जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार
जिस उत्तर प्रदेश ने देश के अन्य राज्यों को अपने भूमि सुधार कानून से नया रास्ता दिखाया था उसी उत्तर प्रदेश से जन्मा हुआ उत्तराखण्ड राज्य अब मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की रहनुमाई में देश को सरकारी जमीनों की नीलामी का नया रास्ता भी दिखाने जा रहा है.
औद्योगिकीकरण के नाम पर देश के पहले भूमि सुधार कानून ‘जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम’ में निरंतर छेड़छाड़ कर धन्ना सेठों को गरीब किसानों की जमीन हड़पने की खुली छूट देने के बाद अब प्रदेश की त्रिवेन्द्र सरकार की नजर निरंतर घटती जा रही सरकारी जमीनों पर भी पड़ गयी है.
वर्तमान सरकार का औद्योगिक निवेश का अभियान तो औंधे मुंह गिर ही चुका है, लेकिन अब सरकार अपनी जमीन नीलाम कर आय बढ़ाने की सोच रही है. सरकार के ये इरादे यदि पूरे हो गए और सभी सरकारी भूमि बिक गयीं, तो भविष्य में विकास कार्यों के लिये, सरकार के पास जमीन ही नहीं बचेगी.
जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम में एक के बाद एक संशोधन के बाद अब प्रदेश सरकार अपनी भूमि का जिला स्तर पर रजिस्टर तैयार कर टेंडर के आधार पर उसकी नीलामी की नयी नीति तैयार कर रही है.
वर्तमान में प्रदेश सरकार निजी क्षेत्र में लोगों को गवर्मेंट ग्रांट एक्ट सहित अन्य कई तरीकों से पट्टे आदि पर भूमि उपलब्ध कराती है.
लेकिन अब जिला स्तर पर रजिस्टर बनने से यह स्पष्ट हो पाएगा कि जिलों में कहां कितनी सरकारी भूमि उपलब्ध है. इस उपलब्धता के आधार पर उस जमीन को टेंडर के जरिये नीलाम कर राजस्व अर्जित करने का सरकार का इरादा है.
मतलब यह कि जो काम अब तक प्रापर्टी डीलर कर रहे थे वही काम अब त्रिवेन्द्र सरकार भी करेगी और भूमि जैसे सीमित तथा दुर्लभ होते जा रहे संसाधन को अपने चहेतों में लुटवायेगी.
प्रस्तावित नीति के अनुसार जिले स्तर पर डीएम सरकारी भूमि को चिह्नित करेंगे और रजिस्टर तैयार कर एक कमेटी का गठन करेंगे.
यह कमेटी रजिस्टर में दर्ज भूमि का सार्वजनिक रूप से प्रकाशन कराएगी और इच्छुक लोगों से आवेदन मांगने के बाद उस भूमि को सर्किल रेट के आधार पर बेच देगी.
प्रदेश के राजस्व सचिव सुशील कुमार के अनुसार शासन स्तर पर यह मामला विचाराधीन है. नीति को अंतिम स्वरूप मिल जाने के बाद ही इस पर अंतिम निर्णय हो सकता है. इतना जरूर है कि निर्णय जल्द से जल्द लेने की कोशिश की जा रही है.
स्वतंत्रता के बाद प्रत्येक राज्य सरकारों को भूमि के असमान वितरण, भूमिहीनता तथा सामंती शोषण को समाप्त करने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कानून-बनाने की जरूरत थी.
इस उद्देश्य से संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत की अध्यक्षता में जमींदारी उन्मूलन समिति का गठन किया गया, जिसने 1948 में अपनी सिफारिशें दीं.
इन सिफारिशों के आधार पर उत्तर प्रदेश विधान सभा ने उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था विधेयक 1950 को पारित किया था, जिसे राष्ट्रपति ने 24 जनवरी, 1951 को अनुमादित किया, जो कि 26 जनवरी 1951 के गजट में प्रकाशित हुआ.
उत्तराखण्ड राज्य के अलग होने पर वर्ष 2002 में नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली पहली निर्वाचित सरकार ने जनता की मांग पर प्रदेश के पहाड़ी किसानों की भूमि को धन्ना सेठों के हाथ बिकने और किसानों को भूमिहीन होने से बचाने के लिये राज्य में बाहरी व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर तय की.
वर्ष 2007 में मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी के कार्यकाल में यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी गई थी. लेकिन वर्तमान त्रिवेन्द्र सरकार ने वर्ष 2018 में पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को पूरी तरह खत्म कर दिया.
त्रिवेन्द्र सरकार ने 6 अक्तूबर, 2018 को अध्यादेश लाकर (उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001) में संशोधन कर उक्त कानून में धारा धारा 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म करने की राह तैयार की.
इसके साथ ही सरकार ने 143 (क) जोड़ कर कृषकों की जमीनों को अकृषक बाहरी लोगों द्वारा उद्योगों के नाम पर खरीद कर उसका भू-उपयोग परिवर्तन आसान कर दिया.
दो महीने बाद 6 दिसंबर 2018 को इस संशोधन विधेयक को सरकार ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पारित करवा दिया.
तिवारी सरकार ने हिमाचल प्रदेश टेनेंसी एण्ड लैण्ड रिफॉर्म एक्ट 1972 की धारा 118 की तरह ही उत्तराखण्ड में भी बाहरी लोगों द्वारा जमीनों की खरीद फरोख्त नियंत्रित करने के लिये ‘जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था कानून’ में संशोधन किया था ताकि बाहरी धन्ना सेठ भोले-भाले काश्तकारों की जमीन खरीद कर उन्हें भूमिहीन न बना दें.
लेकिन अब तो त्रिवेन्द्र सरकार ने रही सही बंदिशें भी समाप्त कर पहाड़ की जमीनें लूटने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है.
हैरानी बात है कि, यह वही सरकार है जो वर्ष 2022 तक राज्य के किसानों की आय दोगुनी करने का दावा कर रही है और जिसे हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कृषि कर्मण पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है.
चिंताजनक बात यह है कि अगर इस पहाड़ी राज्य में जमीनों की नीलामी की गयी तो इससे विकास कार्यों के लिये भविष्य की सरकारों के पास जमीन ही नहीं बचेगी और मजबूरन उन्हें जबरन निजी भूमि का अधिग्रहण करना पडेगा.
राज्य में सरकारी 71 प्रतिशत भू-भाग पर वनभूमि और जंगल हैं जबकि 13 प्रतिशत निजी जमीन है. शेष 17 प्रतिशत सरकारी जमीन पहाड़ी और नदी-नालों की होने के कारण उपयोग लायक जमीन ही बहुत कम बची हुयी है. इस बची खुची जमीन पर भी बड़े पैमाने पर अवैध कब्जे हैं.
कहां तो सरकार को इन अवैध कब्जों को फ्री-होल्ड कर सरकारी जमीन को अपने अधिकार क्षेत्र में लाने की गंभीर पहल करनी चाहिए थी, मगर अफसोसजनक है कि ऐसा करने के बजाय सरकार बची खुची जमीन को भी नीलाम करने पर आमादा है.
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