कौन हैं ये लोग जो किसी भी हाल में बस अपने घर-गांव पहुंच जाना चाहते हैं ? कौन हैं जो लाक डाउन का मतलब नहीं समझ रहे ? कौन हैं जो गाड़ियां बंद होने पर सैकड़ों किलोमीटर पैदल ही चलने को तैयार थे ?
ये तमाम वो लोग थे जिन्हें सिर्फ़ एक बात समझ आती है, ‘लॉक डाउन में बाहर निकले तो शायद मर जाएं लेकिन नहीं निकले तो पक्का मर जाएंगे.’
ऐसा क्यों ? क्योंकि ये तमाम लोग उस आय वर्ग से आते हैं जहां रोज कुआं खोदने पर ही पानी मिलता है. 21 दिनों के लाक डाउन का इनके लिए सीधे-सा एक ही मतलब होता है – 21 दिनों की रोटी बंद.
इनके पास न तो ‘वर्क फ्रोम होम’ की सुविधा होती है और न इतना जमा पैसा कि 21 दिन बिना कोई काम किए अपने मूलभूत खर्चे पूरे कर सकें. रोज खटते हैं तब जाकर जरूरतें पूरी होती हैं.
ये सभी लोग असुरक्षा के चलते भाग रहे थे. असुरक्षा इस बात की कि ’21 दिनों तक यहीं रहें तो खर्चे कैसे पूरे होंगे ? झुग्गी का किराया कैसे देंगे ? खाएंगे क्या ? बच्चों को क्या खिलाएंगे ?’
ऐसे मूलभूत सवालों का भी जब कोई जवाब नहीं सूझता, तब ये लोग बच्चों को कंधों पर बिठाए हज़ार किलोमीटर पैदल ही चलने की सोचते हैं.
ये सही है कि तमाम सरकारों ने आदेश दिए हैं कि निम्न वर्ग के लोगों तक राशन मुफ्त पहुंचा दिया जाएगा. कुछ सरकारों ने ये भी आदेश दिए हैं कि इस लाक डाउन के रहने तक निम्न वर्ग के लोगों से कमरे का किराया न वसूला जाए. लेकिन ये तमाम घोषणाएं तब हुई हैं जब हजारों लोग असुरक्षा के चलते घर छोड़ कर निकल चुके थे. और अब भी ये घोषणाएं धरातल से बहुत दूर हैं.
इस परिस्थिति के लिए सवाल करने हैं तो सरकारों से कीजिए. क्या सरकारों ने इन लोगों को आश्वस्त किया था कि आपको घबराने की ज़रूरत नहीं है, हम मदद के लिए खड़े हैं.
जिन बस्तियों में ये तमाम लोग रहते हैं, वहां अगर पहले या दूसरे दिन भी रसद पहुंच गई होती तो ये लोग ऐसे विचलित न होते.
इनके मोहल्लों-बस्तियों-झुग्गियों में अगर घोषणा की गई होती कि ‘लाक डाउन के दौरान मकान मालिक कमरे का किराया नहीं वसूलेंगे’ तो इन लोगों की घबराहट कुछ कम हो गई होती.
ये लोग ट्विटर पर नहीं होते, जो देख सकें कि मुख्यमंत्री ने क्या आदेश जारी किया है. ये फेसबुक पर भी नहीं होते, जो देख सकें कि सोशल मीडिया का विमर्श किधर जा रहा है. ऐसे में इन लोगों को आश्वस्त करना कि सरकार इनके साथ है, ये जिम्मेदारी किसकी थी ?
प्रधानमंत्री के एक बार कहने से पूरा देश थालियां पीटने लगा था, क्या उन्हें इस वक्त आगे आकर इन लोगों को आश्वासन नहीं देना चाहिए ? ये बहुत बड़ा वर्ग जिसकी चुनौती ये है कि ‘कोरोना से पहले तो हम भूख से मर जाएंगे’, इस वर्ग को विचलित देख क्या प्रधानमंत्री को लाइव नहीं आना चाहिए था?
अव्वल तो ये आश्वासन लाक डाउन की घोषणा के साथ ही दे दिए जाने चाहिए थे कि ‘प्रवासी मजदूरों, निम्न आय वर्ग के लोगों को घबराने की जरूरत नहीं है. वे जहां हैं वहीं बने रहें, उन तक सारी मदद पहुंचती रहेगी.’ लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बल्कि हुआ ये कि प्रधानमंत्री के घोषणा करते ही लाक डाउन टूट गया. और इसे तोड़ने वाले ये गरीब लोग नहीं बल्कि मध्यम और उच्च वर्ग के लोग थे.
प्रधानमंत्री का भाषण खत्म होने से पहले ही ये बाजारों की तरफ दौड़ पड़े, राशन लाकर घरों में ठूंस चुके हैं और अब चाय की चुस्कियों के साथ इस वर्ग को गैर-जिम्मेदार बता रहे हैं.
दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने भले ही लोगों के खाने की व्यवस्था पहले दिन से की लेकिन उन्होंने भी विचलित होकर दिल्ली छोड़ते इस वर्ग को सुरक्षित महसूस करवाने के लिए कुछ नहीं किया.
चुनाव के दिन एक-एक गली तक इन पार्टियों की गाड़ियां पहुंच जाती हैं और एक-एक वोटर को पोलिंग बूथ ये लोग ले जाते हैं. लेकिन इस वक्त इनसे इतना नहीं हुआ कि जिन बस्तियों से लोग निकल रहे थे सिर्फ उन बस्तियों में पहुंच कर लोगों को आश्वस्त कर आते, उन्हें मदद पहुंचा देते, विश्वास दिला देते कि वो यहां सुरक्षित हैं.
अब स्थिति हाथ से निकल चुकी है. आनंद विहार पर हजारों-हजार लोग उमड़ पड़े हैं. स्वाभाविक है इनमें सभी ‘मरता क्या न करता’ वाली स्थिति वाले नहीं होंगे बल्कि कई ऐसे भी होंगे जो बसों के चलने को एक ‘विंडो’ की तरह देख रहे होंगे ताकि अपने-अपने घर पहुंच सकें. लेकिन इस स्थिति का दोष इन्हीं पर मढ़ देना ठीक नहीं है.
ये सही है कि लाक डाउन ही मौजूदा वक्त में एक मात्र विकल्प था. जो लोग कह रहे हैं कि लाक डाउन से पहले जनता को अपने-अपने ठिकानों पे जाने का मौका देना चाहिए था, मैं इस तर्क से इत्तेफाक नहीं रखता.
ये आपात स्थिति है और भयावह है. लाक डाउन का मतलब ही था जो जहां है वहीं बना रहे, ताकि संक्रमण फैलने से बचाया जा सके.
यही गलती इटली ने की, पहले हल्के में लिया, फिर लोग अपने-अपने ठिकानों पर भागे, और अब वहां की तस्वीर आप देख ही रहे हैं. लिहाजा लाक डाउन का फैसला तो हमें और भी पहले लेना था. लेकिन तब तो हम थालियां पीट रहे थे.
लाक डाउन तुरंत करना जरूरी था. मान लिया कि इसकी तैयारी के लिए वैसा स्कोप नहीं था जैसा नोटबंदी में होते हुए भी जाया किया गया. लेकिन इसके बाद तो चीजें प्लान की जा सकती थीं.
इन लोगों पर सवाल करने से पहले ये सवाल कीजिए कि तमाम इंटेलिजेंस से लेकर सलाहकारों की फौज और कथित जेम्स बांड से लेकर चाणक्य तक सब क्या कर रहे थे, जो ये स्थिति पैदा हुई.
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