहाड़ी राज्य के लोगों की टोपी और स्वाभिमान दोनों खतरे में हैं.
उत्तराखंड की अस्मिता पर गहरी चोट करने वाले विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन को सालभर बाद ससम्मान पार्टी में वापस शामिल कर भारतीय जनता पार्टी ने इस खतरे के संकेत ही नहीं दिए हैं, बल्कि इसकी खुले आम ‘मुनादी’ कर दी है.
चाल, चरित्र और चेहरे की बात करने वाली भाजपा ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उसके लिए न तो चाल और न ही चरित्र मायने रखता है. मायने रखता है तो बस चेहरा, जो उसके लिए सियासी तौर पर लाभ पहुंचाने वाला साबित हो.
भाजपा ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि जिस उत्तराखंड की जनता का सच्चा हितैषी होने का पार्टी दम भरती है, न तो उसके हित से ही उसे कोई मतलब है और न ही उसके स्वाभिमान की कद्र.
कुंवर प्रणव सिंह की वापसी की यह घटना दरअसल भाजपा के चारित्रिक भंडाफोड़ से कहीं ज्यादा, उत्तराखंड के आत्मसम्मान का चीरहरण है.
याद कीजिए सालभर पहले 10 जुलाई की वह तारीख, जब खानपुर से भाजपा के टिकट पर विधायक चुने गए पूर्व कांग्रेसी कुंवर प्रणव सिंह का वह शर्मनाक वीडियो सामने आया था.
तमंचा लहराते हुए, फूहड़ता के हर पैमाने को पार करते हए जिस बेशर्मी और दुत्कार के साथ कुंवर प्रणव सिंह उत्तराखंड के बारे में अपमानजनक बातें कह रहे थे, उसे देख सुन कर हर उस व्यक्ति का खून खौल गया था, जिसे यहां की माटी से प्रेम है.
उस वीडियो के सामने आने के बाद सोशल मीडिया समेत तमाम मंचों पर प्रदेश के लोगों ने प्रणव सिंह की भर्त्सना की, जिसके बाद बैकफुट पर आई भाजपा ने उन्हें पहले नोटिस जारी किया और फिर पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया था.
तब प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट और भाजपा के अन्य प्रमुख नेताओं ने प्रणव सिंह के आचरण को बर्दाश्त की सीमा से बाहर बताते हुए क्या-क्या कहा था, वह सब रिकार्ड में दर्ज है.
उत्तराखंड के तमाम मुद्दों को लेकर लगातार मीडिया की सुर्खियों में बने रहने वाले राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ने तब बेहद कड़े अंदाज में प्रणव सिंह के आचरण की न केवल निंदा की थी बल्कि उनके निष्कासन की घोषणा इस कदर चेतावनी भरे अंदाज में की थी, मानो भविष्य में उत्तराखंड राज्य के बारे में कुछ भी बुरा कहना तो छोड़िए, सोचने वाले को भी माफ नहीं किया जाएगा.
मगर इस घटना के तेरह महीने बाद ही भाजपा ने एक बार फिर प्रणव सिंह को गले लगा कर साबित कर दिया कि, साल भर पहले किया गया उनका निष्कासन महज ढोंग था, जनता की आंखों में धूल झोंकना था.
24 अगस्त को, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत ने जिस तरह माला पहना कर प्रणव सिंह का स्वागत किया और उनके दृदय परिवर्तन की स्लाघा की, वह अपने आप में बताने के लिए पर्याप्त है कि उत्तराखंड के लिए अपमानजनक बातें कहने वाले प्रणव सिंह भाजपा के लिए कितने दुलारे हैं.
पार्टी में वापसी के बाद प्रणव सिंह चैंपियन ने अपने आचरण के लिए माफी मांगी और भविष्य में अनुशासन के दायरे में रहने की बात कही. प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत ने भी उनकी तारीफ में कहा कि, तेरह महीने के दौरान कठोर अनुशासन में रहे प्रणव सिंह अब पूरी तरह बदल चुके हैं.
मगर इसके 24 घंटे के भीतर ही कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन ने अपनी चिर-परिचित ‘आचरण की सभ्यता’ का प्रदर्शन कर इन दावों की हवा निकाल दी. भारी लाव-लश्कर के साथ वे देहरादून से इस अंदाज में अपने विधानसभा क्षेत्र पहुंचे मानो पूरे प्रदेश पर ‘फतह’ हासिल कर आए हों.एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि प्रणव सिंह की वापसी से ठीक एक दिन पहले 23 अगस्त को देहरादून में प्रदेश भाजपा कोर कमेटी की बैठक हुई थी.
इस बैठक में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक, प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत, प्रदेश प्रभारी श्याम जाजू , प्रदेश सह संगठन मंत्री शिव प्रकाश, नैनीताल सांसद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट, कैबिनेट मंत्री मदन कौशिक तथा राज्य मंत्री धन सिंह रावत मौजूद थे.
इस बैठक से पहले ही कुंवर प्रणव सिंह चौंपियन की भाजपा में वापसी को लेकर मीडिया में खबरें आनी शुरू हो गई थी. जाहिर सी बात है कि बैठक के दौरान भी उनकी वापसी को लेकर चर्चा हुई होगी.सवाल यह है कि बात-बात पर उत्तराखंड के स्वाभिमान का नारा लगाने वाले, उत्तराखंड को देवभूमि बताने वाले, भारत का भाल बताने वाले इन नेताओं ने आखिर उन कुंवर प्रणव सिंह की वापसी का विरोध क्यों नहीं किया जिन्होंने उत्तराखंड के लिए इतनी अपमानजनक बातें कही?
जिन राजनेताओं का जिक्र ऊपर है, वे सभी अपने भाषणों में कहते हैं कि उत्तराखंड राज्य दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की देन है.
यदि ये नेता इस राज्य को अटल बिहारी वाजपेयी की देन मानते हैं तो सवाल यह है कि क्या वाजपेयी जी ने उत्तराखंड राज्य इस लिए बनाया ताकि कुंवर प्रणव सिंह जैसे बेशर्म नेता इस राज्य को अपने अंग विशेष पर रख सकें ?
ये वो सवाल हैं जिनका जवाब उत्तराखंड के हितैषी होने का दम भरने वाले ‘झंडाबरदारों. को देना चाहिए.
कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन का यह अमर्यादित आचरण कोई पहली बार नहीं है. इससे पहले भी वे कई बार साबित कर चुके हैं कि अपने उपनाम के अनुरूप इस प्रदेश में अभद्र आचरण करने वालों नेताओं के बीच वे ही ‘चैंपियन’ हैं.
इसके बावजूद भाजपा द्वारा उन्हें गले लगाना इस प्रदेश की आवाम का मजाक बनाना है. साथ ही उन चालीस से अधिक शहादतों का अपमान भी है जिन्होंने राज्य आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति दी.
उत्तराखंड राज्य बनने के दो वर्ष बाद सन 2002 में पहले विधानसभा चुनाव हुए तब कुंवर प्रणव सिंह निर्दलीय विधायक चुन कर विधानसभा में पहुंचे थे। तब से अब तक 18 वर्षों के राजनीतिक सफर में वे बेशर्मी और फूहड़ता के कई सोपान रच चुके हैं. मगर हर बार उनकी लगाम कसने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित किया गया.
वर्ष 2003 में उन पर लक्सर में मगरमच्छ का शिकार करने का आरोप लगा जिसके चलते वे पहली बार विवादों में आए. तब उनके खिलाफ मामला भी दर्ज हुआ, मगर कुछ समय बाद उन्हें क्लीन चिट दे दी गई.
इस मामले के सामने आने के बाद कहां तो राजनीतिक दलों को उनसे परहेज करना चाहिए था, मगर हुआ इसके ठीक उलट. तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी ने कुंवर प्रणव सिंह चौंपियन को अपना लिया और वे कांग्रेसी हो गए.
इसके बाद उनके अभद्र आचरण के तमाम मामले सामान्य घटनाओं की तरह देखे, सुने जाने लगे. वर्ष 2009 में चैंपियन हवाई फायरिंग के चलते फिर से विवादों में आए मगर तब भी उनकी उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया गया.
उक्त घटना के दो साल बाद 2011 में तत्कालीन विधायक प्रेमचंद अग्रवाल (वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष) के समर्थकों के साथ मारपीट को लेकर भी चैंपियन विवादों में आए, तब भी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. उसी साल रुड़की में एक होटल मालिक पर फायर करने का आरोप भी उन पर लगा जिसके बाद भी उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया गया.
राजनीतिक आकाओं से मिले इस संरक्षण का चरम वर्ष 2013 में देखने को मिला जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मंत्री डाक्टर हरक सिंह रावत (अब भाजपा सरकार में मंत्री) के सरकारी आवास में आयोजित एक समारोह में चैंपियन ने खुले आम गोली चला दी जिसमें उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी और कांग्रेस नेता विवेकानंद खंडूरी घायल हो गए.
इतनी गंभीर घटना के बाद भी चैंपियन के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया गया. इसके बाद चैंपियन वर्ष 2016 तक कांग्रेस के दुलारे बने रहे.
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जब वे बगावत कर भाजपा में शामिल हुए तब कांग्रेस को ‘ज्ञान’ प्राप्त हुआ और उनके आचरण को लेकर पार्टी हो हल्ला मचाने लगी. इसके बाद से वे भाजपा के दुलारे बने हुए हैं.
दरअसल आज उत्तराखंड एक नहीं बल्कि ऐसे कई ‘चैंपियनों’ का दंश झेलने को मजबूर है जो इस राज्य की अस्मिता के साथ खेल रहे हैं.
जब तक प्रदेश की जनता इन तथाकथित चैंपियनों और इन्हें पालने-पोसने वाले राजनीतिक दलों को सबक नहीं सिखाएगी, ये इसी तरह राज्य के स्वाभिमान का चीरहरण करते रहेंगे.
उत्तराखंड की जनता को तय करना होगा कि वह इसी तरह लज्जित होने के लिए अभिशप्त रहना चाहती है या अपनी टोपी और स्वाभिमान बचाने की लड़ाई लड़ना चाहती है.
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