कल्पना कीजिए, आज से पौने दो सौ साल पहले 1840 का वह दौर, जब देश गुलामी की जंजीरों से जकड़ा था, जब वर्ण व्यवस्था इस कदर हावी थी कि दलितों के लिए पढ़ना-लिखना तो छोड़िए, इस बारे में सोचना भी अपराध माना जाता था, जब स्त्रियों का जीवन संसार, घर की देहरी तक ही सीमित था, तब एक दलित किशोरी ने किस तरह एक आम लड़की से देश की पहली महिला अध्यापिका बनने का मुकाम हासिल किया होगा !
वह दलित किशोरी न केवल देश की पहली महिला शिक्षिका बनीं बल्कि उन्होंने पूरी स्त्री जाति वे लिए स्कूल के दरवाजे खोलकर दासता से मुक्ति और आजादी का रास्ता तैयार किया.
उस किशोरी को आज पूरी दुनिया सावित्री बाई फुले के नाम से जानती है. आज आपको सावित्री बाई फुले की उस महायात्रा से रूबरू कराते हैं.
सावित्रीबाई का जन्म पुणे के निकट नाईगांव में 3 जनवरी, 1831 को एक दलित परिवार में हुआ था. वे अपने पिता खांडोजी नेवशे पाटिल की सबसे बड़ी संतान थीं.
उस दौर में लड़कियों को शिक्षित कराना तो दूर इस बारे में सोचना भी कल्पना से परे था. लड़कियों को छोटी उम्र में ही घर का कामकाज सिखाने पर जोर रहता था, जिसके बाद उनकी शादी कर ससुराल भेज दिया जाता था. सावित्रीबाई भी इसका अपवाद नहीं थीं. उन्होंने भी बचपन में ही घर के कामकाज निपटाने में परिवार का हाथ बंटाना शुरू कर दिया था. मात्र 9 वर्ष की आयु में सावित्री बाई का विवाह पुणे के एक 13 वर्षीय किशोर ज्योतिराव फुले से कर दिया गया.
ज्योतिराव फुले का परिवार पारंपरिक रूप से खेती, बागवानी और बुनकर का काम करता था. उनके समुदाय में भी शिक्षा प्राप्त करने पर बहुत जोर नहीं रहता था, लेकिन ज्योतिराव स्कूली शिक्षा हासिल कर चुके थे. 13 वर्ष की बेहद कच्ची उम्र में ही उन्हें शिक्षा की महत्ता समझ आ गई थी और इसी का परिणाम रहा कि उन्होंने अपनी पत्नी को भी तालीम देने का निश्चय कर लिया.
घर पर जब भी वक्त मिलता, ज्योतिराव सावित्री बाई और अपनी रिश्तेदार महिला सगुणा बाई, जिनका जिक्र इस रिपोर्ट के शुरु में किया गया है, को पढ़ाने का काम करते. दोनों महिलाएं मन लगा कर पढ़तीं. सावित्री बाई की लगन और ज्योतिराव की मेहनत धीरे-धीरे रंग लाने लगी. अपने पति से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद, सावित्रीबाई ने अहमदनगर में औपचारिक शिक्षा हासिल की जिसके बाद पुणे से शिक्षक प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र हासिल किया.
बाम्बे गार्जियन के 22 नवंबर, 1851 के अंक में छपी एक खबर के अनुसार शुरुआती शिक्षा ग्रहण करने के बाद सावित्रीबाई की आगे की पढ़ाई की जिम्मेदारी उनके पति जोतिराव फुले के मित्रों सखाराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर (जोशी) ने ली थी.
खेत के आंगन से शुरू हुआ शिक्षित होने का यह सफर एक शिक्षक बनने की अर्हता हासिल करने तक जिस तरह पहुंचा, उसकी कल्पना करने से ही सावित्रीबाई के प्रति अपार सम्मान बढ़ जाता है.
शिक्षिका बनने की अर्हता हासिल करने के साथ ही सावित्रीबाई ने एक महिला के लिए घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर सार्वजनिक जीवन में सक्रियता की ऐतिहासिक शुरुआत कर दी थी.
इस शुरुआत को 1 जनवरी 1848 को बहुत बड़ी उड़ान मिली, जब उनके पति ज्योतिराव फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला. यहां लड़कियों को पढ़ाने की जिम्मेदारी मिलते ही सावित्रीबाई फुले देश की पहली हमिला शिक्षिका बन गईं. उनका साथ देने का जिम्मा सगुनाबाई और एक मुस्लिम महिला फातिमा शेख ने उठाया. फातिमा शेख, ज्योतिराव फुले के एक दोस्त उस्मान शेख की बेटी थीं.
यह वाकया देश की आजादी से पूरी एक सदी पहले का है. आजादी से 100 साल पहले एक दलित दंपति ने किस तरह लड़कियों के लिए शिक्षा के महत्व को न केवल समझा बल्कि इसके लिए स्कूल खोल कर रास्ता भी तैयार किया, यह अपने आप में बेहद प्रेरणादायी है.
इस यात्रा में ज्योतिराव फुले और सावित्री बाई फुले को उच्च और संपन्न वर्ग का जो विरोध झेलना पड़ा, उसका जिक्र किए बिना यह कथा अधूरी है.
उस दौर में जब केवल ऊंची जाति के बच्चों को ही शिक्षित होने का अधिकार था, तब हाशिए पर धकेल दिए गए समाज के बच्चों और खासकर लड़कियों को शिक्षित करने की गुस्ताखी करने वाले इस दंपत्ति को समाज का तकतवर तबका आखिर कैसे बर्दाश्त कर पाता ?
फुले दंपत्ति की इस पहल को कुलीन वर्ग के लोगों ने अपने खिलाफ सीधी चुनौती के तौर पर लिया और उन्हें सबक सिखाने की ठान ली.
स्कूल खोले जाने के बाद फुले दंपत्ति का विरोध शुरू होने लगा. उन्हें सामाजिक ताने देने से लेकर बुरी -बुरी गालियां दी जाती, लेकिन दोनों ने अपने इरादे डिगने नहीं दिए. फुले दंपति के मजबूत इरादों से बौखलाए उच्च जाति के लोगों ने ज्योति राव फुले के पिता से दोनों की शिकायत की और उन्हें फरमान सुनाया कि वे अपने बेटे और बहू की इस जुर्रत को बंद करवाएं. लोगों के बढ़ते दबाव को देखते हुए ज्योति राव फुले के पिता ने उन्हें स्कूल बंद करने का फरमान सुना दिया, लेकिन ज्योतिराव ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. इसके बाद उनके पिता ने शर्त रखी कि वे या तो स्कूल चलाना बंद कर दें वरना घर छोड़ कर चले जाएं. अपने मजबूत इरादे पर कायम स्वाभिमानी ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा की मशाल जालाए रखने के पवित्र उद्देश्य के लिए खुशी-खुशी दूसरा विकल्प चुन लिया, यानी घर छोड़ कर आ गए. तब उस्मान शेख नाम के एक दोस्त नें फुले दंपत्ति को अपने घर पर रख कर उनकी मदद की.
उच्चवर्ग को लोगों द्वारा ज्योतिराव फुले के पिता को धमकाने वाली तरकीब भी असफल हो चुकी थी. लेकिन वे अब भी फुले दंपति की इस मुहिम को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे, लिहाजा उन्होंने पहले से ज्यादा आक्रामक तरीके से विरोध करना शुरू कर दिया.
जब सावित्रीबाई फुले अपने घर से स्कूल के लिए निकलतीं तो रास्ते में ऊंची जाति के लोग उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां देते, उन पर गोबर और कीचड़ फेंकते. कुछ दिन बाद सावित्री बाई इस विरोध की आदी हो गईं. वे स्कूल जाते समय अपने पास एक और साड़ी रखती थीं. स्कूल पहुंचने के बाद वे गोबर और कीचड़ से सनी साड़ी उतार कर साफ सुथरी साड़ी पहन लेतीं थीं और लड़कियों को पढ़ाने में जुट जातीं. वापसी में फिर से वही गंदी साड़ी पहन लेतीं. इस तरह सावित्री बाई ने जिस जीवटता के साथ उच्चजाति के विरोध का जवाब दिया, वह आज इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो चुका है.
ज्योतिराव फुले और सावित्री बाई जानते थे कि स्त्रियों के साथ ही दलितों और वंचितों की मानसिक गुलामी तोड़ने के लिए उनका शिक्षित होना भी जरूरी है. इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 15 मई 1848 को पुणे की एक दलित बस्ती में भी स्कूल खोला.
इसके बाद एक एक करके फुले दंपति ने केवल 4 साल के भीतर ही 15 मार्च 1852 तक पुणे और उसके आस पास के इलाकों में कुल 18 स्कूल खोले, जहां सभी विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी. संसाधनों की लगातार कमी के बावजूद शिक्षा के प्रति फुले दंपति का समर्पण बढ़ता ही रहा.
फुले दम्पत्ति द्वारा चलाए जाने वाले स्कूलों में विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में गणित, व्याकरण, भूगोल, नक्शों की जानकारी, मराठा इतिहास, नीतिबोध और बालबोध जैसी पुस्तकें शामिल थीं. तत्काली ब्रिटिश अधिकारियों ने भी इस पाठ्यक्रम की सराहना की थी. उस दौर में पुणे विश्वविद्यालय के मेजर कैन्डी ने अपने एक वृतांत में लिखा कि इन स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों विशेषकर लड़कियों की लगन और कुशाग्र बुद्धि देखकर उन्हें बहुत संतोष हुआ. कैंडी ने लिखा कि इन स्कूलों में शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा है. शिक्षा के क्षेत्र में सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले के इस महान योगदान के लिए सन 1892 में तत्कालीन राज्य शिक्षा विभाग द्वारा दोनों को सम्मानित किया गया.
फुले दंपति ने शिक्षा के क्षेत्र में मशाल तो जताई ही साथ ही उन्होंने उस वक्त मौजूद तमाम सामाजिक बुराइयों के खिलाफ भी आवाज उठाई. सन 1892 में उन्होंने महिला सेवा मंडल के रूप में पुणे की विधवा स्त्रियों के कल्याण के लिए देश का पहला महिला संगठन बनाया. इस संगठन के माध्यम से वे गरीब, दलित और विधवा स्त्रियों से चर्चा करतीं, उनकी समस्याएं सुनतीं और समाधान के उपाय भी सुझाती. उन्होंने सामाजिक रूप से उपेक्षित और बहिष्कृत महिलाओं की अर्थिक उन्नति के लिए कई काम किए.
उन्होंने महिलाओं को जागरूक करने के लिए कई धार्मिक मान्यताओं को तोड़ा और स्त्रियों को बुनियादी अधिकारों के प्रति जागरूक किया. 28 जनवरी 1853 को फुले दंपति ने पुणे में आंदोलन के दौर के एक साथी उस्मान शेख के घर में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की. इसकी स्थापना के पीछे उद्देश्य था गर्भवती विधवा महिलाओं को आत्महत्या से बचाना.
दरअसल उस दौर में गरीब परिवार की बेटियों की शादी बहुत कम उम्र में, उम्रदराज लोगों से कर दी जाती थीं. ऐसे में पति के निधन के बाद उन्हें बाल विधवा के तौर पर बेहद दुखदायी जीवन जीना पड़ता था. गर्भवती विधवाओं का जीवन तो इतना ज्यादा कष्टाकारी होता कि वे आत्महत्या करने को मजबूर हो जाती थीं. ऐसी महिलाओं और उनके गर्भस्थ शिशुओं का जीवन बचाने के लिए बनाए गए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की पूरी जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले ने अपने कंधों पर ली. उस गृह में बेसहारा गर्भवती विधवा महिलाओं की देखभाल की जाती और उनका सुरक्षित प्रसव कराया जाता. उस वक्त यह कितनी बड़ी समस्था थी, इसका आंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस बाल हत्या प्रतिबंधक गृह में 4 साल के भीतर 100 से अधिक विधवा स्त्रियों ने बच्चों को जन्म दिया. इन्हीं बाल विधवाओं में से एक के नवजात शिशु को सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने गोद लिया, जिसका नाम यशवंत रखा.
बड़ा होकर यशवंत ने डॉक्टर बन कर अपने माता पिता की विरासत को आगे बढ़ाया.
वर्ष 1874 में जोतिबा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जिसका मकसद था – वैकल्पिक सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को साकार करना. इस नए समाज में दलितों और स्त्रियों के साथ ही समानता और परिवर्तन के पैरोकार लोग शामिल हुए. 1890 में पति ज्योतिराव फुले के निधन के बाद सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज की बागडोर संभाली और 4 वर्षों कर इसका कुशलता पूर्वक संचालन किया. पति ज्योतिराव फुले का निधन होने के बाद सावित्रीबाई ने तमाम वर्जनाओं को तोड़ते हुए खुद उनका अंतिम संस्कार किया. पुरुष वर्चस्व वाले समाज में उनका यह कदम स्त्री अस्मिता को मजबूत करने कि दिशा में एक और मील का पत्थर था.
सावित्री बाई ने एक लेखिका के रूप में अपना योगदान दिया. उन्होंने कविताओं और लेखों के माध्यम से उस समय की बुराइयों के खिलाफ लोगों को जागरुक किया.
वर्ष 1896 में महाराष्ट्र में भयंकर सूखा पड़ा, उस वक्त सावित्रिबाई फुले ने सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर लोगों की खूब मदद की. इसके सालभर बाद वर्ष 1897 में पुणे शहर में प्लेग की महामारी फैल गयी. तब सावित्रीबाई फुले ने अपने ड़क्टर बेटे यशवंत के साथ बीमार लोगों की दिन रात सेवा की. इस दौरान वे खुद भी प्लेग के संग्रमण में आ गई. 10 मार्च 1897 को 66 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस संसार से विदा ली और अमर हो गईं.
आजादी से 100 साल पहले जब गुलामी की जंजीरों में जकड़े देश का न कोई विधान था, न संविधान, तब अपने पति के साथ मिल कर सावित्रीबाई फुले ने पितृसत्ता और स्त्री विरोधी मान्यताओं को ध्वस्त कर स्त्री मुक्ति का जो इतिहास लिखा उसके दिए मानव जाति हमेशा उनकी अहसानमंद रहेगी. महिलाओं की आजादी का रास्ता तैयार करने वाली महान शिक्षिका सावित्रीबाई फुले को सलाम.
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