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शमशेर सिंह बिष्ट : जन सरोकारों की बुलंद आवाज

चारू तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार

ukgazetteer by ukgazetteer
September 22, 2020
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शमशेर सिंह बिष्ट : जन सरोकारों की बुलंद आवाज
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आज हमारे अग्रज, प्रेरणास्रोत, राजनीतिक-सामाजिक जीवन में मार्गदर्शक रहे डॉक्टर शमशेर बिष्ट जी की दूसरी बरसी (22 सितंबर) है. हम सब उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. उनका भावपूर्ण स्मरण करते हुये उनके निधन के समय लिखा लेख

सुबह के छह बजे. अचानक हेम (हेम पंत रुद्रपुर) का फोन आया. इतनी सुबह तो कभी हेम ने फोन नहीं किया. आशंका और डर से फोन उठाया. वही हुआ जिसे हम लोग सुनना नहीं चाहते. इस बात पर विश्वास भी नहीं करना चाहते.

मान भी नहीं सकते कि हेम जो कह रहें हैं वह सच है. लेकिन यह सच था हमारे अग्रज, हमारे प्रेरणापुंज, सरल-सहज, विराट व्यक्तिव, जीवनभर आंदोलनों की अगुआई करने वाले डॉक्टर शमशेर सिंह बिष्ट नहीं रहे.

हम निःशब्द हैं. लाचार. अवाक. अब कुछ नहीं कर सकते. एक युग हमारे सामने से चला गया. एक पूरा कांलखंड जिसमें हम सामाजिक सरोकारों का प्रतिबिंब देख सकते हैं. संघर्षों की एक परंपरा देख सकते हैं. विचार के प्रवाह की एक मजबूत धारा को समझ सकते हैं.

हमारी पूरी पीढ़ी मानती है कि डॉक्टर शमशेर सिंह बिष्ट सत्तर के दशक में युवा चेतना के ध्वजवाहक थे. जीवन के अंतिम समय तक मूल्यों के साथ खड़े रहकर सामाजिक चिंतन से लेकर सड़क तक उन्होंने जिस तरह एक समाज बनाया वह हमारे लिये हमेशा प्रेरणा देने वाला था.

 

हम सब लोग बिष्ट जी के जाने से निराश हैं. वे ऐसे दौर में हमें छोड़कर गये हैं, जब लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने के लिये उनके धीर-गंभीर व्यक्तित्व से हम सब लोग रास्ता पाते.

पिछले दिनों जब अल्मोड़ा में उनके निवास में हम सब लोग उनसे मिलने गये तो देश और पहाड़ के सवालों पर उनकी चिंता और बदलाव के लिये कुछ करने की जो उत्कंठा थी उससे लग रहा था वे अभी हमें और हमारा मार्गदर्शन करेंगे. लंबे समय से वे बीमार थे. दिल्ली के एम्स में उनका इलाज चल रहा था.

शमशेर बिष्ट जी से कब परिचय हुआ याद ही नहीं है. उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि लगता था हम उन्हें वर्षो से जानते हैं. जब हम लोगों ने सामाजिक जीवन में प्रवेश किया तो उन दिनों शमशेर सिंह बिष्ट जी अगुआई में पहाड़ के सवालों पर युवा मुखर थे.

मैं उनसे पहली बार 1984 में ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन में मिला. मिला क्या एक बड़ी जमात थी युवाओं की. ये युवा टकरा रहे थे माफिया राजनीति के खिलाफ. शराब की संस्कृति के खिलाफ. लीसा-लकड़ी के रास्ते जो राजनीति पनप रही थी उसके खिलाफ एक बड़ा अभियान था.

मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर विश्वविद्यालय में प्रवेश की तैयारी कर रहा था. इस युवा उभार ने मुझे प्रभावित किया. हम लोग भी इनके साथ इस आंदोलन में लग गये.

‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन मेरे क्षेत्र गगास घाटी में सबसे प्रभावी तरीके से चला इसलिये मुझे शमशेर सिंह जी को बहुत नजदीक से देखने, सुनने और जानने का मौका मिला.

उन दिनों इन युवाओं को देखना-सुनना हमारे लिये किसी कौतुहल से कम नहीं था. हम लोग ग्रामीण क्षेत्र के रहने वाले थे. हमें लगता था कि ये लड़के इतनी जानकारी कहां से जुटाते हैं. एक से एक प्रखर वक्ता. लड़ने की जिजीविषा से परिपूर्ण. तब पता चला कि शमशेर कौन हैं.

सत्तर के दशक में जब पूरे देश में बदलाव की छटपटाहट शुरू हो रही थी तो पहाड़ में भी युवा चेतना करवट ले रही थी. इंदिरा गांधी का राजनीतिक प्रभाव अपनी तरह की राजनीति का रास्ता तैयार कर रहा था. एक तरह से राजनीतिक अपसंस्कृति समाज को घेर रही थी.

गुजरात से लेकर बिहार तक छात्र-नौजवाज बेचैन था. पहाड़ में वन आंदोलन, कुमाऊं-गढ़वाल विश्वविद्यालय के निर्माण के आंदोलन शुरू होने लगे थे. ऐसे समय में शमशेर सिंह बिष्ट ने छात्र-युवाओं की अगुआई की.

तब अल्मोड़ा महाविद्यालय आगरा विश्वविद्यालय से संबद्ध था. 1972 में वे छात्र संघ के अध्यक्ष रहे. शमशेर सिंह बिष्ट जी अगुआई में विश्वविद्यालय आंदोलन चला. अल्मोड़ा जेल का घेराव हुआ. पिथौरागढ में गोली चली. दो लोग शहीद हुये.

1973 मे कुमाऊं विश्वविद्यालय की स्थापना भी हो गई. वे विश्वविद्यालय की स्थापना के स्तंभ थे. उनके समय में छात्रों ने जिस तरह से सामाजिक सवालों को उठाया वह हमारी युवा चेतना के आधार रहे हैं.

इसी दौर में जब पूरे पहाड़ के जंगलों को बड़े ईजारेदारों को सौंपा जा रहा था तो युवाओं ने इसके खिलाफ हुंकार भरी. बिष्ट जी वन आदोलन की अगुवाई में रहे. पूरे एक दशक तक जंगलों की लूट के खिलाफ आंदोलन में जी-जान से लगे रहे.

आपातकाल के खिलाफ भी उनके स्वर मुखर रहे. नैनीताल में वनों की नीलामी के लिये इकट्ठा हुये प्रशासन के खिलाफ जब नैनीताल क्लब आग के हवाले हुआ तो सारे छात्रों के साथ शमशेर बिष्ट डठे रहे.

तस्वीर साभार : काफल ट्री वेबसाइट

आपातकाल के समय पहाड़ के युवाओं ने ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ के नाम से संगठन बनाया. इस संगठन ने गांव-गांव जाकर राजनीतिक चेतना का काम भी किया.

सन 1974 में ही असकोट-आराकोट यात्रा की शुरुआत कर इन युवाओं ने अपनी वैचारिकता परिचय भी दिया. 1978 में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की स्थापना हुई. बिष्ट जी इसके संस्थापकों में थे. संघर्ष वाहिनी दो-तीन दशक तक पूरे पहाड़ के आंदोलनों और चेतना का नेतृत्व करती रही.

वाहिनी ने अपना अखबार ‘जंगल के दावेदार’ निकाला. इस अखबार ने उस समय व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने का काम किया. 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद जिस तरह की राजनीति अपने पैर पसारने लगी उससे पहाड़ भी अछूता नहीं रहा.

इस दौर में 1984 में ताड़ीखेत में ब्रोंच फैक्टरी का आंदोलन चला. इसमें संघर्ष वाहिनी का नेतृत्व शमशेर जी ने किया. इसी वर्ष ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन चला. तराई में जमीनों को लेकर कोटखर्रा, पंतनगर, महातोष मोड़ कांड से लेकर जितने भी छोटे-बड़े आंदोलन चले शमशेर जी उनकी अगुआई में रहे.

संघर्ष वाहिनी की अगुआई में भ्रष्टाचार के प्रतीक कनकटे बैल, हिमालयन कार रैली रोकने, जागेश्वर मंदिर की मूर्तियों की चोरी, जल,जंगल जमीन के जितने भी आंदोलन चले उनमें हर जगह उनकी भूमिका रही.

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही. आखिरी समय तक वे गैरसैंण राजधानी के आंदोलन का मार्गदर्शन करते रहे. देश-दुनिया की कोई भी हलचल ऐसी नहीं थी जिससे डॉक्टर बिष्ट अछूते रहे.

वे देश के हर कोने में जाकर जनता की आवाज को ताकत देते रहे. उनका देश के हर आंदोलन से रिश्ता था. पहाड़ ही नहीं देश के हर हिस्से के आंदोलनकारी शमशेर जी का सम्मान करते थे. एक पत्रकार के रूप में उन्होंने जनता के सवालों को बहुत प्रखरता के साथ रखा.

अभी शमशेर जी पर इतना बहुत संक्षिप्त सा है. अभी मेरी ज्यादा कुछ समझ में भी नहीं आ रहा है कि कहां से शुरू करूं. पूरी श्रंखला बाद में उन पर लिखूंगा.

फिलहाल उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये इतना कहना चाहता हूं कि शमशेर जी का फलक बहुत बड़ा था. वे अल्मोड़ा जनपद के सुदूर चैकोट (स्याल्दे) के तिमली गांव से निकलकर जिस तरह अपना व्यापक आधार बनाते गये वह सब लोगों के लिये प्रेरणाप्रद है.

हमारे लिये तो वे हमेशा पथप्रदर्शक की भूमिका में रहे. आंदोलन के लोग जब भी किसी दुविधा में हों शमशेर जी ही रास्ता सुझाते. सबसे बड़ी बात यह थी कि उनमें कभी किसी प्रकार का काम्पलेक्स हम लोगों ने नहीं देखा.

वे नये लोगों से भी बराबरी में बात करते थे. पिछले दिनों जब अल्मोड़ा में हम लोग उनसे मिले तो लग नहीं रहा था कि वे हमें छोड़कर चले जायेंगे. लेकिन अब हमारे हाथ में कुछ नहीं है.

इतना ही है कि हम आपके तमाम संघर्षो को मंजिल तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे. आपने हमें सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों के साथ खंड़े होने की जो चेतना दी है वह हमेशा हमारा मार्गदर्शन करेगी. अलविदा युग पुरुष !

यह भी पढ़ें :छवाण सिंह नेगी : आजादी के आंदोलन के विस्मृत सेनानी

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