जयसिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार
कर्नाटक के तुमकुर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत एवं कृषि मंत्री सुबोध उनियाल को कृषि के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिये ‘कृषि कर्मण पुरस्कार’ दिया जाना राज्य वासियों के गले नहीं उतर रहा है.
कारण यह कि राज्य में खेती का रकबा बहुत तेजी से घटने के साथ ही लोगों की खेती बाड़ी के प्रति बढ़ती अरुचि के कारण कास्तकारों की संख्या में भारी गिरावट और बड़ी संख्या में कृषि भूमि का बंजर हो जाना है.
ऊपर से त्रिवेन्द्र सरकार ने भू-कानून में संशोधन कर कृषि भूमि पर अकृषि कार्यों की छूट देने के साथ ही बाहरी धन्ना सेठों को पहाड़ के गरीब किसानों की जमीनों की लूट की खुली छूट दे दी है.
सरकार की मंशा पहाड़ों पर खाद्यान्न की जगह भांग उगाने की भी है.
फरवरी 2019 में जारी राज्य सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011-12 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का जो योगदान 14 प्रतिशत था वह त्रिवेन्द्र सरकार के कार्यकाल के 2017-18 में घट कर 10.50 प्रतिशत रह गया है.
प्राथमिक कृषि क्षेत्र के अन्तर्गत वर्ष 2011-12 में क्रॉप सेक्टर की हिस्सेदारी 7.05 प्रतिशत थी जो कि अब घट कर 4.56 प्रतिशत रह गयी है.
सरकारी रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि कृषि और सहवर्गीय क्षेत्र के लिये राज्य सरकार बजट आबंटन में भारी कंजूसी कर रही है.
वर्ष 2004-05 से लेकर त्रिवेन्द्र सरकार के 2017 में सत्ता में आने तक बजट आवंटन कुल बजट का 2.65 प्रतिशत से लेकर 4.00 प्रतिशत तक होता था लेकिन त्रिवेन्द्र सरकार के कार्यकाल में जीएसडीपी में कृषि बजट का योगदान 0.4 से लेकर 1.04 तक ही रह गया है.
जो बजट तय होता है वह भी पूरी तरह कृषि पर खर्च नहीं होता है. मसलन खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिये 2017-18 में सरकार ने 3964.58 लाख का प्रावधान किया, मगर उसमें से केवल 2964.54 लाख रुपये ही जारी किये.
सवाल उठ रहा है कि अगर राज्य सरकार ने कृषि पर ध्यान दिया होता तो पहाड़ के किसान लाखों की संख्या में अपनी जमीनें छोड़ कर मैदान में नहीं आते.
सर्वेक्षण रिपोर्ट पर ही गौर करें तो कुछ ही वर्षों में कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेअर से घट कर 6.98 लाख हेक्टेअर रह गया है. आज की तारीख में 73.65 प्रतिशत जोतें 0.44 हेक्टेअर औसत आकार की हैं जो कि भूसुधारों पर ध्यान न देने और सिंचाई आदि सुविधाओं के अभाव के कारण अनुपजाऊ हैं.
बंजर और परित्यक्त खेतों में रबी या खरीफ की फसलों की जगह झाड़ियां और जंगल उग आये हैं.
बंजर खेतों में झाड़ियां और जंगल उगने से बंदर, भालू और गुलदार जैसे वन्य जीवों ने वहां बचे खुचे लोगों का जीना दूभर कर दिया.
2010-11 की कृषि गणना के अनुसार राज्य में 9.12 लाख जोतें थीं. लेकिन त्रिवेन्द्र सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के लिये जो डाटा तैयार किया है उसमें 8.38 लाख किसान या जोतें ही दिखाई गयी हैं. उन किसानों में से भी केवल 6.84 लाख किसान ही सम्मान निधि लेने पहुंचे.
अब सरकार को भी बाकी 1.54 लाख किसान ढूंडने से भी नहीं मिल रहे हैं. जाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में किसान अपनी जमीन और खेती छोड़ कर पलायन कर गये है.
राज्य का 84.37 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी और 15.63 प्रतिशत हिस्सा मैदानी है. इस छोटे से मैदानी भू-भाग पर प्रदेश की 52 प्रतिशत जनसंख्या का दबाव पड़ रहा है. इसलिये देहरादून के जैसे विश्व प्रसिद्ध बासमती के खेतों में कंकरीट-ईंट के जंगल उग आये हैं.
त्रिवेन्द्र सरकार 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की घोषणा तो कर रही है, मगर किसानों की सिंचाई, बीज और खाद जैसी जरूरतों पर ध्यान नहीं दे रही.
पहाड़ के मात्र 13 प्रतिशत खेतों को ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध है और बाकी खेती आसमान के भरोसे है. जबकि मैदानी क्षेत्रों में यह सुविधा 94 प्रतिशत तक पहुंच गयी है.
पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान जो गूलें बनीं थीं वे क्षतिग्रस्त हो गयी हैं और राज्य के सिंचाई मंत्री सतपाल महाराज कहते हैं कि राज्य सरकार के पास गूलों की मरम्मत के लिये बजट का प्रावधान ही नहीं होता है.
त्रिवेन्द्र रावत ने 2017 में सत्ता में आने के बाद पहाड़ की खेती में सुधार के लिये भूबन्दोबस्त करने तथा भूमि सुधार की दिशा में अपने गांव खैरासैण, पौड़ी गढ़वाल से चकबंदी कराने की घोषणा की थी जो कि अन्य घोषणाओं की तरह हवाई साबित हुयी.
भूमि सुधार करना तो रहा दूर त्रिवेन्द्र सरकार ने जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम में संशोधन से भू-उपयोग परिवर्तन में छूट देकर पहाड़ी किसानों की जमीन धन्ना सेठों के हाथों अकृषि कार्यों के लिये लुटवाने का रास्ता खोल दिया.
यही नहीं अब सरकार अन्न पैदा करने वाले पहाड़ के खेतों में भांग उगाने की योजना के तहत बाहर के लोगों को उन खोतों को हथियाने के लिये प्रोत्साहित कर रही है.
इन परिस्थितियों में किसानों की आय दो साल में दोगुनी करने की घोषणा करना शेख चिल्ली को भी मात देने जैसा ही है.
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