जब भी हम इतिहास के पन्नों को खोलते हैं, उन्हें समझने की कोशिश करते हैं, एक कालखंड के संघर्षो को जानने की इच्छा रखते हैं, हमारा कई ऐसी विभूतियों से साक्षात्कार होता है, जिन्होंने अपनी अगली पीढि़यों के लिये संघर्षो में तपकर बेहतरी का रास्ता निकालने की कोशिश की.
इतिहास में इनका नाम उस तरह से आ नहीं पाता जिसके वे हकदार हैं. कई बार तो उन्हें भुला ही दिया जाता है. कुछ याद रहते भी हैं तो उनके काम को उस तरह से आंका नहीं जाता. समाज के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले दूसरों की आभा में खो जाते हैं.
आजादी के आंदोलन के दौर में उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों से उठने वाली प्रतिकार की आवाजों में बहुत सारे लोग ऐसे थे, जिन्होंने अपने अच्छे-खासे व्यवसाय और अच्छी-खासी जिंदगी को दांव पर लगाकर आजादी के आंदोलन की राह पकड़ी.
गांव के साधारण समझे जाने वाले इन लोगों ने जिस तरह के असाधारण काम किये, हर युग में लोगों की प्रेरणा बन सकते हैं. उनसे सीखा जा सकता है.
पौड़ी जनपद की पट्टी उदयपुर वल्ला ऐसा क्षेत्र है जहां आजादी के आंदोलन में बड़ी संख्या में युवाओं ने भागीदारी की. उनमें एक महत्वपूर्ण नाम है छवाण सिंह नेगी का.
आजादी के आंदोलन में अपना पूरा जीवन लगा देने वाले छवाण सिंह नेगी का 11 जुलाई, 1949 को निधन हो गया था. हम उन्हें कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं.
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी छवाण सिंह नेगी का जन्म पौड़ी जनपद के उदयपुर वल्ला पट्टी के कोलसी गांव में 1899 में हुआ था. उनके पिता का नाम देव सिंह नेगी था. वे सेना में हवलदार थे.
उस समय आर्थिक रूप से सैनिक परिवारों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं होती थी. इनका परिवार भी बहुत साधारण स्थिति में था. घर की आर्थिक हालात बहुत अच्छी नहीं थी.
इसके कारण वे अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाये. वे कक्षा छह तक ही पढ़ाई कर पाये. लेकिन अपने अनुभव से सीखते रहे.
उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया. जंगलात के ठेकेदारों के नीचे छोटे-मोटे काम करने शुरू किये. उनके अन्दर सामूहिकता की भावना पहले से ही थी. यहीं वजह थी कि उन्होंने अपना व्यवसाय भी सहकारिता के आधार पर चलाया.
जंगलता के ठेकरादों से काम लेते और ग्रामवासियों के साथ मिलकर काम करते. जो मजूदरी मिलती उसे आपस में बांट लेते थे. बाद में गांव में ही दुकान खोल ली. दुकान चलने लगी तो उन्होंने गंगा सलाण की व्यापारिक मंडी लालढांग में दुकान खोली.
यहां पर कुटाई, पिसाई और तेल का भी काम किया. इसके बाद खनखल में भी दूध का व्यापार किया. अपनी व्यवहार कुशलता, मेहनत, ईमानदारी से उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत किया.
छवाण सिंह में समाज सेवा का भाव प्रारंभ से ही था. वे किसी न किसी रूप में समाज और अपने आसपास के लोगों की मदद करते रहते थे.
गढ़वाल में 1916-17 में अकाल पड़ा. उस समय जाने-माने समाज सुधारक श्रद्धानन्द जी अकाल पीडि़तों की सहायता के लिये गढ़वाल में आये. छवाण सिंह उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुये.
चूंकि उस समय श्रद्धानंन्द जी हरिद्वार में ‘गुरुकुल कांगड़ी’ जैसी संस्था बना चुके थे इससे छवाण सिंह जैसे लोगों को अपने को सामाजिक जीवन में तराशने का मौका भी मिला.
यहीं से सामाजिक जीवन का नया सफर शुरू हुआ. जनता की जरूरतों को समझना और उनके लिये सुविधायें उपलब्ध कराने के रास्ते निकलने लगे.
उन दिनों जाखणीखाल क्षेत्र में पानी की दिक्कत थी. उन्होंने घर-घर जाकर चंदा किया और दो मील दूर से पानी के पाइप लगाकर गांव में पानी की व्यवस्था कराई.
गढ़वाल के जाने-माने नेता चन्द्रमोहन नेगी 1928 में इस क्षेत्र के आठ गांवों को मिलाकर ग्राम सुधार के काम के लिये ‘अष्ठ ग्राम भ्रातृ मंडल’ की स्थापना में लगे थे.
छवाण सिंह ने उन्हें सबसे ज्यादा योगदान दिया. इस पहल से इस क्षेत्र में एक नर्इ सामाजिक चेतना का संचार हुआ.
यह 1930 का वह दौर था जब देश में आजादी के लिये महात्मा गांधी ने ‘सत्याग्रह आंदोलन’ की घोषणा कर दी थी.
छवाण सिंह के जीवन में राजनीतिक और भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल होने की उत्कंठा जागी.
वे ‘सत्याग्रह आंदोलन’ में शामिल हो गये. उन्होंने क्षेत्र में शराब की भट्टी के खिलाफ अपनी मुहिम शुरू कर दी. उनके नेतृत्व में ताल में स्थित शराब भट्टी के खिलाफ सफल आंदोलन किया गया. इसका असर पूरे जिले में हुआ. इस सिलसिले में जंगमोहन नेगी के साथ उन्हें भी यमकेश्वर में गिरफ्तार कर लिया गया.
उन्हें छह महीने का कारावास हुआ. इसके बाद वे कांग्रेस में शामिल हो गये और पूरी तरह आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये.
जब गांधीजी ने भारत छोड़ो आंदोलन का नारा दिया तो युवाओं की एक बड़ी जमात इसमें शामिल हुई. आंदोलनकारी भी नये तेवरों के साथ सड़कों पर आने लगे.
छावण सिंह के नेतृत्व में कुछ कार्यकर्ताओं ने लैंसडाउन की अदालतों और खजाने पर कब्जा करने की योजना बनाई.
उनकी इस योजना का पता अंग्रेज प्रशासन को चल गया. उन्हें यहां से फरार होना पड़ा और दिल्ली में पकड़े गये. उन्हें लंबी सजा हुई और 1945 में जेल से रिहा हुये.
इसके बाद वे कांग्रेस संगठन के काम में जुट गये. सितंबर, 1948 में जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने और जीवनपर्यन्त इस पद पर रहे.
छवाण सिंह पर आर्य समाज का गहरा प्रभाव था. उन दिनों आर्य समाज समाज सेवा और अछूतोद्धार के लिये काम करती थी. शिल्पकारों की सामाजिक बराबरी के आंदोलन में भी उनकी हिस्सेदारी रही.
उन्होंने उस दौर में चले ‘डोली-पालकी’ आंदोलन का समर्थन किया. शिल्पकारों को समर्थन देने के कारण सवर्णों ने उनका बहिष्कार किया. लोगों ने उनकी दुकान से सामान लेना भी बंद कर दिया. एक बारात में तो उन पर पत्थर भी फैंके गये. लेकिन यह आंदोलन आगे बढ़ता गया. बाद में सवर्ण लोगों ने शिल्पकारों के अधिकारों को मान लिया.
शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान अविस्मरणीय है. उन्होंने भगडू (भृगुखाल) में ‘श्रद्धानंद विद्यालय’ की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
इस क्षेत्र में 1916 में एक विद्यालय की स्थापना हुई थी, लेकिन कुछ समय बाद वह बंद हो गया. छवाण सिंह के प्रयासों से 1938 में यह फिर प्रारंभ हुई
कई कारणों से 1942 में यह विद्यालय फिर बंद हो गया. आजादी मिलने के बाद फिर 1947 में यह विद्यालय संचालित हुआ. छवाण सिंह का अपने क्षेत्र में व्यापक प्रभाव था. लोग उनकी बातें सुनते और मानते थे.
एक निर्भीक व्यक्ति के तौर पर भी जहां विरोधी उनसे डरते थे, वहीं उनकी सत्यता, समर्पण और समाज के प्रति प्रतिबद्धता से उनका सम्मान भी करते थे.
वे 1936 से 1948 तक जिला बोर्ड के सदस्य रहे. उनके घर के दरवाजे कांग्रेज कार्यकर्ताओं के लिये हमेशा खुले रहते थे.
उन्होंने लोगों को स्वरोजगार से जोड़ने के लिये भी प्रयास किये. उन्होंने अपने पैसे खर्च कर लोगों को कताई-बुनाई सिखाने के लिये हजारों रुपये खर्च किये. 11 जुलाई, 1949 को लालढांग में उनका निधन हो गया.
संदर्भः
1. गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां, भक्तदर्शन.
2. सरफरोशी की तमन्नाः उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम का दृश्य इतिहास, संपादकः शेखर पाठक
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