उत्तराखंड के वन विभाग की वेबसाइट में विभाग के परिचय के साथ ही पांच प्रमुख उद्देश्य बताए गए हैं, जो इस प्रकार हैं.
1- सामुदायिक भागीदारी से वनों का वैज्ञानिक प्रबन्ध एवं सुधार.
2- वन संसाधनों का सर्वेक्षण एवं सुरक्षा.
3- जैव विविधता संरक्षण.
4- पर्यावरणीय आकलन एवं पर्यावरण संरक्षण.
5- वन्य जन्तु संरक्षण, संवर्धन एवं इस संबंध में जागरूकता पैदा करना.
इन पांच उद्देशेयों का समवेत भाव यही है कि वन विभाग का सर्वोच्च कर्तव्य प्राणवायु देने वाले वनों की सुरक्षा करना और उन्हें समृध बनाना है.
मगर जब हर साल वनाग्नि से हजारों हैक्टेयर वन संपदा स्वाहा होती है और विभाग ‘सांप के निकल जाने के बाद लकीर पीटने’ जैसी हरकतें करता नजर आता है, तब उसकी मंशा पर सवाल खड़े होना लाजमी है.
तब सबसे पहला सवाल यही उठता है कि जो विभाग पुराने अनुभवों और पिछली गलतियों से सबक नहीं ले पा रहा है, आखिर उसकी जरूरत क्यों हैं ?
उत्तराखंड के जंगल इन दिनों कोई पहली बार नहीं धधक रहे हैं. हर साल गर्मियों के मौसम में जंगलों में आग लगती है. मगर इस आग की विकरालता कम करने को लेकर कभी भी समय पर इंतजाम नहीं किए जाते.
फरवरी से लेकर जून तक उत्तराखंड में फायर सीजन रहता है. इस दौरान जंगलों में आग लगने की घटनाएं हर साल सामने आती हैं.
इस बार तो मौसम चक्र में आ रहे परिवर्तन को देखते हुए वैज्ञानिकों ने वनाग्नि के खतरे को लेकर पहले ही चिंता जता दी थी.
वैज्ञानिकों ने चेता दिया था कि समय पर बचाव और नियंत्रण के इंतजाम नहीं किए गए तो हालात नियंत्रण से बाहर जा सकते हैं. आखिरकार वही हुआ.
हैरानी की बात है कि प्रदेश का वन महकमा तब जाकर थोड़ा बहुत हरकत में आया है जब प्रदेशभर में 1200 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल स्वाहा हो चुके हैं.
आंकड़ों की मानें तो पिछले साल एक अक्टूबर 2020 से अब तक प्रदेशभर में वनाग्नि की एक हजार से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 1300 हेक्टेयर से अधिक जंगल राख हो चुके हैं.
सोशल मीडिया पर जंगलों के खाक होने की तस्वीरें पटी हुई हैं. वनाग्नि से सबसे ज्यादा नुकसान पौड़ी, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों के जंगलों में हुआ है.
अकेले इन तीन जिलों में वनाग्नि की 270 से ज्यादा ज्यादा घटनाएं हुई हैं जिनमें 500 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल स्वाहा हुए हैं. अन्य जिलों का हाल भी बहुत बुरा है.
यदि आर्थिक नुकसान की बात करें तो वन विभाग के मुताबिक अब तक 38 लाख रुपये से ज्यादा मूल्य की वन संपदा खाक हो चुकी है. जानकारों की माने तो असल नुकसान इससे कहीं अधिक होने की आशंका है.
प्रदेश के तमाम जनमुद्दों पर महत्वपूर्ण जानकारियां साझा करने वाले और उत्तराखंड के सरोकारों पर लगातार विमर्श करने वाले थिंक टैंक, ‘सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज फाउंडेशन’ के संस्थापक अनूप नौटियाल ने बीते दिनों सोशल मीडिया में एक वीडियो जारी किया, जिसमें उन्होंने बताया कि उत्तराखंड का वन विभाग एक हेक्टेयर जंगल के जलने पर हुए नुकसान की कीमत 2500 से 3000 रुपये आंकता है.
वहीं दूसरी ओर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फारेस्ट मैनेजमेंट (भोपाल) द्वारा वर्ष 2018 में जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड की पर्यावरणीय सेवाओं (ecosystem services) का मूल्यांकन 95112 करोड़ रूपये सालाना है.
इस आधार पर देखें तो प्रति हेक्टेयर वन का मूल्यांकन लगभग तीन लाख अट्ठासी हजार (388000) रूपये सालाना होता है.
अनूप नौटियाल बताते हैं कि इसी रिपोर्ट को सबसे पुख्ता आधार बनाकर राज्य सरकार केंद्र से ग्रीन बोनस की मांग करती है.
अनूप नौटियाल द्वारा साझा की गई यह जानकारी वाकई में चौंकाने वाली है. आखिर वन विभाग द्वारा एक हेक्टेयर वन संपदा की कीमत महज तीन हजार रुपये किस आधार पर आंकी जाती है ?
हर साल जंगलों में लगने वाली आग के बुरे अनुभवों के बावजूद वन विभाग द्वारा फुल-प्रूव योजना न बनाया जाना विभाग की नाकामी का बड़ा प्रमाण है.
फुलप्रूव योजना तो छोड़िए प्रदेश का वन महकमा तो एक फौरी सूचना तंत्र तक ईजाद करने नाकाम साबित हुआ है, जिससे आग की घटना का शुरुआती घंटों में ही पता लग जाए.
प्रदेश में वन महकमे के ढांचे को देखें तो अफसरों की भारी भरकम पलटन नजर आती है.
विभाग की वेबसाइट में जो ढांचा बताया गया है उसके मुताबिक उत्तराखंड के वन विभाग में मुख्य वन संरक्षक से अलावा तीन अन्य पीसीसीएफ, 13 सीसीएफ, 9 सीएफ और 30 से ज्यादा डीएफओ हैं.
इनके अलावा दर्जनभर के करीब डायरेक्टर और डिप्टी डायरेक्टर स्तर के अधिकारी भी हैं. लेकिन यह सारा तंत्र वनाग्नि के आगे पंगु साबित होता जा रहा है.
एक और अहम तथ्य यह है कि एक तरफ वन विभाग में बड़े अफसरों की भारी-भरकम फौज है तो दूसरी तरफ फॉरेस्ट गार्ड के 65 प्रतिशत के करीब पद खाली हैं.
प्रदेश के सभी वन प्रभागों, रिजर्व पार्कों और अन्य संरक्षित क्षेत्रों में कुल 3639 बीट हैं जिनमें वर्तमान में करीब 1300 फॉरेस्ट गार्ड ही तैनात हैं. यानी आधी सी ज्यादा बीट खाली हैं.
जो फॉरेस्ट गार्ड विभाग में कार्यरत हैं उनमें से भी ज्यादा तर सुगम शहरी क्षेत्रों में तैनात हैं.
बीते वर्ष प्रदेश में फॉरेस्ट गार्ड की परीक्षा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई थी जिसके चलते नई भर्तियों में अभी वक्त लगना तय है.
धू-धूकर जल रहे जंगलों को बचाने के लिए राज्य सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को वनाग्नि पर काबू पाने के लिए केंद्र सरकार से हेलीकॉप्टर मांगने की फुर्सत तब मिली जब आग बुरी तरह बेकाबू हो चुकी थी.
मुख्यमंत्री तीरथ सिंह के आग्रह पर केंद्र सरकार ने हेलीकॉप्टर भेजे जिसके बाद आग पर काफी हद तक काबू भी पाया गया.
सवाल है कि क्या यह सब पहले नहीं किया जा सकता था ? जरूर किया जा सकता था मगर तब, जबकि वनों का संरक्षण सरकार की प्राथमिकता में होता.
सरकार की प्राथमिकता में यदि जंगल की आग मुद्दा होता तो मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत की दस हजार वन प्रहरी नियुक्त करने की घोषणा पर तत्काल अमल नहीं हो जाना चाहिए था ?
मुख्यमंत्री बनने के हफ्तेभर बाद तीरथ सिंह रावत ने वनाग्नि रोकने के लिए दस हजार ग्राम प्रहरी तैनात करने की घोषणा की थी. तब दावा किया गया था कि ये सभी तैनातियां एक अप्रैल तक हो जाएंगी.
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक वन प्रहरियों के सात माह के वेतन के लिए विभाग द्वारा 40 करोड़ रुपये का बजट भी जारी कर दिया गया था, मगर इस सबके बावजूद नतीजा वही ढाक के तीन पात है.
उत्तराखण्ड का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग किलोमीटर है जिसमे से 64.79 प्रतिशत (34651 वर्ग किलोमीटर) वनक्षेत्र है. इसमें से 24442 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वृक्षाच्छादित है.
प्रकृति का यह उपहार पूरी मानव सभ्यता के लिए अनमोल है. मगर वन विभाग की अकर्मण्यता के चलते उत्तराखंड के जंगल जलने को अभिशप्त हैं.
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