चारु तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार
सुबह के ‘ब्यांणी तार’ ने अभी विदाई ली थी. सुबह होने में अभी कुछ देर है. हमने भी गांवों में अभी ‘ततवांणी’ मनाई ठहरी. रात को गरम पानी से नहाया ठहरा. रातभर जागरण में हुये. बहुत सारे भजन-गीत गाने वाले हुये इस रात.
सबको बहुत बेसब्री से इंतजार हुआ पौ फटने का.
सर्द रातों के बाद सुबह पूरी घाटी सफेद हो जाने वाली हुई पाले से. पानी जम जाने वाला हुआ. कई जगह तो पानी ‘खांकर’ बन जाने वाला हुआ. नौलों में सुबह ठंडे पानी से नहाने का पुण्य माना जाने वाला हुआ.
जहां नदी हुई उसे गंग नहाना मानने वाले हुये. हमारे लिये सभी जलधारायें गंगा ही होने वाली हुई. फिर जब उत्तरायणी में सुबह नहाना ही हुआ तो इंतजार किसका करने वाले हुये?
हम तो अपने घरों के आस-पास नौलों में नहाने वाले हुये, लेकिन वह तो कई सागर, कई देश, कई गंग, कई शहर-गांव लांघ के आने वाला हुआ. रात से चला होगा. सुबह उसने सबके घर पहुंच जाना हुआ, बागेश्वर से नहाकर आने वाला दुलारा कव्वा.
शायद वह आ गया. या उसे जल्दी आने का आग्रह किया जाने लगा है. गांवों की हर बाखली-घर से सुबह-सुबह बच्चों के सामूहिक स्वर- ‘काले कव्वा काले, घुघुति माला खाले.’ पूरी घाटी जैसे प्रकृति के रंग में रंग गई हो. चारों ओर बच्चों का शोर.
पूरी प्रकृति के साथ दुनिया को आमंत्रित करते उनके गीत. नारे जैसे भी लगने वाले हुये.
पूरी प्रकृति को आत्मसात करती ‘उत्तरैणी’ एक तरह से हमारी चेतना का त्योहार है. प्रकृति और मनुष्य के बीच अन्तर्संबध का त्योहार. सामूहिकता में पिरोई समाजिक संरचना की सामूहिक अभिव्यक्ति का त्योहार. आप सबको ‘उत्तरैणी’ त्योहार की बहुत-बहुत बधाई.
संस्कृति का मतलब ठहराव नहीं, बल्कि यह जितनी प्रवाहमय होगी उतनी समृद्ध होगी. ‘उत्तरायणी’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. ‘मकर संक्राति’ के रूप में ‘उत्तरायणी’ पूरे देश में मनाई जाती है. अलग-अलग प्रान्तों और समाजों में इसके अनेक रूप हैं.
हिमालय और देश की जीवनदायनी नदियों का उद्गम स्थल होने से ‘उत्तरायणी’ देश की सांस्कृतिक समरसता का अद्भुत त्योहार है. असल में यह हमारे लिये चेतना का त्योहार भी है.
भारतीय परंपरा में ‘मकर संक्रान्ति’ को सूर्य के उत्तर दिशा में प्रवेश के रूप में मनाया जाता है. उत्तराखंड में इसे कुमाऊं में ‘उत्तरायणी’ और गढ़वाल में ‘मकरैणी’ कहा जाता है.
पहाड़ में इसे घुगुतिया, पुस्योड़िया, मकरैण, मकरैणी, उतरैणी, उतरैण, घोल्डा, घ्वौला, चुन्या त्यार, खिचड़ी संगंराद आदि नामों से भी जाना जाता है.
इस दिन सूर्य धनुर्राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है, इसलिए इसे ‘मकर संक्रान्ति’ या ‘मकरैण’ कहा जाता है. सौर चक्र में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर चलता है, इसलिये इसे ‘उत्तरैण’ या ‘उत्तरायणी’ कहा जाता है.
‘उत्तरायणी’ जहां हमारे लिये ऋतु का त्योहार है, वहीं यह नदियों के संरक्षण की चेतना का उत्सव भी है. ‘उत्तरायणी’ पर्व पर उत्तराखंड की हर नदी में स्नान करने की मान्यता है. उत्तरकाशी में इस दिन से शुरू होने वाले माघ मेले से लेकर सभी प्रयागों विष्णुप्रयाग, नन्दप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग, सरयू-गोमती के संगम बागेश्वर के अलावा अन्य नदियों में लोग पहली रात जागरण कर सुबह स्नान करते हैं.
असल में उत्तराखंड में हर नदी को मां और गंगा का स्थान प्राप्त है.
कुमाऊं मंडल में ‘उत्तरायणी’ को घुघुतिया त्योहार के रूप में जाना जाता है. उत्तरायणी की पहली रात को लोग जागरण करते हैं. पहले इस जागरण में आंड-कांथ (पहेलियां-लोकोक्तियां), (फसक-फराव) अपने आप गढ़ी बातें) कुछ समासामयिक प्रसंगों पर भी बात होती थी.
रात को ‘तत्वाणी’ (रात को गरम पानी से नहाना) होती है. सुबह ठंडे पानी से नदी या नौलों में नहाने की परंपरा रही है. ‘उत्तरायणी’ की पहली शाम को आटा-गुड़ मिलाकर ‘घुघुते’ बनाने का रिवाज है. आटे के खिलौने, तलवार, डमरू आदि के साथ इन्हें फूल और फलों की माला में पिरोकर बच्चे गले में डालकर आवाज लगाते हुये कव्वों को आमंत्रित करते हैं-
काले कव्वा काले, घुघुती माला खाले.
ले कव्वा बड़, मैंके दिजा सुनौंक घ्वड़.
ले कव्वा ढाल, मैंके दिजा सुनक थाल.
ले कोव्वा पुरी, मैंके दिजा सुनाकि छुरी.
ले कौव्वा तलवार, मैंके दे ठुलो घरबार.
कुमाऊं क्षेत्र में ‘उत्तरायणी’ के संदर्भ में कई पौराणिक कहानियां प्रचलित हैं. एक कहानी चंद राजाओं के समय की है. कहा जाता है कि राजा कल्याण चंद के पुत्र निर्भयचंद का अपहरण राजा के मंत्री ने कर लिया था. निर्भय को लाड़-प्यार से घुघुति कहा जाता था.
मंत्री ने जहां राजकुमार को छुपाया था उसका भेद एक कौवे ने कांव-कांव कर बता दिया. इससे खुश होकर राजा ने कौवों को मीठा खिलाने की परंपरा शुरू की.
एक कहानी यह है कि पुरातन काल में यहां कोई राजा था. उसे ज्योतिषयों ने बताया कि उस पर मारक ग्रहदशा है. यदि वह ‘मकर संक्रान्ति’ के दिन बच्चों के हाथ से कव्वों को घुघुतों (फाख्ता पक्षी) का भोजन कराये तो उसके इस ग्रहयोग के प्रभाव का निराकरण हो जायेगा.
लेकिन राजा अहिंसावादी था. उसने आटे के प्रतीकात्मक घुघुते तलवाकर बच्चों द्वारा कव्वों को खिलाया. तब से यह परंपरा चल पड़ी.
इस तरह की और कहानियां भी हैं. फिलहाल ‘उत्तरायणी’ का एक पक्ष मान्यताओं पर आधारित है.
गढ़वाल में ‘उत्तरायणी’ को ‘मकरैणी’ के नाम से जाना जाता है. उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी, चमोली में ‘मकरैणी’ को उसी रूप में मनाया जाता है, जिस तरह कुमाऊं मंडल में. यहां कई जगह इसे ‘चुन्या त्यार’ भी कहा जाता है.
इस दिन दाल, चावल, झंगोरा आदि सात अनाजों को पीसकर उससे एक विशेष व्यंजन ‘चुन्या’ तैयार किया जाता है. इसी प्रकार इस दिन उड़द की खिचड़ी ब्राह्मणों को दिये जाने और स्वयं खाने को ‘खिचड़ी त्यार’ भी कहा जाता है.
ऐसे भी कुछ क्षेत्र हैं जहां घुघुतों को समान ही आटे के मीठे ‘घोल्डा/घ्वौलों’ (मृगों) के बनाये जाने के कारण इसे ‘घल्डिया’ या ‘घ्वौल’ भी कहा जाता है.
‘उत्तरायणी’ के दिन पौड़ी गढ़वाल जिले एकेश्वर विकासखंड के डाडामंडी, थलनाड़ी आदि जगहों पर ‘गिंदी मेले’ का आयोजन होता है. ‘गिंदी मेलों’ का पहाड़ों में बहुत महत्व है. यह मेला माघ महीने की शुरुआत में कई जगह होता है.
डाडामंडी और थलनाड़ी के ‘गिंदी मेले’ बहुत मशहूर हैं. दूर-दूर से लोग इन मेलों में शामिल होने के लिए आते हैं. मेले में गांव के लोग एक मैदान में दो हिस्सों में बंट जाते हैं. दोनों टीमों के सदस्य एक डंडे की मदद से गेंद को अपनी तरपफ कोशिश करती हैं. एक तरह से यह पहाड़ी हाकी का रूप है. कुमाऊं में इसे ‘गिर’ कहते हैं.
‘उत्तरायणी’ का जहां सांस्कृतिक महत्व है, वहीं यह हमारी चेतना और संकल्पों को मजबूत करने वाला त्योहार भी है. परंपरागत रूप से मनाई जाने वाली ‘उत्तरायणी’ स्वतंत्राता आंदोलन के समय जन चेतना की अलख जगाने लगी.
आजादी की लड़ाई के दौर में जब 1916 में कुमाऊं परिषद बनी तो आजादी के आंदोलन में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ. अपनी समस्याओं के समाधान के लिये स्थानीय स्तर पर जो लोग लड़ रहे थे उन्हें लगा कि आजादी ही हमारी समस्याओं का समाधान है. इसलिये बड़ी संख्या में लोग संगठित होकर कुमाऊं परिषद के साथ जुड़ने लगे.
अंग्रेजी शासन में ‘कुली बेगार’ की प्रथा बहुत कष्टकारी थी. अंग्रेज जहां से गुजरते किसी भी पहाड़ी को अपना ‘कुली’ बना लेते. उसके एवज में उसे पगार भी नहीं दी जाती.
अंग्रेजों ने इसे स्थानीय जनता के मानसिक और शारीरिक शोषण का हथियार बना लिया था. इसके खिलाफ प्रतिकार की आवाजें उठने लगी थी. धीरे-धीरे इस प्रतिकार ने संगठित रूप लेना शुरू किया.
कुमाऊं केसरी बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में 13 जनवरी, 1921 को बागेश्वर के ‘उत्तरायणी’ मेले में हजारों लोग इकट्ठा हुये. सबने सरयू-गोमती नदी के संगम का जल उठाकर संकल्प लिया कि ‘हम कुली बेगार नहीं देंगे.’
कमिश्नर डायबिल बड़ी फौज के साथ वहां पहुंचा था. वह आंदोलनकारियों पर गोली चलाना चाहता था, लेकिन जब उसे अंदाजा हुआ कि अधिकतर थोकदार और मालगुजार आंदोलनकारियों के प्रभाव में हैं तो वह चेतावनी तक नहीं दे पाया. इस प्रकार एक बड़ा आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हो गया.
हजारों लोगों ने ‘कुली रजिस्टर’ सरयू में डाल दिये. इस आंदोलन के सूत्रधारों में बद्रीदत्त पांडे, हरगोविन्द पंत, मोहन मेहता, चिरंजीलाल, विक्टर मोहन जोशी आदि महत्वपूर्ण थे.
बागेश्वर से कुली बेगार के खिलाफ आंदोलन पूरे पहाड़ में फैला. 30 जनवरी 1921 को चमेठाखाल (गढ़वाल) में वैरिस्टर मुकन्दीलाल के नेतृत्व में यह आदोलन बढ़ा. खल्द्वारी के ईश्वरीदत्त ध्यानी और बंदखणी के मंगतराम खंतवाल ने मालगुजारी से त्यागपत्र दिया.
गढ़वाल में दशजूला पट्टी के ककोड़ाखाल (गोचर से पोखरी पैदल मार्ग) नामक स्थान पर गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में आंदोलन हुआ और अधिकारियों को कुली नहीं मिले.
बाद में इलाहाबाद में अध्ययनरत गढ़वाल के छात्रों ने अपने गांव लौटकर आंदोलन को आगे बढ़ाया. इनमें भैरवदत्त धूलिया, भोलादत्त चंदोला, जीवानन्द बडोला, आदि प्रमुख थे.
उत्तरायणी का ही संकल्प था कि पहली बार यहां की महिलाओं ने अपनी देहरी लांघकर आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी करना शुरू किया. कुन्तीदेवी, बिसनी साह जैसी महिलायें ओदालनों का नेतृत्व करने लगी. गीत भी बनने लगे-
अपना गुलामी से नाम कटा दो बलम,
तुम स्वदेशी नाम लिखा दो बलम.
मैं भी स्वदेशी प्रचार करूंगी,
मोहे परदे से अब तो हटा दो बलम.
यह एक बड़ी चेतना का आगाज था, जिसने बाद में महिलाओं को सामाजिक जीवन में आगे आने का आकाश दिया. बिशनी साह ने कहा- ‘सोने के पिंजरे में रहने से अच्छा, जंगल में रहना है.’ एक गीत बड़ा लोकप्रिय हुआ-
‘घाघरे गुनी, बाजरक र्वट,
सरकारक उजड़न ऐगो,
डबल में पड़गो ट्वट..
‘उत्तरायणी’ आजादी के बाद भी आंदोलनों में हमारा मार्गदर्शन करती रही है. बागेश्वर के सरयू-गोमती बगड़ में तब से लगातार चेतना के स्वर उठते रहे हैं.
आजादी के बाद सत्तर के दशक में जब जंगलात कानून के खिलाफ आंदोलन चला तो आंदोलनकारियों ने उत्तरायणी के अवसर पर यहीं से संकल्प लिये. आंदोलनों के नये जनगीतों का आगाज हुआ- ‘आज हिमाला तुमन क ध्यतौंछ, जागो-जागो ये मेरा लाल.’
अस्सी के दशक में जब नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन’ चला तो इसी ‘उत्तरायणी’ से आंदोलन के स्वर मुखर हुये. 1987 में भ्रष्टचार के खिलाफ जब भवदेव नैनवाल ने भ्रष्टाचार के प्रतीक ‘कनकटै बैल’ को प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने पेश करने के लिये दिल्ली रवाना किया तो बागेश्वर से ही संकल्प लिया गया.
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के शुरुआती दौर में राज्य आंदोलन के लिये हर वर्ष नई चेतना के लिये आंदोलनकारी बागेश्वर के ‘उत्तरायणी’ मेले में आये.
उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण बनाने के लिये संकल्प-पत्र और वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम पर गैरसैंण का नाम ‘चन्द्रनगर’ रखने का प्रस्ताव भी 1992 में यहीं से पास हुआ.
तभी जनकवि ‘गिर्दा’ ने उत्तराखंड आंदोलन को स्वर देते हुये कहा कि- ‘उत्तरैणी कौतिक ऐगो, वैं फैसाल करूंलों, उत्तराखंड ल्हयूंल हो दाज्यू उत्तराखंड ल्हयूंलो.’
जनवरी 1921 से आज तक सरयू-गोमती के संगम में ‘उत्तरायणी’ के अवसर पर जन चेतना के लिये राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों का जमावड़ा रहता है. इसलिये ‘उत्तरायणी’ हमारे लिये चेतना का त्योहार भी है.
‘उत्तरायणी’ न केवल हमारी सांस्कृतिक थाती है, बल्कि हमारे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और समसामयिक सवालों को समझने और उनसे लड़ने की प्रेरणा भी है.
जब हम ‘उत्तरायणी’ को मनाते हैं तो हमारे सामने संकल्पों की एक लंबी यात्रा के साथ चलने की प्रेरणा भी होती है. उत्तराखंड के बहुत सारे सवाल राज्य बनने के इन उन्नीस वर्षो बाद भी हमें बेचैन कर रहे हैं. यह बेचैनी अगर इस बार की ‘उत्तरायणी’ तोड़ती है तो हम समझेंगे कि हमारी चेतना यात्रा सही दिशा में जा रही है.
आप सब लोगों को ‘उत्तरायणी’ की बहुत सारी शुभकामनायें. इस आशा के साथ कि ‘उत्तरायणी’ का यह पर्व आप सबके लिये नये संकल्पों का हो. ऐसे संकल्प जो मानवता के काम आये.
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