जिस राज्य की विधानसभा का शीतकालीन सत्र, बिजनेस यानी विधाई काम न होने के चलते सात दिन के बजाय दो दिन में ही स्थगित हो जाए, वह राज्य सचमुच में कितना ‘खुशहाल’ होगा !
उस राज्य की सारी समस्याएं तो मानो कब की खत्म हो चुकी होंगी। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई जैसी बुराइयों का तो निश्चत ही खात्मा हो चुका होगा।
कानून व्यवस्था के मामले में तो वह राज्य इतना मजबूत होगा कि सारे अपराधी राज्य की सीमा छोड़ कर सात कोस दूर जंगलों में छिपने को मजबूर होंगे।
यानी जनता ‘रामराज’ का साक्षात अनुभव कर रही होगी।
जाहिर है, जब सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है तो फिर विधानसभा का सत्र 7 दिन के बजाय दो दिन में ही निपटा देना बिल्कुल सही तो था ?
तो, स्पीकर महोदया ने ठीक ही तो कहा कि बिना बिजनेस के सत्र चलाना जनता के पैसे की बर्बादी भी है और उसके साथ बेईमानी भी।
इसके बाद भी जो लोग विधानसभा सत्र के दो दिन में ही निपट जाने पर हो हल्ला कर रहे हैं, वे निश्चित ही इस राज्य के ‘दुश्मन’ हैं।
वे लोग चाहते थे कि भर्ती घोटाले, बेरोजगारी, महंगाई, अंकिता हत्याकाडं और वीआईपी के नाम का खुलासा जैसे बेकार के तमाम विषयों पर सत्र के नाम पर सात दिन तक जनता के पैसे की बर्बादी करनी चाहिए थी।
वे लोग चाहते थे कि हमारे प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सत्र के चलते देहरादून में ही फंसे रहते और नगर निगम दिल्ली के चुनाव में प्रचार के लिए न जा पाते।
लेकिन ऐसे राज्य विरोधी लोगों की हसरत अधूरी रह गई। सरकार बहादुर ने सारा काम दो दिन में निपटा कर न केवल जनता के लाखों रुपये बचा दिए, बल्कि दिल्ली के मतदाताओं को भी हमारे मुख्यमंत्री जी का चुनावी भाषण सुनने का सौभाग्य दे दिया।
इधर सत्र स्थगित हुआ और उधर मुख्यमंत्री धामी दिल्ली पहुंच गए, जहां उन्होंने 30 नवंबर से कई ताबड़तोड़ रोड शो और चुनावी सभाएं की।
जरा सोचिए, अगर सत्र का पूरा काम दो दिन में खत्म न करके सात दिन तक खींचा जाता तो क्या दिल्ली के मतदाताओं को हमारे मुख्यमंत्री के जोशीले भाषण सुनने का ‘सौभाग्य’ मिल पाता ?
सात दिन के प्रस्तावित विधानसभा सत्र को दो दिन में निपटाने के बाद सरकार की चुप्पी और विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूरी की दलीलें सुन कर दोनों की ‘तारीफ’ में और क्या-क्या लिखा जाए ?
कितनी शर्म और दु;ख की बात है कि जिस राज्य में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई और अपराधों की रफ्तार बुलेट ट्रेन से भी तेज हो, उस राज्य की विधानसभा में इन मुद्दों पर न तो कोई चर्चा हुई न कोई विमर्श।
जिस राज्य में डेढ़ महीने पहले एक 19 वर्षीय किशोरी अंकिता भंडारी की हत्या की घटना ने सबको झकझोर कर रख दिया हो, उस राज्य की विधानसभा में इस पर कोई चिंतन मनन नहीं हुआ।
इस हत्याकांड में सबूत नष्ट किए जाने के आरोपों से लेकर वीआईपी मेहमान के नाम का अब तक खुलासा न होने और अंकिता के माता-पिता द्वारा सीबीआई जांच की मांग को अनदेखा किए जाने तक, ऐसे तमाम सवाल हैं जो सीधे तौर पर सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाले हैं।
हालांकि विपक्ष के कुछ विधायकों ने जरूर इस हत्याकांड को लेकर कुछ सवाल उठाए मगर उनके सवाल भी महज रस्म अदायगी ही साबित हुए। सत्ता के लिए वे सवाल मानो सवाल ही न थे।
इसी तरह जिस राज्य की एक और बेटी के हत्यारों को हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया, उस बेटी को न्याय दिलाने के लिए विधानसभा सत्र में एक संकल्प प्रस्ताव तक नहीं लाया जा सका।
जिस राज्य के युवा रोजगार की मांग को लेकर 70 से ज्यादा दिनों से अपने घर से दूर खुले आसमान के नीचे, कड़कड़ाती ठंड में धरना देने को मजबूर हैं, उस राज्य की विधानसभा में इस पर भी कोई चर्चा नहीं हुई।
जिस राज्य में हुए यूकेएसएसएससी भर्ती घोटाले और विधानसभा भर्ती घोटाले ने सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार की बजबजाती सड़ांध को उजागर करके रख दिया, उस राज्य के सबसे बड़े सदन में इन घोटालों पर कोई बात नहीं हुई।
यानी जनता के मुद्दों की बात सदन के एजेंडे में थी ही नहीं। बजट पास कराना ही सत्र के आयोजन का एकमात्र उद्देश्य था।
दो दिन में 14 विधेयक बिना किसी चर्चा के ‘ध्वनिमत’ से पारित कर दिए गए।
न कोई सवाल, न कोई जवाब, न कोई चर्चा, न कोई बहस।
विधानसभा सत्र में जनमुद्दों पर कोई चर्चा न होने की ये कुप्रथा उत्तराखंड की दुखद नियति बन कर रह गई है।
उत्तराखंड की कार्य संचालन समिति ने विधानसभा सत्र चलाने के लिए एक वर्ष में कम से कम 60 दिन निर्धारित किए हैं, लेकिन किसी भी साल 15 से 20 दिन भी सत्र नहीं चल पाता है।
साल 2018 में भू-कानून के मुद्दे पर तत्त्कालीन कांग्रेस विधायक मनोज रावत द्वारा उठाए गए गंभीर सवालों और कुछ अन्य छोटे अपवादों को छोड़ दें तो क्या कोई बता सकता है कि 22 बरस की इस यात्रा में कब आखिरी बार किसी मुद्दे पर विधानसभा सत्र में कोई गंभीर चर्चा हुई ?
यहां पर सवाल सिर्फ सत्ता पक्ष पर नहीं बल्कि विपक्ष की भूमिका पर भी उठते हैं।
लेकिन विपक्ष पर चर्चा करने से पहले उन सवालों पर बात करते हैं जो सत्ता और विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूरी की भूमिका से जुड़े हैं।
सबसे पहले स्पीकर महोदया की बात करते हैं, जिनकी दलील है कि बिना बिजनेस के सत्र लंबा खींचना जनता के पैसे की बर्बादी और बेईमानी होती।
स्पीकर महोदया द्वारा कही गई (जनता के पैसे बचाने और बेईमानी न करने के भाव वाली) बात सुनने में किसी को भी अच्छी लग सकती है, लेकिन असलियत में उनकी यह दलील जनता को ठगने वाली है।
क्या स्पीकर महोदया से नहीं पूछा जाना चाहिए कि, जिस जनता के पैसे बचाने की दुहाई हेते हुए उन्होंने सात दिन तक प्रस्तावित सत्र दो दिन में ही निपटा दिया, उस जनता से जुड़े कितने मुद्दों पर सदन में चर्चा हुई ?
दो दिन में बिना बहस 14 विधेयक पास कराना किस दृष्टि से जनहित में माना जाना चाहिए ? जिस जनता के लिए इन 14 विधेयकों को पारित कराया गया, क्या उसे यह नहीं बताया जाना चाहिए था कि इनके जरिए उसे क्या-क्या सौगातें मिलने जा रही हैं ?
क्या स्पीकर महोदया से नहीं पूछा जाना चाहिए कि जब बिजनेस दो दिन में ही निपटा दिया जाना था तो फिर सात दिन के सत्र की अधिसूचना क्यों जारी की गई ? क्या सत्र की अधिसूचना जारी करने से पहले ठोस होमवर्क नहीं किया गया ?
अगर सत्र में बजट पास कराने के साथ-साथ अंकिता भंडारी हत्याकांड पर बात होती, अभी तक वीआईपी गेस्ट के नाम का खुलासा न हो पाने पर सरकार से जवाब मांगा जाता, यूकेएसएसएससी और विधानसभा में हुए भर्ती घोटालों पर तमाम विधायक अपनी राय रखते, कानून व्यवस्था की तार-तार होती स्थिति पर चिंतन मनन कर कुछ समाधान तलाशा जाता, तो क्या इससे जनता के पैसे की बर्बादी हो जाती ?
जनहित से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करने के बजाय सत्र को काम नहीं होने की दुहाई देकर दो दिन में ही स्थगित कर देना जनता के साथ किस तरह की ईमानदारी है ?
वो सवाल हैं जिनके जवाब स्पीकर ऋतु खंडूरी से पूछे जाने चाहिए।
स्पीकर की भूमिका के बाद सरकार की बात करते हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जिस सत्र को सात दिन के लिए प्रस्तावित किया गया था, उसे दो दिन में ही निपटाने के पीछे आखिर कौन सी मजबूरी थी ?
दूसरा अहम सवाल यह कि जिस जनता की ‘भलाई’ के लिए सरकार ने दिन-रात मेहनत कर 14 विधेयक तैयार किए, उन विधेयकों पर सरकार की तरफ से चर्चा क्यों नहीं कराई गई।
तीसरा अहम सवाल, क्या किसी कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी केवल और केवल बजट पास कराना ही है। जनता के मुद्दों पर बहस करने, विपक्ष की बात सुनने और उसके सवालों, आपत्तियों का समाधान करना क्या सरकार की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए ?
जिस तरह के हालातों में इस प्रदेश है, खासकर अंकिता भंड़ारी हत्याकांड को लेकर जिस तरह सरकार की भूमिका पर संदेह जताया जा रहा है, क्या सरकार को नहीं चाहिए था कि सत्र के जरिए सारी स्थितियां जनता तक पहुंचाती ?
इस प्रकरण से जुड़े सवालों का जवाब देने के बजाय सरकार साफ तौर पर भागती नजर आई। यह रवैया किसी सरकार की ईमानदारी और जन सरोकारों पर अपने आप में बड़ा प्रश्न चिन्ह है।
अब विपक्ष की बात करते हैं। सत्र दो दिन में ही खत्म होने पर भले ही विपक्ष अब विलाप- प्रलाप कर रहा है, मगर उसे भी अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए।
आखिर इतने गंभीर मुद्दों के बाद भी सत्र के दौरान विपक्ष के हाथ खाली क्यों दिखे ?
क्या विपक्ष को यह नहीं बताना चाहिए कि आखिर क्यों वह सरकार को जनमुद्दों पर बहस के लिए मजबूर नहीं कर पाया ?
क्या विपक्ष को यह नहीं बताना चाहिए कि बिना उसकी सहमति के सरकार 14 विधेयक बिना किसी चर्चा के ऐसे ही पारित कराने में कामयाब हो गई ?
क्या विपक्ष को यह नहीं बताना चाहिए कि आखिर क्यों उसके सभी विधायक अंकिता भंडारी हत्याकांड को लेकर सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर नहीं कर पाए ?
विपक्ष के कुछ विधायक भले ही सवाल उठाने की बात कर सकते हैं लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि सवाल उठाना एक बात है और सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर करना दूसरी बात।
कुल मिलाकर दो दिन की इस ‘रस्म अदायगी’ ने साफ कर दिया है कि उत्तराखंड में विधानसभा सत्र के आयोजन का एकमात्र उद्देश्य बजट पास कराना है। जनमुद्दों से सत्र का कोई वास्ता नहीं है।
यह भी पढ़ें :धामी जी, प्रेमचंद अग्रवाल को बर्खास्त करने के लिए किस ‘मुहूर्त’ का इंतजार कर रहे हैं ?
Discussion about this post