मैं तब बहुत छोटा था. नौंवी कक्षा में पढ़ता था. यह 1979 की बात है. बाबू (पिताजी) ने बताया कि दुनिया के एक बहुत बड़े वैज्ञानिक आज बग्वालीपोखर में आ रहे हैं.
बग्वालीपोखर में उन दिनों सड़क तो नहीं थी हां बिजली के पोल गढ़ गये थे, या कहीं लग रहे थे. हमारे लिये वैसे भी अपने क्षेत्र के बाहर के आदमी को देखना ही कौतूहलपूर्ण था.
वैज्ञानिकों और उनकी खोजों के बारे में किताबों में ही पढ़ते थे. हमें लगता था कि वैज्ञानिक आम आदमी से कुछ अलग होते होंगे. प्रतिभा और विद्वता में तो होते ही हैं, लेकिन हमें लगता था कि देखने में भी अलग होते होंगे.
प्रोफेसर डीडी पंत जी को पहली बार दूर से देखने का सुख मात्र एक वैज्ञानिक को देखने की बालसुलभ जिज्ञासा थी. उस समय पृथक उत्तराखंड राज्य के लिये उन्होंने एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल ‘उत्तराखंड क्रान्ति दल’ का गठन किया था.
उसी सिलसिले में वे जनजागरण में निकले थे. उनके साथ प्रखर समाजवादी नेता जसवंत सिंह बिष्ट और विपिन त्रिपाठी थे. वे जो बोले वो तो उस उम्र में ज्यादा समझ में आने वाला भी नहीं था.
इतना जरूर समझ में आ रहा था वे जो कह रहे हैं ठीक है. हमारे भविष्य को बनाने वाली बातें हैं. हां, बाबू ने उनके बारे में कुछ जानकारियां दी थी जो मुझे आज भी याद हैं.
एक तो यह बताया था कि जब बाबू 1958 में डीएसबी काॅलेज नैनीताल में पढ़ने गये तो उस समय प्रो.डीडी पंत यहां भौतिक विज्ञान के प्रमुख थे.
दूसरा उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के कबाड़ को इकट्ठा कर डीएसबी परिसर में एक संपन्न भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला (फोटो फिजिक्स) बनाई जो एशिया की सबसे अच्छी प्रयोगशाला मानी जाती थी. तीसरा उन्होंने नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रो. सीबी रमन के साथ शोध किया.
एक और जानकारी वे देते थे कि उन्होंने भौतिक विज्ञान में एक महत्वपूर्ण खोज की जिसे ‘पंत रे’ के नाम से जाना जाता है. ये सारी जानकारियां उस समय तो बहुत स्पष्ट नहीं थी, लेकिन बाद में प्रो. डीडी पंत को जानने-समझने के साथ इन जानकारियों का मतलब समझ में आया.
हालांकि विज्ञान मेरा विषय नहीं है, लेकिन प्रो. डीडी पंत को हम एक वैज्ञानिक के आलोक में एक योग्य शिक्षक, प्रशासक, शिक्षाविद, चिंतक, अध्येता, समाजशास्त्री, संवेदनाओं से भरे बेहतर समाज का सपना देखने वाले मनीषी के रूप में जानते हैं. सबसे बड़ी बात यह थी कि वे हमारी दो-तीन पीढ़ियों के प्रेरणा पुरुष रहे. हमारे चेतनापुंज रहे.
प्रो. डीडी पंत जी को यहां से जो जानने-समझने का सिलसिला जारी हुआ वह बाद में उनके सान्निध्य मिलने की सुखद अनुभूति के साथ एक युग के साथ जीने जैसा था.
हमें उनसे शिक्षा प्राप्त करने या उस तरह से किसी अकादमिक मंच पर जाने का सौभाग्य तो नहीं मिला, लेकिन उनके विराट व्यक्तित्व के वट वृक्ष की छांव के नीचे हमने लगभग डेढ दशक तक सामाजिक सरोकारों की यात्रा का रास्ता बड़ी सजगता के साथ बनाया.
सच के साथ खड़ा होना सीखा. स्वाभिमान के साथ लड़ना सीखा. संवेदनाओं से चीजों को जानना आया.
वे जब उत्तराखंड क्रान्ति दल के संरक्षक थे तो 1988 में उनसे पहली बार आमने-सामने मुलाकात हुई. उन दिनों उत्तराखंड क्रान्ति दल अपने पूरे उभार पर था. तमाम युवा और छात्र इससे जुड़ रहे थे.
30 अगस्त, 1988 को गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर श्रीनगर में ‘उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन’ की स्थापना हुई. डाॅ. नारायण सिंह जंतवाल संयोजक और प्रकाश पांडे अध्यक्ष चुने गये. इस आयोजन का उद्घाटन प्रो. डीडी पंत जी को ही करना था.
वे नैनीताल से द्वाराहाट आये. विपिन दा (विपिन त्रिपाठी) ने हमसे कहा था कि हम द्वाराहाट में सबको इकट्ठा करें. गाड़ियों में बैठायें. हम दो बसों में श्रीनगर जा रहे थे. सारे लड़के रमेश दा की दुकान पर इकट्ठा थे. वहीं बाहर लगी बैंच पर एक व्यक्ति बैठे थे.
हम सब लड़के श्रीनगर जाने की उत्साह में थे. हमें पता ही नहीं था कि बैंच पर कौन बैठे हैं. हम लोग अपनी तरह से हंसी-ठिठौली कर रहे थे. हास-परिहास में विपिन दा के आने के बाद होने वाले ‘हमले’ की नकल भी कर रहे थे.
उन दिनों फोन तो थे नहीं, विपिन दा को भी अपने गांव से द्वाराहाट तक दो किलोमीटर पैदल आना होता था. कंधे में झोला लटकाये विपिन दा जब दुकान में आये तो उन्होंने पंतजी से चरणस्पर्श किया. विपिन दा ने बताया कि आप प्रोफेसर डीडी पंत हैं.
हम सब लोग खिसिया गये. लेकिन पंतजी ने जिस जिस सहजता से हम सबको स्नेह दिया हमें लगा ही नहीं कि उनसे पहली बार मिल रहे हैं. यह भी आभास नहीं हुआ कि हम कितने विशाल व्यक्तित्व से मिल रहे हैं.
हम उनके साथ श्रीनगर गये. उसके बाद लंबे समय तक उत्तराखंड क्रान्ति दल के कार्यक्रमों और कई समारोहों में मिलते रहे. मैं विपिन दा के साथ उनसे बहुत बाद तक मिलता रहा. वर्ष 2008 में उनका निधन हुआ. हमने ‘क्रियेटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़’ की ओर से 2009 में उनका पोस्टर प्रकाशित किया.
प्रो. डीडी पंत उन तमाम लोगों के लिये भी प्रेरणा स्त्रोत हैं जो विषम परिस्थितियों में भी अपने लिये रास्ता निकाल लेते हैं.
एक सूक्ति है- ‘नहरें बनाने वाले यह भूल जाते हैं कि नदियां अपना रास्ता खुद तलाश कर लेती हैं.’ सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के देवराड़ी गांव में पंतजी का जन्म 14 अगस्त, 1919 में हुआ था. उनके पिता का नाम अंबादत्त था. वे वैद्यकी का काम करते थे.
घर की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. किसी तरह से व्यवस्था कर उन्होंने पंतजी को पढ़ाई के लिये कांडा भेज दिया. यहीं से जूनियर हाईस्कूल से इंटरमीडिएट तक की शिक्षा प्राप्त की. उनके साथ आगे की शिक्षा का संकट था.
उसी समय नेपाल के बैतड़ी जिले (नेपाल) के संपन्न परिवार की लड़की से उनकी शादी की बात चली. आगे पढ़ाई की आस में वे इंटरमीडिएट का परीक्षाफल आने से पहले दाम्पत्य जीवन में बंध गये. इंटर करने के बाद वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय चले गये. वहां से उन्होंने भौतिक शास्त्र में एमएससी किया.
वहां उस समय सुप्रसिद्ध भौतिकशास्त्री प्रोफेसर आसुंदी विभागाध्यक्ष थे. पंतजी उन्हीं के निर्देशन में पीएचडी करना चाहते थे. उस समय विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅक्टर राधाकृष्णन थे. उन्होंने डीडी पंत जी को स्काॅरशिप देने से मना कर दिया. यहीं से उनके जीवन में नया मोड़ आया.
प्रोफेसर आसुंदी ने उन्हें बेंगलौर में महान वैज्ञानिक प्रोफेसर सीवी रमन के पास जाकर शोध करने को कहा. इस प्रकार वे सर सीवी रमन के शिष्य बन गये.
इसके बाद भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में उनकी सैकड़ों उपलब्धियां रही हैं. जीवनपर्यन्त वे शोध कार्य में लगे रहे और देश के लिये कई वैज्ञानिकों को तैयार किया.
महान शिक्षाविद् प्रोफेसर डीडी पंत नाम, सम्मान व पद प्रतिष्ठा की दौड़ से हमेशा दूर रहे. उन्होंने शिक्षा के प्रति जीवन को समर्पित कर दिया. वे सबसे पहले आगरा विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में नियुक्त हुये. इसके बाद आरवीएस काॅलेज आगरा में प्रोफेसर रहे.
वर्ष 1952-62 तक वे डीएसबी कालेज में प्राफेसर रहे और 1962 से 1971 तक प्राचार्य. वर्ष1971-72 में उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग के निदेशक रहे. 1972-73 में गोविन्दबल्लभ कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय पंतनगर में विज्ञान संकाय के डीन रहे.
जब 1973 में कुमांऊ विश्वविद्यालय स्थापित हुआ तो वे यहां के पहले कुलपति बने. इसमें वे 1973-77 तक कुलपति रहे. कतिपय काराणों से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था. फिर वापस 1978 तक कुलपति रहे. कुमाऊं विश्वविद्यालय का नाम राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय जगत में रोशन किया.
शिक्षा जगत में उनका अभूतपूर्व योगदान अविस्मरणीय रहेगा. उन्होंने कुमाऊं विश्वविद्यालय के निर्माण को अपना भरपूर योगदान दिया. शिक्षा जगत में अभूतपूर्व योगदान देते हुये 20 पीएचडी दी और 150 शोध पत्र प्रस्तुत किये.
वे जीवन पर्यन्त देश की प्रतिष्ठित अनुसंधान संस्थानों एवं कई परियोजनाओं से जुड़े रहे. उन्हें प्रतिष्ठित शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से भी नवाजा गया.
इसके अलावा प्रोफेसर पंत रमन सेन्टेनरी स्वर्ण पदक, फैलो ऑफ इंडियन एकेडमी ऑफ साईस, फुल ब्राइट स्कॉलर समेत कई पुस्कार व सम्मान से नवाजे गये थे. अमेरिका की सिग्मा साई सोसाइटी का सदस्य होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त था.
प्रोफेसर पंत को हम एक कुशल प्रशासक के रूप में भी जानते हैं. जब वे डीएसबी काॅलेज में भौतिक विज्ञान के विभागाध्यक्ष थे तो उन्होंने यहां फोटोफिजिक्स लैब की स्थापना की.
द्वितीय विश्व युद्ध के टूटे-फूटे उपकरणों के टुकड़े कबाड़ी के यहां से लाकर उन्होंने एक संपन्न लैब स्थापित की. दुर्भाग्य से बाद में इस लैब भवन में आग लग गई थी.
उनके कुलपति काल में कुलाधिपति और तत्कालीन राज्यपाल एम. चैन्ना रेड्डी के साथ उनकी भिडंत उनके स्वाभिमान और विश्वविद्यालय के प्रति समर्पण को बताती है.
कुलाधिपति चाहते थे कि उनके खासमखास एक ज्योतिष को विश्वविद्यालय की मानद उपाधि दी जाये. प्रो. डीडी पंत के रहते यह संभव नहीं था.
जब यह विवाद बहुत बढ़ गया तो पंत जी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया. उनके इस्तीफे के विरोध में लोग सड़कों पर आ गये. सरकार को झुकना पड़ा और वे पुनः विश्वविद्यालय के कुलपति बने.
प्रोफेसर डीडी पंत एक वैज्ञानिक होने के अलावा संवेदनशील समाजशास्त्री और हिमालयी पारिस्थितिकी के अध्येता थे. उन्होंने प्रकृति को हमेशा सहेजकर रखने की वकालत की.
उनका मानना था कि प्रकृति किसी को मुफ्त में कुछ नहीं देती। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। इसलिये वे प्रकृति के अवैज्ञानिक दोहन के खिलाफ थे. वे गांधी की विचारधारा से प्रभावित थे इसलिये उनके दर्शन में गांव और आम आदमी प्रमुख थे. विकास को भी इसी दृष्टि से देखते थे.
उन्होंने सत्तर के दशक मे एक बात कही- ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी उसके काम नहीं आती.’ यह आज भले ही देश के प्रधानमंत्री के भाषणों को प्रभावी बनाने का काम आता हो, लेकिन इसके पीछे हिमालय के गांवों की चिंता थी. गांव के बसने और उनके बचे रहने का दर्शन भी था.
उन्होंने पृथक उत्तराखंड राज्य की स्थापना के लिये 24-25 जुलाई, 1979 में मसूरी में ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ की स्थापना की. इसके पीछे भी उनकी व्यापक दृष्टि थी.
वे सीमान्त हिमालयी क्षेत्रों के विकास को दोहन नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तरीके से यहां की जरूरतों के मुताबिक नीति बनाने की वकालत करते थे.
ऐसे समय में जब उत्तराखंड में जल, जंगल और जमीनों का अपने हितों के लिये बेहताशा दोहन हो रहा है, लगातार जनता के खिलाफ नीतियां बन रही हैं, सरकारी स्कूल, तकनीकी संस्थान बंद किये जा रहे हैं, अस्पतालों को पीपीपी मोड पर दिया जा रहा हो, जमीनों के बेचने के कानून पास किये जा रहे हों, पंचेश्वर जैसे विनाशकारी बांध बनाने की योजना हो, ऑल वेदर रोड के नाम पर पहाड़ों को छीला जा रहा हो, घर-घर शराब पहुंचाने का काम व्यवस्था कर रही हो, एनआईटी जैसे संस्थानों के प्रति बेरुखी हो, गांव-गांव तक अपराध पहुंच रहा हो, नौजवान बेरोजगार हो रहे हों, गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग को नकारा जा रहा हो, ऐसे समय में प्रोफेसर डीडी पंत के विचार और और उनकी परिकल्पनाओं के हिमालय को बचाना समय की जरूरत है.
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