उत्तराखंड में 60 प्रतिशत से ज्यादा भू-भाग वनों से आच्छादित है. यहां 6 नेशनल पार्क हैं. वनों के संरक्षण अधिनियम के कानूनों का कड़ाई से पालन भी किया जाता है. लेकिन इन कानूनों की आड़ में वन विभाग की मनमानी की खबरें भी आम हैं.
पीढ़ियों से जगलों में निवास करते आ रहे अलग-अलग समुदाय के लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2016 में ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2006’ पारित किया था, जो वन अधिकार कानून के नाम से प्रचलित है.
ऐसे लोग जिनका जीवन पीढ़ियों से वनों पर आधारित है, यह कानून उन्हें कई विशेष अधिकार देता है, जिससे वो बिना किसी कानूनी जंजाल मे फंसे अपनी रोजी रोटी चला सकें.
यह कानून कहता है कि इन लोगों को जंगलों और वन्य जीवों के संरक्षण के नाम पर अनावश्यक प्रताड़ित ना किया जाए और उनके अधिकार जंगलों पर बने रहें. मगर प्रदेश में वन अधिकार कानून लागू तो किया गया लेकिन आधा अधूरा.
नैनीताल जिले के रामनगर में मालधन चौड़ से सटे कोर्बेट नेशनल पार्क के तौमड़िया खत्ते के जंगल में रहने वाले शफी अपनी आप बीती बताते हैं, ‘हम पीढ़ियों से इन जंगलों में रह रहे हैं. वन कानून लागू होने के बाद आज भी वन विभाग हमें परेशान करता है. कई दफा हमारे डेरों को उजाड़ दिया जाता है. महिलाओं के साथ वन विभाग वाले मार पीट करते हैं.’
ऐसा ही कुछ देहरादून में राजाजी नेशनल पार्क के रामगढ रेंज की आशारोड़ी बीट के जंगल में रहने वाले मस्तू चोपड़ा भी बताते हैं. मस्तू चोपड़ा हाल ही में जमानत पर छूट कर लौटे हैं.
उनका कहना है कि बीती 17 जून को वन विभाग की टीम ने अतिक्रमण हटाने के नाम पर उनसे मार पीट की. मस्तू का आरोप है कि कुल 7 लोगों के साथ पुलिस कस्टडी में मार पीट की गई जिनमें दो महिलाएं भी शामिल थीं.
इस घटना के सामने आने के बाद उत्तराखंड के वन मंत्री डाक्टर हरक सिंह रावत ने इस पूरे मामले की जांच के आदेश दिए हैं.
ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि प्रदेश मे वन अधिकार कानून लागू तो किया गया लेकिन इसका पालन खुद वन विभाग के कारिंदे ही नहीं कर रहे हैं.
वन कानून के मुताबिक जो लोग 3 पीढियों से जंगलों में रह रहे हैं या फिर किसी भी तरह जंगलों पर निर्भर हैं वे लोग जंगलों में रह सकते हैं और खेती कर सकते हैं. खेती से हुए उत्पादन का व्यापार भी वे लोग कर सकते हैं. इसके लिए उन्हे दावा पेश करना होता है.
इसके लिए वन गूजरों को ब्लाक स्तर की समीति मे दावा पेश करना होता है. ब्लाक स्तर की समिति से दावा पास होने पर यह जिला स्तर की कमेटी में जाता है. जिलाधिकारी की अगुवाई वाली इस कमेटी को इस एक्ट में सबसे ज्यादा अधिकार दिए गए हैं.
जिलाधिकारी इसमें निर्णय लेने के लिए पूरी तरह से अधिकृत होते हैं. जंगल पर आश्रित लोगों को अपनी तीन पीढ़ियों के प्रमाण इस समिति के सामने प्रस्तुत करने होते हैं.
जैसे चराई के लिए परमिट, एक बुजुर्ग की गवाही, ऐतिहासिक दस्तावेजों में जिक्र, वन विभाग द्वारा किए चालान की रसीद आदि.
दावे मुख्यत: दो तरह के होते हैं. पहला व्यक्तिगत दावा, जिसमें व्यक्ति विशेष को जंगल में रहने और खेती करने जैसे अधिकार मिलते हैं. दूसरा दावा है सामुदायिक, जिसमें जंगलों पर निर्भर समुदाय को जंगलों से चारा लाने, रेशे जैसे उत्पाद बनाने और बेचने तक के अधिकार मिलते हैं.
खास बात ये है कि उत्तराखंड में सिर्फ एक सामुदायिक दावे को ही अभी तक स्वीकृति मिली है. जनजाति निदेशालय के अपर निदेशक योगेंद्र रावत बताते है कि जून 2020 तक प्रदेश में कोई भी दावा लंबित नहीं है.
निदेशालय के आंकड़े बताते हैं कि कुल 6665 दावे प्राप्त हुए जिनमें से महज 157 दावों को ही स्वीकृति दी गई और 6508 दावों को निरस्त कर दिया गया. अपर निदेशक योगेंद्र रावत कहते हैं कि उन्होंने 7554 राजस्व ग्रामों में समीतियां बना दी हैं.
निदेशालय के दावों से इतर वन पंचायत संघर्ष समिति से जुड़े सामाजिक कार्यकरता तरुण जोशी बताते हैं कि उनकी समिति के द्वारा 10 हजार व्यक्तिगत दावे और लगभग 500 सामुदायिक दावे भरे गए हैं, जो आज तक ब्लाक स्तरीय कमेटी में लंबित हैं.
वे कहते हैं कि जनजाति निदेशालय ने राजस्व ग्रामों में समितियां तो बना दी हैं, लेकिन अभी तक वन गूजरों के डेरों के लिए कोई समिति बनाई नहीं गई है.
सामुदायिक दावों पर जनजाति निदेशलय का कहना है कि वन विभाग ने पहले से ही गांव के लोगों को चारा लाने इत्यादि के अधिकार दिए हुए हैं. लेकिन धरातल पर हकीकत इससे इतर है.
उनके दावों की पोल खोलते हैं, उत्तरकाशी जिले के मौरी ब्लाक के जखोल गांव के लोग. जखोल गांव गोविंद पशु विहार नेशनल पार्क के अंर्तगत आता है, लेकिन यहां रह रहे ग्रामीणों को पीढ़ियों से चले आ रहे हक-हकूकों से वंचित किया जा रहा है.
गांव के स्थानीय युवा भगवान सिंह रावत बताते हैं कि हमारे पुरखों ने इन जंगलों को बचाया. लेकिन आज जब हम अपनी जरुरत का सामान जैसे चारा,सूखी लकड़ी इत्यादी जंगल से लाते हैं तो विभाग हमें चोर कहता है.
यमुना घाटी के इस सुंदर ईलाके में अधिकतर घर लकड़ी के बनते हैं, मगर अब लोगों को वह लकड़ी भी नहीं मिल पा रही है.
भगवान सिंह बताते हैं कि इस इलाके में भेड़ पालन प्रमुख व्यवसाय है और भेड़ों के चराने के लिए वो जंगलों में जाते हैं तो अपने साथ भेड़ों की सुरक्षा के लिए कुत्तों को ले जाते हैं.
लेकिन वन विभाग उस पर भी प्रतिबंध लगा रहा है. विभाग का कहना है कि कुत्तों के भौंकने से ध्वनि प्रदूषण होता है.
इसी गांव के बुजुर्ग बिजेंदर लाल बताते हैं कि जब टिहरी राजशाही थी और टिहरी और उत्तरकाशी एक ही जिला हुआ करता था, तब से उन्हें लकड़ी के लिए रवन्ना मिलता था लेकिन आज सूखी लकड़ी भी उन्हे नसीब नहीं है.
वन अधिकार कानून की सबसे ज्यादा जरुरत उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्यों में है. एक बड़ी आबादी इस कानून से प्रभावित होती है. लेकिन प्रदेश में इस कानून को सच्चे अर्थों में धरातल पर उतारने की गति बहुत धीमी है.
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