इस धरती पर मनुष्य के सबसे खूंखार, सबसे ताकतवर शत्रु साबित हो रहे कोरोना ने विश्व मानव सुंदरलाल बहुगुणा को भी छीन लिया. वह कोरोना संक्रमण के बाद कुछ दिनों से ऋषिकेश स्थित एम्स शाखा में भर्ती थे.
मैंने आज सुबह ही उनके ज्येष्ठ पुत्र और अपने मित्र राजीव नयन की फेसबुक पोस्ट पर बहुगुणा जी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना की थी और जैसे ही राजीव को फोन करने वाला था कि तब तक बहुगुणा जी के निधन का बहुत ही दुखद समाचार आ गया.
पद्म विभूषण सुंदरलाल बहुगुणा के निधन से दुनियाभर में पर्यावरण की अलख जगा कर इस धरती पर प्रकृति की हर एक मुर्त, अमूर्त, मूक और वाचाल रचना की आवाज, तो छिन ही गई, लेकिन इसके साथ ही इतिहास का एक चैप्टर भी क्लोज हो गया.
कोरोना ने एक जीते जागते इतिहास का पन्ना ही पलट दिया.
विश्व विख्यात पर्यावरणविद होने के साथ ही बहुगुणा एक स्वाधीनता सेनानी, एक सर्वोदयी, एक पत्रकार और महान समाजिक क्रांतिकारी थे.
विश्व को दिया पर्यावरण का नया दर्शन
स्वर्गीय बहुगुणा को सामान्यतः दुनियाभर में वनों और खास कर पर्यावरण के प्रति चेतना जागाने वाली महान हस्ती माना जाता है.
शुरू में उन्होंने वन श्रमिकों के पक्ष में गैरगढ़ वन क्षेत्र में शस्त्र पूजा भी की, लेकिन बाद में उनको वृक्षों के प्रति इतना मोह जागा कि वह वृक्ष मानव ही बन गए.
यद्यपि चिपको आंदोलन का श्रीगणेश जिला चमोली के सीमान्त क्षेत्र रेणी में चंडी प्रसाद भट्ट, कॉमरेड गोविन्द सिंह रावत एवं आलम सिंह बिष्ट आदि की प्रेरणा से गौरा देवी और उनकी ग्रामीण सहेलियों ने 24 मार्च 1974 में कर दिया था.
लेकिन प्राण वायु देने वाले वृक्षों को बचाने वाले रेणी गांव के उस संदेश को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने में सुंदरलाल बहुगुणा ने जो भूमिका अदा की वह असाधारण थी.
उन्होंने पेड़ों के लिए ही नहीं, बल्कि इस धरती पर प्रकृति की हर एक कृति की आवाज बन कर उन्हें मनुष्य की हवस से बचाने का प्रयास किया.
लेकिन वह बहुगुणा के जीवन का एक पक्ष था, जबकि उनकी भूमिका समाज के लिए बहुपक्षीय थी.
राजशाही के खिलाफ भी लड़ते रहे
देश जब अग्रेजों की गुलामी से छटपटा रहा था, तब सुंदरलाल कम उम्र में ही आजादी के आंदोलन में कूद पड़े.
टिहरी रियासत में बरा-बेगार जैसी कुरीतियों और प्रजा की आवाज का दमन करने के कारण राजशाही के खिलाफ भड़के जन विद्रोह में उन्होंने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया.
बहुगुणा टिहरी की राजशाही के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने वाले टिहरी प्रजामण्डल के सचिव भी रहे.
प्रजामण्डल के आंदोलन के दौरान उन्हें सात महीनों तक टिहरी जेल की उसी कोठरी में रखा गया, जिसमें अमर शहीद श्रीदेव सुमन ने 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद प्राणोत्सर्ग किया था.
सत्ता के बजाय संघर्ष चुना बहुगुणा ने, हार गए थे टिहरी राज्य विधान परिषद का चुनाव
एक अगस्त 1949 को टिहरी राज्य के आजाद भारत के संयुक्त प्रांत में विलय के बाद सुंदरलाल बहुगुणा ने सक्रिय राजनीति से जुड़ कर सत्ता का सुख भोगने के बजाय बिनोवा भावे के सर्वोदय आंदोलन में जुड़ कर समाज की बुराइयों के खिलाफ लड़ने और समाज को नई दिशा देने का बीड़ा उठाया.
वह सन् 1952 तक कांग्रेस से जुड़े रहे. चूंकि टिहरी की आजादी के बाद संपूर्ण टिहरी प्रजामण्डल भी कांग्रेस की टिहरी जिला इंकाई बन गया था, इसलिए बहुगुणा का कांग्रेसी होना स्वाभाविक ही था.
सुंदरलाल बहुगुणा को राजनीति से विरक्ति तब से शुरू हो गई थी, जबकि वह टिहरी राज्य की विधान परिषद के चुनाव हार गए थे.
टिहरी की राजशाही के साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में सुंदरलाल बहुगुणा की अहम भूमिका की जानकारी मुझे तब मिली, जब कि मैं अपनी पुस्तक ‘टिहरी राज्य के ऐतिहासिक जन विद्रोह’ के लिए शोध कर रहा था.
भारत सरकार के देशी राज्य विभाग के सचिव वीपी मेनन की मध्यस्थता में टिहरी नरेश और प्रजामंडल के बीच हुए समझौते के तहत 21 अगस्त 1948 को 30 सदस्यीय टिहरी राज्य विधान परिषद के चुनाव हुए थे, जिसमें प्रजामण्डल के अध्यक्ष परिपूर्णानन्द पैन्यूली, सचिव सुंदरलाल बहुगुणा और प्रमुख नेता आनन्द शरण रतूड़ी जैसे दिग्गज चुनाव हार गए थे.
जबकि प्रजामंडल को 30 में 24 सीट मिलने पर उसकी चार सदस्यीय अंतरिम सरकार बन गई थी.
परिपूर्णानन्द पैन्यूली टिहरी सीट से राजशाही समर्थक खेमराज बहुगुणा से और नरेन्द्रनगर सीट पर सुंदरलाल बहुगुणा राजा की फौज के कमांडर रहे कर्नल नत्थू सिंह सजवाण से चुनाव हार गए थे.
टिहरी की आजादी के समय रियासत के भविष्य को लेकर प्रजामंडल में दो धाराएं मुखर हो गईं थी.
उनमें एक धारा टिहरी की भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थिति के अनुरूप हिमाचल प्रदेश में मिलने की पक्षधर थी, तो दूसरी धारा सुंयक्त प्रांत के मुख्यमंत्री पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त से प्रभावित होने के कारण ब्रिटिश गढ़वाल समेत शेष उत्तराखंड के साथ ही संयुक्त प्रांत में मिलने की पक्षधर थी.
सुंदरलाल बहुगुणा भी टिहरी को संयुक्त प्रांत में मिलाने के पक्षधर थे और अन्ततः हुआ भी वही.
दलितों के मसीहा भी थे बहुगुणा
सारे देश की ही तरह उत्तराखंड में भी छुआ-छूत की बीमारी सदियों से चली आ रही थी. बहुगुणा का जन्म एक उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार में होने के बावजूद उन्होंने छुआछूत के खिलाफ बिगुल बजाया और हरिजनोत्थान के लिए ब्राह्मणवादी समाज की कुरीतियों का मुकाबला किया.
उन्होने घनश्याम सैलानी आदि के साथ बूढाकेदार में हरिजनों का मंदिर प्रवेश कराया.
वरिष्ठ आइएएस रहे अनुसूचित जाति के एक अधिकारी चन्द्र सिंह आज भी अपनी तरक्की के लिए सारा श्रेय बहुगुणा जी को देते हैं और कहते हैं कि उन्होंने उनकी पढ़ाई के लिए ना केवल हौसलाफजाई की अपितु आर्थिक मदद भी दी और पढ़ने का इंतजाम भी कराया.
बहुगुणा ने सन् 60 के दशक में शराबखोरी के खिलाफ भी आंदोलन छेड़ा. उस दौरान वह 3 बार जेल गए. इस अभियान में उनकी पत्नी विमला बहुगुणा सहित महिलाओं की भागीदारी प्रमुख रही.
बिनोवा के भूदान आंदोलन की सफलता के बाद बहुगुणा ने पहाड़ की महिलाओं को उनके कष्टों से मुक्त कराने के लिए भी आंदोलन चलाया. यद्यपि शुरू में वह टिहरी बांध के समर्थक रहे लेकिन बाद में वह खिलाफ हो गए.
उन्होंने बांध के खिलाफ तीन बार भूख हड़ताल की. भविष्य में बांध के खतरों से उत्तराखंडवासियों को जागरूक करने एवं सरकार को सद्बुद्धि दिलाने के लिए सन 1995 में उन्होंने 74 दिन तक उपवास भी किया.
उन्हें कई बार पुलिस पकड़ कर जेल में भी डालती रही मगर वह अपने उद्देश्य से टस से मस नहीं हुए.
ऋषिगंगा की बाढ़ और बहुगुणा की चेतावनियां
हाल ही में चिपको की जन्मस्थली रेणी गांव में ऋषिगंगा और धौली गंगा में बिजली प्रोजेक्टों से आई भयंकर बाढ़ ने सुंदरलाल बहुगुणा और चण्डी प्रसाद भट्ट की बिजली प्रोजेक्टों के प्रति आशंका सही साबित हुई है.
उत्तराखंड आंदोलन को उनका खुला समर्थन रहा. बहुगुणा उन लोगों में से नहीं थे, जो कि धारा के साथ बह कर ख्याति अर्जित करते हैं.
उनमें शुरू से ही धारा के विपरीत चलने का माद्दा रहा. इसीलिए कई बार उन्हें जनाक्रोश का सामना भी करना पड़ा.
टिहरी बांध के मामले में भी उन्हें कई बार बांध समर्थकों, ठेकेदार और संस्कृति के उपासकों का विरोध झेलना पड़ा.
सुंदरलाल बहुगुणा का निधन वास्तव में एक युग का अंत है. यह एक जीवित इतिहास के रूप में भारत ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए एक प्रेरणा पुंज थे.
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