उत्तराखण्ड में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाओं के बीच मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा तो कर दी, मगर यह घोषणा सचमुच हकीकत में बदलेगी, इसमें संदेह की गुंजाइश है.
अगर सचमुच वहां छह न सही, चार महीने के लिए भी सारी सरकार डेरा डालती है तो यह वास्तव में एक उपलब्धि होगी. लेकिन देहरादून से पूरा शासन तंत्र कुछ समय के लिए उठाकर गैरसैंण ले जाना वर्तमान परिस्थितियों में नामुमकिन ही लग रहा है.
दरअसल, यह इसलिए लगता है कि सरकार ग्रीष्मकालीन राजधानी के नाम पर कुछ दिन के लिए गैरसैंण में केवल विधानसभा सत्र चलाना चाहती है जबकि पहाड़ की जनता पहाड़ से ही प्रदेश का शासन तंत्र चलाने की मांग करती रही है.
अगर हिमाचल प्रदेश के शीतकालीन-सत्र की तरह यहां हफ्तेभर के लिए विधानसभा का ग्रीष्मकालीन सत्र चलाने भर का है तो यह पहाड़ की जनता के साथ धोखा ही होगा.
पहाड़ों में एक कहावत है कि छोटी पूजा के लिए भी पांच बर्तन और बड़ी पूजा के लिए भी पांच ही बर्तनों की जरूरत होती है.
अगर गैरसैंण में सचमुच ग्रीष्मकालीन राजधानी चलाने की सरकार की मंशा है तो उसे ग्रीष्मकाल में गैरसैंण से प्रदेश का शासन विधान चलाने के लिए देहरादून का समूचा सचिवालय फाइलों समेत गैरसैंण ले जाना होगा.
इसलिए ग्रीष्मकालीन राजधानी के लिए गैरसैंण में भी भवन आदि उतने ही बड़े ढांचे की जरूरत होगी जितनी कि देहरादून में उपलब्ध है.
इसमें कम्प्यूटर आपरेटर और समीक्षा अधिकारी से लेकर मुख्यसचिव तक के आलावा आइएएस अफसरों के कार्यालय और आवासीय भवन गैरसैण या भराड़ीसैण में उपलब्ध कराने होंगे.
यही नहीं वहां चपरासी और बाबू से लेकर अधिकांश विभागों के दफ्तर भी बनाने होंगे.
अगर ऐसा नहीं होता है और ग्रीष्मकालीन राजधानी का अभिप्राय केवल विधानसभा के ग्रीष्मकालीन सत्र से है तो यह पहाड़ की जनता के साथ धोखा और प्रदेश के बेहद सीमित संसाधनों का दुरुपयोग होगा.
बहरहाल, फिलहाल तो मुख्यमंत्री के बयानों से यही लगता है कि उन्होंने घोषणा तो जल्दबाजी में कर ली मगर उसे धरातल पर उतारने के लिए विचार-विमर्श भविष्य में होना है.
ब्यरोक्रेसी को पहाड़ चढाने की बात करें तो इस मामले में सरकारों का रिकार्ड बेहद निराशाजनक रहा है।
मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने 29 जून 2019 को गढ़वाल कमिश्नरी के स्वर्णजयन्ती समारोह के अवसर पर कमिश्नरी मुख्यालय पौड़ी में कमिश्नरी स्तर के सभी अधिकारियों की तैनाती सुनिश्चित कर इस ऐतिहासिक नगर का पलायनग्रस्त रुतवा लौटाने का वायदा किया था, लेकिन आज तक कमिश्नर और डीआइजी को कमिश्नरी मुख्यालय पर पहुंचाना तो रहा दूर वहां कोई अदना सा अफसर भी स्थाई रूप से ड्यूटी देने नहीं पहुंचा.
अब सवाल उठ रहा है कि अगर गैरसैण में सचमुच ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाई जाती है तो वहां से ग्रीष्मकाल में सरकारी कामकाज चलाने के लिए समूचा सचिवालय जम्मू-कश्मीर की तरह देहरादून से गैरसैण पहुंचाना होगा ताकि प्रदेश का शासन कुछ महीनों तक देहरादून की जगह वहीं से चल सके और पिथौरागढ़ या जोशीमठ के लोगों का शासन सम्बन्धी काम देहरादून के बजाय भराड़ीसैण में ही हो सके.
अगर ऐसा नहीं होता तो यह इस पहाड़ी राज्य के लोगों के साथ महज एक धोखा ही होगा.
त्रिवेन्द्र सरकार इससे पहले रिस्पना को ऋषिपर्णा बनाने, पहाड़ पर चकबंदी कराने, कोटद्वार से कार्बेट नेशनल पार्क के बीचों बीच रामनगर तक कण्डी मार्ग बनाने, श्रीनगर मेडिकल कालेज को सेना को सौंपने, 100 दिन में लोकायुक्त का गठन करने और सवा लाख करोड़ निवेश के उद्योग लगवाने जैसी कई घोषणाएं कर चुकी है जो कि धरातल पर नहीं उतर सकी.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाओं को दबाने के लिए ही अचानक ग्रीष्मकालीन राजधानी का दांव चला गया. मगर भाजपा के अंदर ऐसे चिन्तकों की कमी नहीं जो कि इस दांव के उल्टे पड़ने की आशंका जता रहे हैं.
उनका मानना है कि अगर भाजपा सरकार शेष दो सालों में वायदा पूरा नहीं कर पाई, जिसकी पूरी संभावना है, तो इससे पार्टी की स्थिति बहुत खराब हो जाएगी.
उप राजधानियों को लेकर यदि ईमानदारी से कहा जाए तो यह धारणा ही अव्यवहारिक है. वर्तमान में पूर्ण राज्यों में महाराष्ट्र में मुम्बई के अलावा नागपुर में भी कुछ समय के लिए विधानसभा चलती है. इसी प्रकार हिमाचल की दूसरी राजधानी धर्मशाला है.
यद्यपि पूर्ण विकसित नागपुर और धर्मशाला की तुलना अविकसित भराड़ीसैण से नहीं की जा सकती. फिर भी इन पूर्ण राज्यों की दूसरी राजधानियां मात्र कहने भर के लिए हैं.
धर्मशाला में भी उत्तराखण्ड की तरह कुछ दिनों के लिए विधानसभा का शीतकालीन सत्र इसलिए चलता है क्योंकि उन दिनों शिमला अक्सर हिमाच्छादित या बहुत ही ठण्डा रहता है.
जहां तक सवाल उप राजधानी नागपुर का है तो वह एक ऐतिहासिक शहर है जो कि भारत का तेरहवां सबसे बड़ा शहर है और वह मध्य प्रान्त तथा बरार की राजधानी रह चुका है.
फिर भी पूरी सुविधाएं होते हुए भी महाराष्ट्र की सत्ता मुम्बई से ही चलती है. इसी तरह केवल बर्फबारी की मजबूरी के चलते जम्मू-कश्मीर में शीतकाल के दौरान पूरा शासन जम्मू से चलता है.
हिमाचल प्रदेश में गत विधानसभा चुनाव (2017) से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने धर्मशाला में सचमुच दूसरी राजधानी स्थापित करने का वायदा किया था मगर वे सत्ता से ही बाहर हो गए.
उत्तराखण्ड की सरकार अगर गैरसैण की तुलना नागपुर, जम्मू और धर्मशाला से कर रही है तो वह बहुत बड़ी गलतफहमी में है या फिर जनमा को गफलत में डाल रही है. गैरसैण में अब तक जितना निर्माण हुआ है उसी पर एनजीटी को ऐतराज है.
वर्तमान में गैरसैण में चल रहे विधानसभा के बजट सत्र के लिए कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए बिस्तर और कुर्सियां तक देहरादून से गए.
कुछ दिन पहले वहां एक प्लास्टिक की कुर्सी तक नहीं थी. देहरादून से वहां सामान ढोने में और कुछ दिन के लिए राजनीतिक बारात ले जाने में सरकार को करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं और नतीजा ढाक के तीन पात है.
वहां जाने के लिए सड़कें इतनी तंग हैं कि दो कारें भी हर जगह आसानी से क्रास क्रास नहीं हो पाती. विपक्ष चाहे जितना भी चिल्लाए मगर गैरसैण में रहना कोई नहीं चाहता.
उत्तराखण्ड की और खास कर पहाड़ की जनता अधिकारियों और नेताओं की तफरीह के लिए नहीं बल्कि अपनी समस्याओं के निदान और विकास के लिए प्रदेश की सत्ता को पहाड़ में चाहती है. मगर राजनीतिक संकीर्णताओं के स्थाई राजधानी का निर्धारण अब तक नहीं हो पाया है.
राज्य गठन के बीस साल बाद भी उत्तराखण्ड का राजकाज अस्थाई राजधानी के भारी बोझ तले दबे देहरादून से चलने एवं स्थाई राजधानी न मिल पाने का दोष राज्य का गठन करने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को देना तो आसान है, मगर सच्चाई यह है कि इस अनिर्णय और असमंजस के लिए कोई और नहीं बल्कि स्वयं उत्तराखण्ड का राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार रहा है जो कि इस गंभीर मुद्दे पर न केवल सहूलियत की राजनीति करता रहा अपितु क्षेत्रवाद की संकीर्ण भावना से ग्रस्त रहा है.
एक अगस्त 2000 को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम बना और उत्तरांचल राज्य के गठन की संवैधानिक प्रकृया पूरी हुई तो उस समय केन्द्र और राज्य में भाजपा की सरकारें होने के साथ ही उत्तराखण्ड क्षेत्र से भाजपा के 30 विधानसभा और विधान परिषद सदस्यों में से 23 सदस्य और लोकसभा के पांच में से चार सदस्य थे.
अधिनियम बनने के बाद तत्कालीन कैबिनेट सेक्रेटरी कमल पाण्डे ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव योगेन्द्र नारायण को पत्र लिख कर उनसे पूछा था कि नए राज्य की राजधानी कहां और कैसे बनाई जा रही है.
उन्होंने राज्य के अस्तित्व में आने से पहले ही सरकार के मंत्रियों, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और नौकरशाहों के आवास एवं कार्यालयों की व्यवस्था करने के साथ ही हाइकोर्ट के स्थान के चयन की भी अपेक्षा की थी.
पाण्डे के पत्र पर तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त ने नौ सितम्बर 2000 को सभी विधायकों एवं सांसदों की बैठक लखनऊ में बुलाई थी जिसमें गैरसैण का नाम तो किसी ने नहीं लिया मगर अपनी सुविधा का ध्यान रखते हुए अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र या निर्वाचन क्षेत्र के निकट राजधानी बनाने की राय लगभग सभी ने प्रकट की.
पहाड़ के जनप्रतिनिधियों के एकराय न हो पाने के कारण देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल में जहां आवासीय एवं अन्य सुविधाएं पर्याप्त हों उस स्थान को राजधानी के लिए चिन्हित करने का सुझाव प्रशासन को दिया गया.
गैरसैंण को लेकर प्रदेश के जनप्रतिनिधियों और राजनेताओं की पोल दीक्षित आयोग की रिपोर्ट में भी खुल चुकी है.
राज्य बनने के बाद लखनऊ से सरकार देहरादून पहुंची तो स्थाई राजधानी के चयन की जिम्मेदारी एक बार फिर नए राज्य के राजनीतिक नेतृत्व पर आ गई थी.
नेता अपनी ढपली अपना राग अलापने लगे तो राजधानी चयन के लिए पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी ने दीक्षित आयोग का गठन कर अपने सिर की बला आयोग पर डाल दी.
राजनीतिक नेता गैरसैण के बारे में कितने ईमानदार हैं, यह दीक्षित आयोग की रिपोर्ट से साफ पता चल जाता है.
आयोग ने अखबारों में विज्ञापन देकर स्थाई राजधानी के लिए जब सुझाव मांगे तो 70 विधायकों, पांच लोकसभा और तीन राज्यसभा सदस्यों के अलावा कई दर्जन नगर निकायों में से केवल एक तत्कालीन सांसद, एक मंत्री तथा नेता प्रतिपक्ष सहित पांच विधायकों ने ही स्थायी राजधानी स्थल के लिए आयोग को अपने सुझाव दिए थे.
गैरसैंण को राजधानी बनाने की राय देने वालों में शामिल जनप्रतिनिधियों में तत्कालीन विधायक बद्रीनाथ डाक्टर अनुसूया प्रसाद मैखुरी, विधायक थलीसैंण गणेश प्रसाद गोदियाल, प्रमुख क्षेत्र पंचायत चौखुटिया (अल्मोड़ा) नन्दन सिंह सिरेजा थे.
रामनगर काशीपुर कालागढ़ क्षेत्र के पक्ष मे राय देने वालों में शामिल जनप्रतिनिधियों में तत्कालीन पशुपालन, लघु उद्योग, खादी ग्रामोद्योग मंत्री (बाद में स्पीकर) गोविन्द सिंह कुंजवाल, नेता प्रतिपक्ष भगत सिंह कोश्यारी तथा विधायक काशीपुर हरभजन सिंह चीमा, अध्यक्ष नगर पालिका परिषद काशीपुर श्रीमती ऊषा चौधरी थे. कोश्यारी और कुंजवाल ने रामनगर के साथ ही गैरसैण का भी सुझाव दिया था.
आईडीपीएल ऋषिकेश की राय देने वालों में तत्कालीन टिहरी सांसद मानवेन्द्र शाह, नगर पालिका अध्यक्ष ऋषिकेश दीप शर्मा, सदस्य जिला पंचायत नरेन्द्र नगर राजेन्द्र सिंह भण्डारी थे।
अन्य क्षेत्र के अन्तर्गत श्रीनगर की राय देने वालों में नगर पालिका अध्यक्ष श्रीनगर कृष्णानंद मैठानी तथा क्षेत्र पंचायत सदस्य ऊखीमठ कुंवर सिंह राणा शामिल थे।
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