इन्द्रेश मैखुरी
उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी मौर्य के हस्ताक्षर के बाद प्रदेश सरकार का महत्वाकांक्षी देवस्थानम विधेयक, अधिनियम बन गया है. सरकार विधानसभा के शीतकालीन सत्र में तीर्थ स्थलों के संदर्भ में यह विधेयक लाई जिसका शुरुआती नाम-उत्तराखंड श्राइन बोर्ड विधेयक था. बाद में विधानसभा में इसका नाम-उत्तराखंड देवस्थानम विधेयक,2019 हो गया.
इसके खिलाफ चार धाम के तीर्थ पुरोहित और अन्य हक-हकूकधारी सड़कों पर हैं. दो बार वे विधानसभा पर प्रदर्शन कर चुके हैं. 18 दिसंबर को उत्तरकाशी में और 20 दिसंबर को श्रीनगर(गढ़वाल) में उत्तराखंड देवस्थानम विधेयक के खिलाफ बड़ी रैलियां आयोजित की गयी. अन्य स्थानों पर भी इसके विरोध में लोग मुखर हैं.
तीर्थों से जुड़े तमाम लोगों की आशंका है कि यह विधेयक न केवल तीर्थ पुरोहितों को बल्कि तीर्थ स्थलों में छोटे-मोटे व्यवसाय करके जीवनयापन करने वाले-घोड़ा-खच्चर,डंडी-कंडी वालों,फूल-प्रसाद बेचने वालों के हितों को भी प्रभावित करेगा.
जिस तरह से उत्तराखंड सरकार विधेयक लाने से पहले संबन्धित पक्षों से वार्ता करने से बचती रही,उसने इस आशंका को और बल दिया. विधेयक इतना गुपचुप तरीके से लाया गया कि विधानसभा में पेश किए जाने से पहले सत्ता पक्ष के विधायकों को भी, इस बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं थी.
राज्यपाल की मंजूरी के बाद यह विधेयक अधिनियम बन चुका है मगर हकीकत यह है कि ये पूरी तरह संविधान विरोधी है.
भारत के संविधान में यह उल्लिखित है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है. यहां नागरिकों का तो धर्म है, अनुच्छेद 25 में नागरिकों को पूजा का अधिकार भी दिया गया है, लेकिन राज्य धर्मनिरपेक्ष है.
जो श्राइन बोर्ड विधेयक सरकार लाई है, उसमें श्राइन बोर्ड का अध्यक्ष ही मुख्यमंत्री होगा. इतना ही नहीं, यह शर्त भी रखी गयी है कि श्राइन बोर्ड का अध्यक्ष मुख्यमंत्री तभी होगा, जब वह हिन्दू हो.
यदि वह हिन्दू नहीं होगा तो वह हिन्दू धर्म को मनाने वाले वरिष्ठ मंत्री को बोर्ड का अध्यक्ष नामित करेगा. नामित किए जाने वाले 3 सांसदों और 6 विधायकों के लिए भी हिन्दू धर्म का अनुसरण अनिवार्य शर्त रखी गयी है.
संविधान का अनुच्छेद 15 तो कहता है कि किसी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता. उत्तराखंड की भाजपा सरकार जो कानून लाई है, उसमें तो मुख्यमंत्री, सांसद, विधायकों के साथ ही धार्मिक आधार पर भेदभाव की व्यवस्था हो गई है.
सरकार बोर्ड क्या बनाने जा रही है, एक जम्बो-जेट समिति बनाने जा रही है. इसमें मुख्यमंत्री के अलावा धर्म-संस्कृति के मंत्री होंगे, मुख्य सचिव, पर्यटन सचिव, धर्म, संस्कृति के सचिव, वित्त सचिव के अलावा भारत सरकार के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव या उससे ऊपर पद के व्यक्ति, विशेष आमंत्रित सदस्य होंगे.
उपरोक्त सभी शासकीय सदस्यों की श्रेणी में रखे गए हैं. इसके अलावा नामांकित सदस्यों की भी एक लंबी चौड़ी श्रृंखला है. इस लंबी चौड़ी श्रृंखला में से नामांकित सदस्यों की दो श्रेणियों का उल्लेख करना समीचीन होगा.
नामांकित सदस्यों में सबसे पहले रखे गए हैं-पूर्व टिहरी रियासत के राजपरिवार के सदस्य.
सवाल यह है कि जब राजशाही खत्म हो गयी,भारत लोकतन्त्र हो गया तो राजपरिवार को श्राइन बोर्ड में रखने का क्या औचित्य है?
चार दान दाताओं को भी नामित करने की व्यवस्था है. दान दाताओं की श्रेणी बड़ी रोचक है. भूत, वर्तमान और भविष्य के दान दाता नामित किए जाएँगे. भविष्य के दान दाता, ऐसी अद्भुत श्रेणी तो आजतक देश के किसी कानून ने नहीं देखी होगी !
कैसे और कौन तय करेगा कि अमुक-अमुक व्यक्ति भविष्य का दान दाता है ?
इस जम्बो जेट बोर्ड के अंदर ही प्रबंधन के लिए उच्च स्तरीय समिति का प्रावधान है. यह समिति भी खूब लंबी चौड़ी है. इसमें मुख्य सचिव, पर्यटन, संस्कृति, वित्त, राजस्व, लोक निर्माण, शहरी विकास, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य, नागरिक उड्डयन के सचिव होंगे.
इस तरह देखें तो मुख्य सचिव और कतिपय सचिव बोर्ड के साथ बोर्ड की एक समिति में भी होंगे. व्यक्ति एक पर श्राइन बोर्ड में वह दो बार होगा !
बोर्ड के सदस्य की हैसियत से मुख्य सचिव,उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष यानि कि मुख्य सचिव को निर्देश जारी करेंगे कि यात्रा का प्रबंध और समन्वय ठीक तरीके से होना चाहिए !
बोर्ड के पूरे ढांचे को देख कर राज्य में नौकरशाही प्रभुत्व को भली-भांति समझा जा सकता है. श्राइन बोर्ड में सर्वाधिक संख्या नौकरशाहों की है.
बोर्ड का मुख्य कार्यकारी अधिकारी अखिल भारतीय सेवा का उच्चतम वेतनमान के ग्रेड वेतन वाला अफसर होगा. एक्ट के विभिन्न भागों में मुख्य कार्यकारी अधिकारी को प्राप्त अधिकारों को देखें तो ऐसा लगता है कि वह बोर्ड के अंदर असीमित अधिकारों का स्वामी होगा.
उच्च अधिकार प्राप्त समिति के बारे में भी एक्ट की धारा 11(2) में कहा गया है कि “समिति समय-समय पर बोर्ड द्वारा प्रत्यायोजित सभी शक्तियों का प्रयोग करेगी.” इससे स्पष्ट है कि बोर्ड में बहुमत और सारी शक्तियों के स्वामी अंततः नौकरशाह ही होंगे.
नौकरशाही के वर्तमान तौर-तरीकों को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हक-हकूक,अधिकार के प्रति उनका रवैया कितना संवेदनशील और सकारात्मक होगा.
नौकरशाहों के प्रभुत्व वाला इस बोर्ड को शक्तिसंपन्न बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी है. यहां तक प्रावधान कर दिया गया है कि धार्मिक स्थलों से संबंधित संपत्तियां यदि सरकार, जिला पंचायत या नगरपालिकाओं के देख-रेख में हों तो वे सब बोर्ड को अंतरित हो जाएंगी.
जाहिर सी बात है कि ऐसी जो भी संपत्ति होंगी, वे जिला पंचायत या नगरपालिकाओं के लिए आय का स्रोत भी होंगी. तो इन निकायों को आय से महरूम करके, विकास का किस तरह का खींचा जा रहा है, यह समझना थोड़ा मुश्किल है.
इस विधेयक को लेकर एक बड़ा तर्क सरकार और विधेयक के समर्थकों द्वारा दिया जा रहा है कि बोर्ड के बन जाने के बाद इन धार्मिक स्थलों का विकास होगा.
सत्ता पक्ष के एक विधायक का कहना था कि सरकार को सड़क,पुल,रास्ते आदि बनाने में सहूलियत होगी !
क्या राज्य के किसी इलाके में विकास करने के लिए या सड़क, पुल, रास्ते आदि बनाने के लिए एक्ट बना कर वहां घुसना आवश्यक है ? क्या अभी ये धार्मिक स्थल सरकार के शासन क्षेत्र से बाहर हैं जो वहाँ सड़क,पुल,रास्ते आदि बनाने में सरकार को बाधा महसूस हो रही है ?
अगर वाकई सरकार चलाने वालों की यही समझ है तो उनकी समझ पर तरस ही खाया जा सकता है.
लेकिन क्या विधेयक में धर्म स्थलों में जन सुविधाओं के विकास के लिए सरकार द्वारा निवेश की बात कही गयी है ?
विधेयक की धारा 32 (6) में तो कहा गया है कि बोर्ड किसी धार्मिक स्थल को बजट आवंटित करते हुए, उसकी वार्षिक आय को ध्यान में रखेगा. इसका आशय यह है कि जिस धार्मिक स्थल से जितनी आय होगी, उसे उतना ही बजट आवंटित होगा.
जब बजट आय के अनुरूप ही मिलना है तो फिर सरकार के धार्मिक स्थलों को अपने हाथ में लेने से क्या फर्क पड़ने वाला है ?
उत्तराखंड सरकार द्वारा यह अधिनिय, तीर्थ स्थलों की जमीन को खुर्द-बुर्द करने को कानूनी जामा पहनाने के लिए लाया गया है. बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के पास ही उत्तराखंड के बाहर भी देश के विभिन्न हिस्सों में काफी जमीन है.
इस अधिनियम में कहा गया है कि चार धाम की किसी संपत्ति का विनिमय, विक्रय, गिरवी रखने या पट्टे पर देने की कार्यवाही, बिना बोर्ड की सहमति के नहीं की जा सकती.
इसका स्पष्ट आशय है कि बोर्ड की सहमति के साथ उक्त अचल संपत्तियां बेची जा सकती हैं और पट्टे पर भी दी जा सकती हैं.
उत्तराखंड की वर्तमान सरकार ने प्रदेश की जमीन बेचने की सारी बंदिशों को विधानसभा में कानून बना कर हटा दिया. अब प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में औद्योगिक प्रयोजन के नाम पर कोई भी, कितनी भी जमीन खरीद सकता है.
जो सरकार प्रदेश की जमीन बचाने के लिए नहीं बल्कि उसकी बेरोकटोक बिक्री का कानून ला सकती है, वह धार्मिक स्थलों की भूमि को मामले में ऐसा क्यूं नहीं करेगी ?
इस संदर्भ में यह भी ध्यान देना होगा कि धार्मिक स्थलों की अचल संपत्ति को बेचने या उसे पट्टे पर देने के लिए जिस बोर्ड की सहमति को हासिल करने की बात कही गयी है, उसे हासिल करना कतई मुश्किल नहीं है.
बोर्ड के सदस्यों की संख्या भले ही भारी-भरकम हो, लेकिन कोरम पूरा करने के लिए अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के अलावा केवल छह सदस्य ही और चाहिए.
कोढ़ में खाज यह कि अधिनियम की धारा 9 (1) में कहा गया है कि बोर्ड की किसी कार्यवाही को, बोर्ड में रिक्ति या बोर्ड के गठन में त्रुटि के आधार पर प्रश्नांकित या अमान्य नहीं किया जा सकता.
इसका सीधा अर्थ यह है कि सरकार आधा-अधूरा बोर्ड बना कर या उसे अधिनियम के अनुरूप न बना कर भी यदि उसके जरिये कोई फैसला ले ले तो उस फैसले को अमान्य नहीं किया जा सकेगा.
बोर्ड अमान्य लेकिन उसका निर्णय मान्य, ऐसा कैसे संभव है ?
अगर मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत और उनकी सरकार की नियत में खोट नहीं है तो इस तरह का प्रावधान करने की जरूरत उन्हें क्यूं पड़ी, जिसकी भाषा में ही मनमानी और तानाशाही की झलक है ?
उत्तराखंड में सरकार द्वारा बनाए जाने वाले श्राइन बोर्ड या देवस्थानम बोर्ड के खिलाफ जो लोग सड़क पर हैं, वे कोई भाजपा विरोधी लोग नहीं हैं. बल्कि वे तो परंपरागत रूप से भाजपा समर्थक हैं, उनमें से कुछ तो भाजपा के पदाधिकारी भी हैं.
इसके बावजूद भाजपा की सरकार ऐसा कानून ले आई, जिससे ये लोग अपने परंपरागत धार्मिक अधिकारों पर हमला महसूस कर रहे हैं.
दरअसल जिस हिन्दू राष्ट्र का नारा दे कर भाजपा वोटों की फसल काटती रही है, यह अधिनियम उसकी एक झांकी भर है. इस कानून के आइने में देखें तो भाजपा का वह प्रोजेक्टेड हिन्दू राष्ट्र, जिनके खिलाफ है, उन पर तो हमला करेगा ही, लेकिन उनके अधिकार भी सुरक्षित नहीं रहेंगे, जो उसके ध्वजवाहक होंगे.
धार्मिक स्वतन्त्रता तभी तक सुरक्षित है, जब तक कि धर्म निजी विषय है.
धर्म जैसे ही सत्ता के नियंत्रण में जाएगा तो वह धार्मिक स्वतन्त्रता को बढ़ाएगा नहीं बल्कि उसे बाधित ही करेगा. इसीलिए धर्म का निजी विषय बना रहना ही उचित है.
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