आजादी से लगभग ढाई दशक पहले सन 1919 की बात है. अल्मोड़ा जिले के सालम क्षेत्र का एक 26 साल का युवक इलाहाबाद से बीए पास करके वापस अपने गांव लौटा.
युवक के गांव लौटने पर ग्रामीणों ने उसका ढोल नगाड़ों और फूल मालाओं से जोरदार स्वागत किया. स्वागत की वजह ये थी कि उस गांव में ग्रेजुएट डिग्री हासिल करने वाला वह पहला युवक था.
जैसे ही यह खबर तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर पी बिंढम तक पहुंची, उन्होंने युवक को बुलावा भेजा और नायब तहसीलदार की नौकरी का प्रस्ताव दिया.
बेहद गरीब पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले उस युवक के लिए नायब तहसीलदार जैसी रसूख वाली नौकरी का अवसर मिलना किसी सपने के सच होने जैसा था. मगर उस युवक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया.
इसकी वजह यह थी कि युवक के मन में ब्रिटिश हुकूमत की चाकरी करने के बजाय उसे उखाड़ फैंकने का सपना पल रहा था. ब्रिटिश सरकार की नौकरी ठुकराने के बाद वह युवक पूरी सक्रियता के साथ आजादी के आंदोलन में कूद पड़ा और इतिहास में अमर हो गया.
‘जय हिंद’ का जो नारा आज हमारे देश की पहचान है. जिस नारे को हम गर्व से साथ लगाते हैं, उस ‘जय हिंद’ का पहली बार उद्घोष इसी युवक ने किया था.
उस युवक का नाम है, राम सिंह धौनी. आइए, अपना पूरा जीवन देश सेवा को समर्पित करने वाले उन्हीं रामसिंह धौनी की जीवन यात्रा से रूबरू होते हैं.
रामसिंह धौनी का जन्म 24 फरवरी 1893 को अल्मोड़ा जिले की सालम पट्टी के तल्ला बिनौला गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम हिम्मत सिंह धौनी और मां का नाम कुन्ती देवी था. राम सिंह धौनी बचपन से ही प्रतिभाशाली थे.
गांव के स्कूल से चौथी कक्षा पास करने के बाद उन्होंने पांचवी कक्षा की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा के टाउन स्कूल में दाखिला लिया और दसवीं तक वहीं पढाई की.
दसवीं की परीक्षा में उन्होंने पूरे प्रदेश में टॉप किया जिसके चलते उन्हें छात्रवृत्ति के रूप में प्रतिमाह पांच रुपये मिलने लगे. पढ़ाई लिखाई में अच्छा होने के चलते राम सिंह धौनी, आजादी के लिए संघर्ष करने वाले स्वाधीनता सेनानियों के बारे में समझने लगे थे.
उस दौर में अल्मोड़ा आने वाले तमाम महापुरुषों का सानिध्य पाने के बाद राम सिंह धौनी की समझ और पुख्ता हुई और उनके मन में देशप्रेम और ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ बगावत की भावना बलवती होने लगी.
अल्मोड़ा में जिन महापुरुषों को देखने और सुनने का अवसर राम सिंह धौनी को मिला, उनमें स्वामी सत्यदेव, पंडित मदननोहन मालवीय और काका कालेलकर जैसी हस्तियां शामिल थीं.
सन 1912 में स्वामी सत्यदेव अल्मोड़ा की यात्रा पर आए. उनकी अल्मोड़ा यात्रा ने 19 वर्ष के तरुण राम सिंह धौनी के जीवन की दिशा बदल दी. स्वामी सत्यदेव ने अल्मोड़ा प्रवास के दौरान ‘शुद्ध साहित्य समिति’ की स्थापना की और राम सिंह धौनी इसके के स्थाई सदस्य बन गए.
यहां से राम सिंह धौनी के जीवन में देश दुनिया के तमाम अच्छे ग्रंथों, पत्र-पत्रिकाओं और अन्य साहित्य के पहुंचने की शुरुआत हुई और वे स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ देश-दुनिया के घटनाक्रमों से रूबरू होने लगे.
अल्मोड़ा से हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद राम सिंह धौनी आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चले गए. सन 1919 में उन्होंने वहां के इविन क्रिश्चियन कालेज से बीए की परीक्षा पास की.
बीए पास करने के बाद वे अपने गांव वापस लौटे जिसके बाद का घटनाक्रम, इस रिपोर्ट के शुरुआत में बताया जा चुका है. अब उससे आगे की कहानी जानते हैं.
कुछ समय गांव में बिताने के बाद राम सिंह धौनी अगले साल सन 1920 में राजस्थान चले गए और बीकानेर के राजा के सूरतगढ़ स्थित स्कूल में पढ़ाने लगे. कुछ समय बाद वे फतेहपुर के रामचन्द्र नेवटिया हाईस्कूल चले गए.
कुछ समय तक सहायक अध्यपक रहने के बाद उन्हें स्कूल का प्रधानाचार्य बना दिया गया. इसी दौरान सन 1921 में देशभर में कांग्रेस पार्टी की कमेटियां बनाए जाने की शुरुआत हुई. रामसिंह धौनी ने फतेहपुर में मोर्चा संभाला और कांग्रेस कमेटी की स्थापना की.
इसी दौरान उन्होंने ‘युवक सभा’ और ‘साहित्य समिति’ की स्थापना की जिनका उद्देश्य लोगों को शिक्षा, सफाई तथा नशाबंदी को लेकर जागरूक करना था. उसी दौर में उन्होंने ‘बंधु’ नाम का पाक्षिक समाचार पत्र निकाला, जिसमें देश भक्ति एवं ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ लेख प्रकाशित होने लगे.
इससे बौखलाई ब्रिटिश सरकार ने ‘बंधु’ की सभी प्रतियां जब्त करवा दी और उसके प्रकाशन पर रोक लगा दी. इसके बाद राम सिंह धौनी कुछ समय के लिए नेपाल चले गए जहां उन्होंने बजांग रियासत के राजकुमारों को पढ़ाने का काम किया. इसके बाद वे वापस अल्मोड़ा लौट आए.
अल्मोड़ा में तब बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत, विक्टर मोहन जोशी और मोहन सिंह मेहता जैसे ऊर्जावान युवा कांग्रेस को मजबूत बनाने में जुटे हुए थे. रामसिंह धौनी इन युवाओं के साथ जुड़ गए और कांग्रेस को मजबूत करने में लग गए.
उन्हें जिला कांग्रेस कमेटी का मंत्री बनाया गया. इस पद पर रहते हुए उन्होंने गांव-गांव जाकर लोगों को पार्टी से जोड़ा तथा आजादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया. वे सन 1923 से 1927 तक अल्मोड़ा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्य भी रहे.
कांग्रेस संगठन को मजबूती देने के साथ ही वे तमाम सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहे. उन्होंने गांवों की समृद्धि के लिए स्थानीय कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने पर जोर दिया. अपने गांव में उन्होंने ग्राम सुधार मंडल की स्थापना की जिसके जरिए शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया.
उन्होंने अपनी माता की पुण्य स्मृति में सालम में कुन्तीदेवी पुस्तकालय की स्थापना की. राम सिंह धौनी सन 1925 में कुंमाऊं के प्रतिष्ठित अखबार ‘शक्ति’ के संपादक रहे. करीब एक साल तक उन्होंने यद जिम्मेदारी संभाली.
कुछ समय बाद वे बम्बई (मुंबई) चले गए जहां उन्होंने पहाड़ी मूल के लोगों को एकजुट कर ‘हिमालय पर्वतीय संघ’ की स्थापना की. सन 1930 में बम्बई में चेचक की महामारी फैली. महामारी के दौरान वे बीमार लोगों की सेवा में जुट गए.
इसी दौरान वे खुद भी संक्रमण की चपेट में आ गए. 12 नवम्बर 1930 मात्र 37 वर्ष की अल्पायु में उनका निधन हो गया. सन 1935 में उनकी याद में सालम में रामसिंह धौनी आश्रम की स्थापना की गई.
राम सिंह धौनी को ‘जय हिंद’ के एतिहासिक नारे का जनक भी कहा जाता है. बताते हैं कि सन 1920-21 में उन्होंने सबसे पहले जय हिंद संबोधन की शुरुआत की थी.
वे तब लोगों से सामान्य मुलाकात के दौरान, भाषण देते वक्त और पत्र व्यवहार की शुरुआत ‘जय हिंद’ के साथ करते थे. बाद में नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंह बोस की स्थापना के बाद इस नारे को अपना उद्घोष बनाया.
कुछ लोगों के मुताबिक सुभाष चंद्र बोस को यह नारा चेम्बाक रमण पिल्लई ने सुझाया था. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी की नौ-सेना में अफसर रहे, भारतीय मूल के चेम्बाक रमण पिल्लई और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पहलरी मुलाकात की सन 1933 में आस्ट्रिया की राजधानी वियना में हुई थी. बताते हैं कि पहली मुलाकात में पिल्लई ने ‘जय हिंद’ कह कर नेता जी का अभिवादन किया था.
वहीं कुछ लोगों के मुताबिक नेता जी को जय हिंद का नारा जर्मनी में रह रहे एक भारतीय विद्यार्थी आबिद हुसैन ने सुझाया था जो सन 1941 में पढ़ाई छोड़ कर उनके सचिव बन गए थे.
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