पर्वतीय सरोकारों की बुलंद आवाज, जन संघर्षों के साथी, प्रखर आंदोलनकारी त्रेपन सिंह चौहान का निधन हो गया है. वे पिछले चार वर्षों बेहद घातक बीमारी ‘मोटर न्यूरॉन’ से जूझ रहे थे.
दो वर्ष पहले 25 मार्च, 2018 को चमियाला (टिहरी) में अपने घर पर गिरने से उन्हें पर गंभीर चोट आई थी जिसके बाद उनकी तबियत ज्यादा बिगड़ गई थी. पिछले कई दिनों से उनका देहरादून में इलाज चल रहा था.
त्रेपन सिंह चौहान के निधन पर सामाजिक संगठनों, आंदोलनकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दुख प्रकट किया है.
उत्तराखंड राज्य के तमाम जनांदोलनों में भागीदारी करने वाले त्रेपन सिंह चौहान मात्र 49 वर्ष के थे. उनका जन्म 4 अक्टूबर 1971 को टिहरी गढ़वाल में हुआ था. वर्ष 1995 में देहरादून से एमए करने के बाद उन्होंने सामाजिक सेवा की राह चुनी और जन संघर्षों में कूद पड़े.
अपने गृहक्षेत्र में 18 मार्च, 1996 को ‘चेतना आंदोलन’ की शुरुआत करने के बाद उन्होंने पूरा जीवन सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित कर दिया.
त्रेपन सिंह चौहान ने पहाड़ की महिलाओं के श्रम का सम्मान करने के लिए घसियारी प्रतियोगिता का सफल आयोजन करवाया था. घसियारी प्रतियोगिता की विजेता महिलाओं को चांदी का मुकुट और नकद धनराशि देकर उन्होंने बेहद प्रेराणादयक मिसाल कायम की.
उत्तराखंड राज्य आंदोलन, शराबबंदी आंदोलन, टिहरी बांध से प्रभावित फलेण्डा गांव आंदोलन समेत तमाम जन संघर्षों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही.
एक प्रखर आंदोलनकतारी के साथ ही त्रेपन सिंह चौहान शानदार लेखक भी थे. उत्तराखंड के ज्वलंत मुद्दों पर वे लगातार लेखन करते रहे. उन्होंने सृजन नव युग, यमुना, भाग की फांस, हे ब्वारी जैसे उपन्यास लिखे. अस्पताल में आखिरी बार भर्ती होने से पहले वे अपना नया उपन्यास ‘लालवेद’ पूरा कर रहे थे.
मोटर न्यूरॉन जैसी घाटक बीमारी का जिस जीवटता के साथ उन्होंने मुकाबला किया वह प्रेरमादायक है. साहित्य सृजन के प्रति त्रेपन सिंह चौहान का लगाव इस कदर था कि इतनी गंभीर बीमारी के बाद भी वे लगातार लेखन कार्य कर रहे थे.
बीमारी के चलते जब हाथों ने काम करना बंद किया तो वे बोल कर टाइप करने लगा और जब आवाज ने भी साथ छोड़ दियातो आंखों की पलकों के इशारे से कम्प्यूटर पर टाइपिंग कर रहे थे. त्रेपन सिंह चौहान को भावभीनी श्रद्धांजलि.
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