उत्तराखंड में पिछले तीन-चार दशकों से पलायन तेज हुआ है. राज्य बनने के बाद यह बढ़ भी गया है.
जब कोरोना महामारी के चलते बड़ी संख्या में वापस आये युवाओं ने यहीं रहने का मन बनाया, सरकार ने इसे ‘अवसर’ के रूप में प्रचारित किया.
उत्तराखंड ग्राम विकास एवं पलायन आयोग ने इन लोगों के लिये गांव में ही रोजगार तलाशने की बात कही.
जो नीति-नियंता पिछले कई दशकों से पलायन रोकने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बना पाए थे, वे कोरोना में रोजगार के विकल्प खोज रहे थे.
तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने कहा कि हम ऐसी नीतियां बना रहे हैं, जिससे ‘गांव का पलायन गांव’ में ही हो. यह नया जुमला था.
उन्होंने कहा कि हम गांव में रोजगार पैदा करने के लिये नई टाउनशिप डेपलप करना चाहते हैं. इन टाउनशिप में अच्छे स्कूल और अस्पताल, रेस्टोरेंट, होटल, बड़े बाजार खोलने की योजना बनी.
इसके लिये 88 ग्रोथ सेंटर खोले गये और तेरह जिलों में डेस्टिनेशन सेंटर खोलने की नीति बनी.
लेकिन जब युवाओं ने कुछ करने के लिए प्रयास शुरु किये तो उन्हें एक बड़े सच का सामना करना पड़ा.
वह सच था सरकारों की नीतियों से लगातार कम होती खेती की जमीन और भू-प्रबंधन के अभाव में अनियोजित जमीनों के दस्तावेज.
उत्तराखंड में आजादी के आंदोलन के समय, आजादी के बाद, राज्य आंदोलन के समय और राज्य बनने के बाद लोग जल, जंगल और जमीन के सवालों को लेकर मुखर रहे हैं.
भू-कानून पर मौजूदा बहस सरकार के 2018 में किए गए संशोधन के इर्द-गिर्द है. तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह ने 6 अक्टूबर 20018 को देहरादून में देशभर के उद्योगपतियों को ‘इंवेस्टर्स समिट’ बुलाकर तैयार की थी.
उस बैठक में मुख्यमंत्री ने ऐलान किया कि सरकार राज्य में ऐसा भूमि कानून संशोधन लायेगी, जिससे राज्य में उद्योगों को प्रोत्साहित किया जा सके.
लेकिन नये भूमि कानून ने पहाड़ों में जमीनों की बेतहाशा लूट का रास्ता खोल दिया. इस संशोधन के अनुसार अब पहाड़ में किसी भी कृषि भूमि को कोई भी कितनी भी मात्रा में खरीद सकता है.
पहले इस अधिनियम की धारा-154 के अनुसार कोई कृषक 12.5 एकड यानि 260 नाली जमीन अपने पास रख सकता था. इससे अधिक जमीन खरीदने पर रोक थी.
नये संशोधन में इस अधिनियम की धारा- 154 (4) (3) (क) में बदलाव कर दिया गया. नये संशोधन में धारा- 154 में उपधारा (2) जोड दी गई है.
इसके लिये कृषक होने की बाध्यता समाप्त हो गई है. इसके साथ ही 12.5 एकड़ की बाध्यता को भी समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी व्यक्ति किसी भी उद्योग के लिये कितनी भी जमीन खरीद सकता है.
यानी नये संशोधन के बाद अब राज्य में जमीनों की खरीद-फरोख्त पर कोई रोक नहीं रहेगी.
इतना ही नहीं असीमित कृषि भूमि की खरीद-फरोख्त को रोकने वाली धारा-143 में संशोधन कर नया संकट खड़ा कर दिया.
पहले इस अधिनियम के अनुसार कृषि भूमि को अन्य उपयोग में बदलने के लिये राजस्व विभाग से अनुमति जरूरी थी. अब इस संशोधन के माध्यम से इस धारा को 143 (क) में परिवर्तित कर दिया गया है.
अब अपने उद्योग के लिये प्रस्ताव सरकार से पास कराना है. इसके लिये खरीदी गई कृषि जमीन का भू-उपयोग बदलने की भी जरूरत नहीं है.
इसे बहुत आसानी से अकृषक जमीन मान लिया जायेगा. इस इस संशोधन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह पहाड़ में उद्योग लगाने के लिये किसी भी निवेशक को जमीन खरीदने की छूट प्रदान करती है.
संशोधित भू-कानून के अनुसार चिकित्सा, स्वास्थ्य, शैक्षणिक संस्थान सहित 29 क्षेत्रों को औद्योगिक इकाई माना गया है.
इससे आगे बढ़कर सरकार ने इसी कानून की धारा-156 में संशोधन कर तीस साल के लिये लीज पर जमीन देने का अध्यादेश पास किया है. इससे समझा जा सकता है कि कृषि से रोजगार देने की बात करने वाली सरकार के दावे कितने खोखले हैं.
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यह भू-संशोधन पहली बार नहीं हुआ था. पहले मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी ने समझा था कि राज्य की जमीन का प्रबंधन ही यहां की अर्थव्यवस्था मजबूत कर सकता है.
उन्होंने एक भू-कानून का प्रारूप तैयार किया जिसे ‘उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम-1950)’ में संशोधन के लिए एक अध्यादेश 12 सितंबर, 2003 को पारित किया गया.
लेकिन मैदानी जिलों कई बड़े इजारेदारों, भू माफियाओं, जमीन के कारोबार से जुड़े राजनीतिक दलों के नेताओं ने इसका जमकर विरोध किया.
नारायण दत्त तिवारी सरकार इनके दबाव में आई और उसने तत्कालीन राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष विजय बहुगुणा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर दिया.
आखिरकार संशोधनों के बाद भू-कानून ऐसा बन गया जिससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी. जब 15 जनवरी, 2004 को यह लागू हुआ तो इतना ही हो पाया कि किसी भी बाहरी व्यक्ति अर्थात जो कृषक नहीं है वह अपनी रिहायशी जरूरत के लिए 500 गज जमीन खरीद सकता है.
लेकिन इस कानून में इतने छेद थे कि पहाड़ में जमीनों की खरीद-फरोख्त तरह जारी रही.
उत्तराखंड में 2018 में भाजपा सरकार के भू-कानून में किये संशोधनों पर लोगों की प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक था.
सत्तर के दशक से पहाड़ के कई आंदोलनों से जुड़े ‘नैनीताल समाचार’ के संपादक राजीव लोचन शाह कहते हैं कि देश के अन्य हिमालयी क्षेत्रों की संवेदनशीलता को समझते हुये सख्त भू-कानून पहले से बने हुए हैं.
जम्मू-कश्मीर में संविधान की धारा-370 और 35-ए (अब हटा दी गई हैं) से जमीनों की खरीद-फरोख्त पर रोक थी.
पूर्वोत्तर के राज्यों में धारा-371-ए के माध्यम से जमीनों को बचाया गया है. हमारे पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में अपनी जमीनों को बचाने के लिये धारा-118 बनाई है. इन राज्यों ने पहले अपनी जमीन को बचाया और फिर इसको विकसित करने का काम किया.
यही वजह है कि जहां हिमाचल प्रदेश को आज हम ‘एप्पल स्टेट’ के रूप में जानते हैं तो सिक्किम को ‘जैविक राज्य’ के रूप में. हिमाचल प्रदेश में ‘हिमाचल प्रदेश टेंनसी एंड लैंड रिफाॅम्र्स एक्ट-1972‘ के 11 वें अध्याय में ‘कंट्रोल ऑन ट्रांसफर ऑफ लैंड’ में धारा-118 है.
इस धारा के अनुसार हिमाचल में किसी भी गैर कृषक को जमीन हस्तांतरित नहीं की जा सकती है. इसका मतलब यह भी हुआ कि किसी भी कृषि जमीन को हिमाचल का रहने वाला ही गैर कृषक भी नहीं खरीद सकता.
जबकि उत्तराखंड में ठोस भू-कानूनों के अभाव में लगातार यहां की खेती की जमीन सिकुडती रही है. लोगों के हाथ से खेती की जमीन जा रही है.
इसे समझने के लिये अखिल भारतीय किसान महासभा के अध्यक्ष पुरुषोत्तम शर्मा की पुस्तिका ‘कृषि की उपेक्षा से बढ़ता पलायन’ बहुत उपयोगी है.
इसके अनुसार राज्य में मौजूदा समय में मात्र 4 प्रतिशत भूमि पर खेती हो रही है. राज्य के पास कुल भूमि का रकवा 5592361 हैक्टेयर है, जिसमें 88 प्रतिशत पर्वतीय और 12 प्रतिशत मैदानी भू-भाग है.
इसमें 3498447 हैक्टेयर वन भूमि है. कृषि भूमि मात्र 831225 हैक्टेयर है. बेनाप और बंजर भूमि 1015041 हैक्टेयर है. अयोग्य श्रेणी की भूमि 294756 हैक्टेयर है.
अगर इसे प्रतिशत में देखें तो कुल भूमि का 63 प्रतिशत वन, 14 प्रतिशत कृषि, 18 प्रतिशत बेनाप-बंजर और 5 प्रतिशत बेकार अथवा अयोग्य जमीन है.
जमीनों के ये अनुमानित आंकड़े 1958-64 के बंदोबस्त के हैं. कुमाऊं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून (कूजा एक्ट) आया तो इसने खेती के विस्तार के सारे रास्ते रोक दिये.
इस कानून के तहत सारे विकास कार्यों के लिये किसानों की नाप भूमि निःशुल्क सरकार को देने की शर्त लगा दी. उसने बड़ी तेजी के साथ यहां की खेती योग्य जमीन को लीलना शुरू किया.
उसका परिणाम यह हुआ कि राज्य की 7 प्रतिशत से ज्यादा कृषि योग्य जमीन सरकार के खाते में चली गई है.
शहरों, कस्बों और सड़कों के का 50 से 200 गुना तक जो विस्तार हुआ वह भी कृषि भूमि पर ही हुआ. बड़ी बांध परियोजनाओं में नदी-घाटियों की बड़ी जमीनें गई हैं.
सिर्फ टिहरी बांध परियोजना पर ही कुल कृषि भूमि का 1.50 प्रतिशत हिस्सा चला गया. अब पंचेश्वर बांध परियोजना में 134 गांवों की जमीनों पर खतरा मंडराने लगा है.
राष्ट्रीय पार्कों, वन विहारों के विस्तार से लोगों को उनकी जमीन से अलग किया गया है. वर्ष 2010 से आई आपदाओं के चलते 233 गांव पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं. सरकार के पास इनके लिए एक इंच जमीन नहीं है.
जमीनों के वितरण का एक आंकड़ा इस बात को समझने के लिये काफी है कि बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो लगभग भूमिहीनों की श्रेणी में आते हैं.
राज्य बनते समय वर्ष 2000 में राज्य की कुल 831225 हैक्टेयर कृषि भूमि 855980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीन श्रेणियों की जोतों की संख्या 108863 थी. इन 108863 परिवारों के नाम 402422 हैक्टेयर भूमि दर्ज थी.
यानि राज्य की कुल भूमि का लगभग आधा भाग. बांकी पांच एकड़ से कम जोतों वाले 747117 परिवारों के नाम 428803 हैक्टेयर भूमि दर्ज थी.
उक्त आंकड़े बताते हैं कि किस तरह राज्य के लगभग 12 प्रतिशत किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधा कृषि भूमि है. बाकी 88 प्रतिशत कृषक आबादी भूमिहीनों की श्रेणी में है. इनमें एक बड़ा वर्ग उन हरिजन और भूमिहीनों का है जो इन आंकड़ों से बाहर हैं.
इन जटिल आंकड़ों का सीधा संबंध राज्य में पलायन रोकने की नीतियां से जुड़ा है. अगर इस सवाल को सुलझाये बिना कोई लोगों को पहाड़ में रोकने की बात कर रहे हैं तो वह बहुत सतही सोच है.
जमीनों के सवालों को मुखरता से उठाते रहे उत्तराखंड प्रवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी कहते हैं कि सरकार कृषि, पशुपालन, उद्यानीकरण, होम स्टे, पर्यटन से स्थानीय युवाओं को रोजगार देने की बात कर रही है. अगर बहुत संक्षिप्त में इसे समझना हो तो अल्मोडा जनपद के मजखाली क्षेत्र को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है.
यहां चैकुनी, मौना, मवाड, गिनाई, डडगलियां, रियूनी, मजखाली, द्वारसों, डीडा, कठपुडिया से लेकर तीन न्याय पंचायतों की जमीनें बिक चुकी हैं.
राज्य के अन्य हिस्सों में सल्ट, मानिला, धूमाकोट, नैनीटांडा, मसूरी, टिहरी, नरेन्द्रनगर, धनोल्टी, लैंसडाउन, भीमताल, रामगढ, मुक्तेश्वर, धारी, बेरीनाग, चकोडी, ग्वालदम, रामनगर के आसपास से लेकर गंगा का पूरा किनारा और कई क्षेत्र इसी तरह बड़े बिल्डरों या पूंजीपतियों की गिरफ्त में हैं.
दो साल पहले सरकार ने भूमि कानूनों में संशोधन किया है, वह तेजी से जमीनें हमारे हाथ से निकल रही हैं. अभी तक हिमालय दर्शन वाली जमीनें बिक रही थी, अब घाटियां भू-माफिया के निशाने पर हैं.
इसे समझे बगैर स्थानीय रोजगार की बात बेमानी है.
(यह रिपोर्ट स्वतंत्र पत्रकारों के लिए ‘नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया’ की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है)
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