आनिस मुईन का शेर है- ‘इस बार हूँ दुश्मन की रसाई से बहुत दूर, इस बार मगर जख्म लगाएगा कोई और.’
प्रचंड बहुमत की सरकार, जिसकी वजह से उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को को कुछ लोगों ने खैरासैंण का सूरज करार दे दिया था, एक दिन ढह जाएगी किसे यकीन था.
भले ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा हो कि उनके हटने के सवाल का जवाब जानने के लिए मीडिया को दिल्ली जाना होगा, और इस तरह हटने की वजह के पीछे केंद्रीय नेतृत्व की ओर इशारा किया हो मगर सत्ता के सियासी गलियारों में फुसफुसाहट में ही सही वे सारी वजहें तैर रही हैं जो कहती हैं कि जो कुछ समय पहले तक नामुमकिन सा लगता था वह आखिर मुमकिन कैसे हो गया.
जब दुश्मन यानी विपक्ष बहुत कमजोर हो तो कुछ अपने कारण ही त्रिवेंद्र सरकार पर बोझ बन गए.
सबसे बड़ी वजह 2022 के चुनाव
प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की सबसे बड़ी वजह 2022 के विधानसभा चुनाव माने जा रहे हैं. भाजपा किसी भी तरह से चुनाव जीतना चाहती है और एंटी इनकंबेंसी खत्म करने के लिए लगभग वही दांव खेल रही है जो 2012 में खेला गया था.
जब निशंक को हटाकर खंडूड़ी को सीएम बनाया गया था. सूत्रों की मानें तो कोर ग्रुप की बैठक में पर्यवेक्षक रमन सिंह ने रिपोर्ट दी थी कि सीएम अलोकप्रिय हो गए हैं. विधायक उनसे असंतुष्ट हैं और उनके नेतृत्व में चुनाव जीता नहीं जा सकता.
संभवतः यही रिपोर्ट बदलाव का आधार बनी. 2012 में नेतृत्व परिवर्तन के दांव में भाजपा को काफी कामयाबी भी मिली थी और वह कांग्रेस से केवल एक सीट पीछे रह गई थी.
वह तो भुवन चंद्र खंडूड़ी ने नैतिक हार मानते हुए सरकार बनाने की संभावनाओं को खत्म कर दिया. तब भाजपा में मोदी-शाह युग भी नहीं आया था वरना पार्टी सरकार बना ले जाती.
क्या चुनाव से पहले हाईकमान ने कोर वोटर खो जाने का खतरा भांप लिया था ?
माना जाता है कि देवस्थानम बोर्ड के गठन से मंदिर के पुजारी अन्य पंडा समाज वो इनसे काफ़ी ज्यादा नाराज़ था. यह भाजपा का कोर वोटर है. भाजपा के सांसद सुब्रमण्यम स्वामी इस मामले को कोर्ट में लेकर गए.
रैणी-तपोवन आपदा के बाद राहत और बचाव कार्यों को लेकर उठ रहे सवालों के अलावा गैरसैंण विधानसभा सत्र के दौरान घाट-नंद प्रयाग सड़क चौड़ीकरण को लेकर कई माह से आंदोलनरत लोगों पर विधानसभा सत्र के दौरान जिस तरह लाठीचार्ज हुआ और उसके बाद आंदोलनकारियों के बारे में जैसा कुप्रचार किया गया वह प्रदेश के लिए विस्मयकारी था.
पहाड़ मे संभवतः यह पहली घटना थी. यह सब तब हुआ जब घाट क्षेत्र की बदौलत भाजपा थराली विधानसभा उपचुनाव जीती थी. संभवतः इस घटना ने भी नेतृत्व बदलाव के आग में घी का काम किया.
इतना ही नहीं एक खास जाति के लोगों को प्रश्रय, स्वभाव में मिलनसारता की कमी , अक्षम खुशामदी, सही राय न देने वाली वाली किचन कैबिनेट भी धीरे-धीरे लोगों को उनसे दूर कर रही थी.
अक्खड़पन, गुस्से पर काबू करने में नाकामी भी शायद दिक्कत पेश कर रही थी. कुर्सी पर बैठने के कुछ समय बाद ही उत्तरा पंत प्रकरण इसकी मिसाल पेश कर गया था.
भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के दावों पर अपनों के सवाल, झारखंड किसान आयोग प्रकरण में सीबीआई जांच जैसे मामले भी शायद छवि पर असर डाल रहे थे.
दिल्ली की मनमानी, लोकतांत्रिक तरीके से नेता न चुना जाना
राष्ट्रीय दलों यानी दिल्ली से संचालित होने वाली सभी पार्टियों की दिक्कत है कि जब भी मुख्यमंत्री चुनना होता है तो ताले में बंद कुर्सी चाबी दिल्ली में होती है.
दिल्ली अपनी मर्जी प्रदेश पर थोपती है. नेता चुनने के नाम पर विधायक दल की जो बैठक होती है उसमें विधायकों को केवल हां करना होता है.
कांग्रेस हो या भाजपा दोनो में यही होता आया है. इस वजह से बहुमत का सम्मान न होने से अंसतोष बना रहता है.
आलाकमान की शह पाकर प्रदेश का नेतृत्व भी बहुमत की राय की अनदेखी करता है, खुद को राजा समझने लगता है.
यही अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति कभी बगावत या दूसरे रूप में अस्थिरता की वजह बनती है.
क्या विधायकों को धमकी और आप के दावे ने किया काम ?
तो क्या असंतुष्ट विधायकों की धमकी व आम आदमी पार्टी के कई भाजपा विधायकों के उनके संपर्क में होने के दावे ने काम किया ? कई विधायक केंद्रीय नेतृत्व को दिल्ली जाकर कई बार अपना दुखड़ा रो चुके थे.
अपुष्ट सूत्रों का कहना है कि जब केंद्रीय नेतृत्व ने इन असंतुष्टों की नहीं सुनी तो हाल में गैरसैंण में संपन्न बजट सत्र के दौरान करीब तीन दर्जन विधायकों ने यह चेतावनी तक दे डाली कि वे विनियोग विधेयक के विरोध में मतदान कर देंगे.
ऐसा होता तो सरकार के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाता. तब केंद्रीय नेतृत्व ने आनन फानन में शनिवार को ही देहरादून में कोर कमेटी की बैठक बुला डाली.
आनन फानन में सीएम बैठक में पहुंचे. बहुत से भाजपा विधायको को हैलीकॉप्टर में ढोकर देहरादून लाया गया.
इस बैठक में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह पर्यवेक्षक के रूप में शामिल हुए.
सूत्रों का तो यह भी कहना है कि केंद्रीय नेतृत्व की अनदेखी से नाराज होकर असंतुष्ट मंत्रियों और विधायकों ने मई या जून माह में सामूहिक इस्तीफे की चेतावनी भी दी तो केंद्रीय हाई कमान सोचने के लिए विवश हो गया.
कैबिनेट के तीन पद खाली रखना, दायित्व बांटने में देरी भी पड़ी भारी
त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मुख्यमंत्री बनने के बाद हरीश रावत की राह चलते हुए कैबिनेट के कुल 12 में से दो मंत्री पद खाली रखे.
शायद विधायकों को पद के लालच में काबू रखने के लिए मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर लगातार दवाब के बावजूद इस पर कोई फैसला नहीं हो पाया.
प्रकाश पंत के निधन के बाद तो कैबिनेट में तीन पद खाली हो गए लेकिन माना जाता है कि पार्टी के न चाहने पर अपने भरोसे के विधायक मुन्ना सिंह चौहान को मंत्री बनाने की जिद के चलते फिर भी पद नहीं भरे गए.
पार्टी के बार-बार कहने के बाद बड़ी मुश्किल से दायित्व बांटे गए लेकिन उसमें भी पार्टी कई दिग्गजों की सिफारिशों को दरकिनार कर दिया गया. इस सबने पार्टी में असंतोष बढ़ाने में मदद की।
बिना किसी की राय लिए फैसले जैसी कार्यशैली सवालों के घेरे में रही
पूर्व में भी बिना चर्चा के और बाकी लोगों को विश्वास में लिए ऐसे निर्णय हुए, जिन्हें मंत्री भी स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे.
एक तरह से त्रिवेंद्र की कार्यशैली सवालों के घेरे में रही और अब जब कि अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होना है, ऐसे में भाजपा त्रिवेंद्र के चेहरे को लेकर आगे बढ़ने की स्थिति में सहज नहीं लग रही थी.
आरएसएस समेत अन्ये अनुषांगिक संगठनों की रिपोर्ट भी त्रिवेंद्र के अनुकूल नहीं रही.
हाल ही में गैरसैंण कमिश्नरी का ऐलान उनके कैबिनेट सहयोगियों व सांसदों को भी नाराज कर गया. सियासी हलकों के चर्चा है कि चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को लेकर अलग कमिश्नरी के फैसले की खबर खुद उनके कैबिनेट सहयोगियों तक को नहीं थी.
कमिश्नरी में अल्मोड़ा, बागेश्वर,चमोली और रुद्रप्रयाग चार जिलों को शामिल करने के फ़ैसले की वजह से कुमाऊं मंडल के लोग काफ़ी ज्यादा नाराज़ थे.
बहरहाल, राहत इंदौरी के लफ्जों में कहें तो सूबे में- ‘नए किरदार आते जा रहे हैं, मगर नाटक पुराना चल रहा है.’
यह भी पढ़ें : तीरथ की ताजपोशी पर आप का तंज : कहा, चेहरा नया लेकिन सोच वही
Discussion about this post