कोरोना की इस वैश्विक महामारी में लाखों मौतों के बाद लोगों को प्राण वायु ऑक्सीजन की अहमियत पता चल रही है.
इस महासंकट में जिन अभागों को समय से और समुचित ढंग से प्राण वायु नहीं मिली वे जल बिन मछली की तरह परलोक सिधार गए और जिन्हें समय से और आवश्यकतानुरूप यह प्राणवायु उपलब्ध हो गई उनका जीवन बच गया.
दरअसल, आदमी भोजन के बिना कई दिन तक और पानी के बिना तीन दिन तक जीवित रह सकता है, मगर ऑक्सीजन के बिना तीन मिनट तक ही मुश्किल से जीवित रह सकता है.
जीवित रहने के लिए अत्यंत जरूरी इस प्राणवायु का सबसे बड़ा स्रोत पेड़ है, जो कि हमें न केवल भोजन और छाया देता है बल्कि ऑक्सीजन भी देता है, इसलिए जरूरी है कि हम ऑक्सीजन की कमी को पूरा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पेड़ पौधे लगाएं और जो हरियाली बची खुची है उसके संरक्षण पर अधिकाधिक ध्यान दें.
इसके साथ ही प्रकृति को कूड़ाघर न बनाएं और वस्तुओं के रिसाइकिल पर ध्यान दें.
लॉकडाउन में हिमालय के दर्शन
कोरोना महामारी से मानवता को निश्चित ही भारी क्षति हुई है, मगर मानव गतिविधियों पर नियंत्रण से इसका पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है.
महामारी की दूसरी लहर के लॉकडाउन काल में मई के पहले सप्ताह सहारनपुर से हिमालय के दिव्य दर्शन की सुखद खबर आई तो पिछले साल के लॉकडाउन की यादें ताजा हो गईं.
कोविड-19 की पहली लहर में चार चरणों में सम्पन्न 68 दिनों के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण प्रदूषण घटा तो सहारनपुर और मुजफ्फरनगर ही नहीं बल्कि अप्रैल 2020 में पंजाब के शहरों से हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियां साफ दिखाने देने लगी थीं.
खासतौर पर जालंधर में यह कौतूहल का विषय बन गया था. धुंध और धूल के कारण सामान्यतः देहरादून के लोग दिन के समय मसूरी नहीं देख पाते.
सहारनपुर से हिमालय करीब 300 किलोमीटर और शिवालिक क्षेत्र करीब 60 किलोमीटर दूर है.
बुजुर्गों का कहना था कि 35 साल पहले तक हर शाम ऐसे नजारे सहारनपुर से दिखते थे.
मानवीय हस्तक्षेप रुका तो खिल उठे जंगल
लॉकडाउन के चलते ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम हुआ है. प्रदूषण स्तर कम होने से हवा साफ हो गई और पर्यावरण में हरियाली छा गई.
इस दौरान यद्यपि गंगा में बहते सेकड़ों शवों ने मानवता को अवश्य ही झकझोरा, मगर कुल मिला कर गंगा और यमुना के पानी की गुणवत्ता में सुधार भी आया.
साथ ही कल कारखाने से निकलने वाला खराब अवशेष भी नदियों में कम गया.
लॉकडाउन के दौरान इस बार भी वन्य जीव उन्मुक्त होकर जंगल में पहले की भांति विचरण करते मिले.
पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, वनस्पतियां आदि सब अपने अस्तित्व के लिए आपस में न केवल एक-दूसरे पर निर्भर हैं बल्कि इनकी एक संतुलित मात्रा भी भविष्य के लिए अति आवश्यक है.
यह बदलाव प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ रोकने से ही संभव हुआ.
260 पौंड ऑक्सीजन पैदा करता है एक वृक्ष
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में प्रति वर्ष 46 लाख लोग वायु प्रदूषण से मरते हैं.
वास्तव में देश का वायु गुणवत्ता सूचकांक भी जितनी जोर से खतरे की घण्टी बजा रहा है, उसका मुकाबला करने के लिये कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों को सोखने वाला देश का वनावरण उस गति से नहीं बढ़ पा रहा है.
वैज्ञानिक अनुसंधानों से स्पष्ट हो चुका है कि एक सामान्य चैड़ी पत्ती वाला वृक्ष एक साल में औसतन 260 पौंड तक ऑक्सीजन का उत्पादन कर सकता है और एक एकड़ में लगे ऐसे ही पौढ़ वृक्ष साल में 2.6 टन कार्बनडाइऑक्साइड का शोषण कर उसे समाप्त करते हैं.
इसी को वनों का कार्बन स्टॉक या कार्बन सोखने की क्षमता कहा जाता है.
वर्ष 2015 के पेरिस समझौते के तहत हमें 2030 तक इस क्षमता में 2.5 से लेकर 3 अरब टन तक बुद्धि करनी है.
वन सर्वेक्षण विभाग की वन स्थिति रिपोर्ट 2019 के अनुसार देश के वनों की कार्बन स्टॉक क्षमता 7,124.6 मिलियन टन है लेकिन जिस गति से वृद्धि हो रही है उससे 2030 का लक्ष्य काफी दूर है.
यही नहीं वृक्षों की पत्तियों से होने वाले वास्पीकरण से वातावरण का तापमान भी कम होता है. ऑक्सीजन का उत्पादन वृक्ष के आकार और प्रकार पर निर्भर करता है.
जितना विशाल और पौढ़ वृक्ष होगा उससे उतना ही अधिक ऑक्सीजन मिलेगा, इसीलिए हमारे देश में पीपल और बट वृक्ष जैसे विशालकाय वृक्ष लगाए जाते थे और उनके संरक्षण के लिये उनकी पूजा की जाती थी.
अब भी हर मांगलिक कार्य में पूजा के लिये आम और पीपल की पत्तियों काम आती हैं.
निरन्तर घट रहे हैं सघन वन
संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 1901 से लेकर 1950 तक भारत में 14 मिलियन हैक्टेयर, याने कि 1 करोड़ 40 लाख हैक्टेअर भूमि पर से वनों का नामोनिशान मिट गया था.
उसके बाद 1950 से लेकर 1980 तक वन क्षेत्र में 75.8 मिलियन हैक्टेयर की गिरावट आई.
विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 1972 से 1978 के बीच भारत में वनावरण 17.19 प्रतिशत था. इस प्रकार हर दो साल बाद आने वाली इन रिर्पोटों में वनावरण में निरन्तर वृद्धि तो नजर आती है मगर जब इन रिपोर्टों को गौर से देखा जाता है तो इनमें जंगलों की हकीकत खुल आती है.
अगर 1999 की रिपोर्ट में देश में अत्यंत सघन वन 11.48 प्रतिशत दिखाए गए थे. जबकि 2019 तक पहुंचते-पहुंचते ऐसे अत्यंत सघन जंगल सिकुड़ कर 3.02 प्रतिशत ही रह गए.
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग द्वारा 1987 से लेकर अब 16 द्विवार्षिक वन स्थिति रिपोर्ट जारी की जा चुकी हैं जिनमें हर बार वनावरण में इजाफा ही नजर आता है.
वर्ष 2019 की रिपोर्ट में भी वन और वृक्षो के आवरण में 5188 वर्ग किमी की वृद्धि के साथ 24.56 प्रतिशत दर्शायी गई है. जबकि देश का वास्तविक वनावरण अभी 21.67 ही है.
इसमें भी चिन्ता का विषय यह है कि सरकार द्वारा कानूनन संरक्षित वन क्षेत्र में 70 प्रतिशत से अधिक वृक्ष छत्र वाले अति सघन वनावरण में 330 वर्ग किमी की कमी आ गई है.
यही अति सघन वन कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों को सर्वाधिक सोखते हैं.
यही नहीं दो साल के अंदर उत्तर पूर्व में अति सघन वनावरण 765 वर्ग किमी घट गया है.
संभवतः इसी आंकड़ेबाजी की प्रवृत्ति को भांप कर ही वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को सलाहकार समिति ने वनावरण एवं वृक्षावरण के अलग-अलग सर्वे करने का सुझाव दिया था.
हॉटस्पॉट्स को लगा क्षय रोग
पूर्वोत्तर जैव विविधता की दृष्टि से विश्व के गिने चुने हॉटस्पॉट्स में गिना जाता है और वहीं निरन्तर वनावरण घट रहा है.
रिपोर्ट के अनुसार अरुणाचल में 276 वर्ग किमी, मणिपुर में 499 वर्ग किमी, मेघालय 27 वर्ग किमी, मीजोरम 180 वर्ग किमी, नागालैण्ड वर्ग किमी 3 और सिक्किम में 2 वर्ग किमी वनावरण घट गया है.
अगर वर्ष 1999 की वन स्थिति रिपोर्ट से तुलना करें तो इस क्षेत्र में अब तक 1014 वर्ग किमी अति सघन वनावरण गायब हो गया है.
इसी प्रकार आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भी 741 वर्ग किमी वनावरण की कमी पाई गई है.
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