30 मई 1930 को उत्तरकाशी की यमुना, रंवाई घाटी में उत्तराखंड का जालियांवाला बाग घटित हुआ था.
रंवाई घाटी के तिलाड़ी में डीएफओ पदम दत्त और दीवान चक्रधर जुयाल के अहंकार और हठधर्मिता के कारण निहत्थे ग्रामीणों पर दो ओर से घेरकर गोलीबारी की गई.
सौ के आसपास निहत्थे ग्रामीणों की हत्या हुई, इस तिलाड़ी कांड को उत्तराखंड का जालियांवाला बाग कांड कहते हैं, तथा चक्रधर जुयाल को जनरल डायर.
30 मई 1930 को घटित तिलाड़ी का यह महा-विस्फोट कोई एक दिन की घटना का नहीं, बल्कि विगत पांच-छह वर्ष से रंवाई ,जौनपुर के स्वच्छंद ,पशुपालक और कृषि पर निर्भर समाज में राजसत्ता का जो निरंकुश हस्तक्षेप बढ़ रहा था, उसका परिणाम था.
ग्रामीण समय-समय पर अलग-अलग माध्यम से इसका प्रतिरोध कर रहे थे. खुश जन आक्रोश की अनदेखी का विस्फोट था तिलाड़ी का नरसंहार. तिलाड़ी कांड को याद करते हुए द्वंद के उन 5 सालों को समझते हैं.
कीर्ति शाह की मृत्यु के बाद 25 अप्रैल 1913 से टिहरी रियासत का शासन लगभग साढे 6 वर्ष, 4 अक्टूबर 1919 तक काउंसिल के हाथों में रहा। पहले रानी नेपालिया फिर ब्रिटिश रेजिडेंट सेवियर और उनकी मृत्यु पश्चात म्योर काउंसिल के अध्यक्ष रहे.
चार अक्टूबर 1919 विजयादशमी के दिन से नरेंद्र शाह का कार्यकाल प्रारंभ हुआ. वह पढ़े लिखे राजा थे. उन्होनें लोक प्रशासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन करते हुए भवानी दत्त उनियाल को राज्य के सर्वोच्च पद दीवान पर नियुक्त किया, उनका कार्यकाल 1923 तक रहा.
दीवान का यह पद काफी दिनों तक रिक्त रहा. लेकिन इस बीच जुलाई 1925 में संयुक्त प्रांत से सैन्य और कूटनीतिक क्षमताओं में दक्ष चक्रधर जुयाल का ब्रिटिश रियासत में होम मेंबर के रूप में आगमन हुआ.
जुयाल ने अपनी निष्ठा और और सक्रियता से महाराज का दिल जीत लिया, पुरस्कार में जुलाई 1929 में चक्रधर जुयाल को दीवान के सर्वोच्च पद पर नियुक्त किया गया.
यह टिहरी रियासत की संपन्नता और शांति का दौर था. लेकिन रंवाई , जौनपुर के क्षेत्र की स्वच्छंद प्रवृत्ति राजसत्ता को लगातार चुनौती पेश कर रही थी.
बृहद क्षेत्र के बाद भी रंवाई जौनपुर क्षेत्र में वनों की पैमाइश का कार्य अधूरा था. 1924 की भू-व्यवस्था के बाद रंवाई क्षेत्र की पूर्व की 23 पट्टियों को, 16 पट्टियों में समाहित किया गया और बाड़ा-हाट को नया परगना बनाया गया.
रंवाई की यह 16 पट्टियां थीं, 1-पंच गाई 2-फते पर्वत,3- बंगाण 4- सिंगतूर ,5 -अडोर -बडासू 6-गडूगाड अऊर 7-रामा सिरांई मल्ली 8- रामा सिरांई तल्ली 9 -बनाल डख्याट , 10-बडियाड 11 गीठ ,12-बडकोट -पाँटी 13 मुगर सन्ती 14-ठकराल 15- वजरी 16- भणडारसू.
जौनपुर में 9 पट्टियां हैं, 1- खाटल 2-गोडर 3-इडवालस्यू 4- लालूर 5- पालीगाड़ 6- सिलवाड 7 छ:जूला 8- वराज्यूला 9- दसगी हातड़.
यमुना घाटी की इन नौकरियों में आज नैनबाग और थत्यूड़ प्रमुख कस्बे हैं.
रंवाई और जौनपुर क्षेत्र में सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकता आज भी है. यह समाज स्वच्छंद पशुपालक, नृत्य, मांस-मदिरा का प्रेमी तथा विवाह प्रथा में बहू प्रथा, टक्का आदि प्रथा के साथ आदिवासी समाज से भी मिलता था.
इन सांस्कृतिक कारणों से यमुना घाटी का टिहरी रियासत से हमेशा से एक संघर्ष चला ही आ रहा था. राजसत्ता का संपूर्ण नियंत्रण यहां कभी भी नहीं रह पाया. क्षेत्र की बागडोर सियाणा और मालगुजार ,थोकदारों के जरिए संचालित थी.
संघर्ष के तात्कालिक कारण
मई 1910-11 में कंजरवेटर रामदत्त द्वारा जो वनों की पैमाइश की गई थी। उसमें वनों की मुंडेर गांव के भीतर तक आ गई थी.
ग्रामीणों को चारा पत्ती जानवरों की आवाजाही में दिक्कत होने लगी थी. छोटे प्रतिरोधों के बाद 1916 में यह वन पैमाइश शिथिल कर दी गई.
सन 1917 से 1924 के मध्य बंदोबस्त सम्पन्न हुआ, जिसमें अनेक बड़े भूमि विवाद हुए जिसमें दरबार की अत्यधिक ऊर्जा का क्षय हुआ.
1927-28 में इंग्लैंड से वानिकी पढ़ कर आए पदम दत्त रतूड़ी यमुना घाटी के नए डीएफओ बने. उन्होंने वनों की पैमाइश का काम तेज कर दिया.
राज्य के कर्मचारियों ने वही पुराना दमनकारी रवैया जारी रखा. वनों की मुंडेर गांव की पंचायती जमीन तक पहुंचा दी.
पशु और वन आधारित समाज की मुश्किलें बढ़ गई.
डीएफओ पदम दत्त ने नवंबर 1929 में बड़कोट डाक बंगले में रंवाई, जौनपुर के ग्रामीणों को नए करों से अवगत करा कर, तिलाड़ी विस्फोट का बीजारोपण कर दिया
ये 12 नए क्रूर क्रम इस प्रकार थे।
- गांव के प्रत्येक चूल्हे पर – 2 रुपये प्रति चूल कर.
2- आलू पर प्रति मन – 1 रुपया कर.
3 छूट पर रस्म कर – 2 आना प्रति रुपया.
4-घसियारी कर – 1 रुपया प्रति महिला विधवा महिला 50 पैसा.
5- 5 बकरी से अधिक पर – 4 आना प्रति बकरी.
6- दो गाय एक जोड़ी बैल से अधिक पशु होने पर प्रति पशु – 1 रुपया वार्षिक.
7-एक से अधिक भैंस होने पर 2 रुपये प्रति भैंस वार्षिक पुच्छी कर.
8- काट कुराली (सीजनल लकडी,चारा )
9- जंगली शिकार बंद.
10- नदियों में मौण (मछली) मारना बंद. जौनपुर में ऐसा अगलाड नदी का मेला प्रसिद्ध है.
11- शराब पर प्रतिबंध.
12- आवश्यकता हेतु जंगल से लकड़ी रमन्ना जिस पर कीमत चुकानी होती थी, डीएफओ द्वारा बेगार 15 मन कोयला प्रति गांव ढुलान.
इस प्रकार विलायती बाबू पदम दत्त ने एक स्वच्छंद ग्रामीण समाज की परंपरा, कृषि और जंगल के अधार पर एक साथ चोट कर दी.
डीएफओ के इन फरमानों से ग्रामीण सकते में थे. मीटिंग में ही दयाराम कनसेरु ने डीएफओ से प्रार्थना की कि उसके पास 500 पशु हैं वह कैसे यह कर दे सकता है !
डीएफओ ने बहुत ही क्रूर, अमानवीय जवाब दिया, ‘गाय-बछियों के लिए सरकार नुकसान नहीं उठाएगी, इन्हें पहाड़ों से नीचे धकेल दो!’
ये शब्द एक पशुपालक समाज के हृदय को चीरने वाले थे. यही वाक्य तिलाड़ी कांड का सूत्र वाक्य भी बन गया.
दयाराम कनसेरु आदि ग्रामीणों ने डीएफओ की इस मनमानी घोषणाओं के खिलाफ गांव-गांव डुगडुगी की और 10 दिन बाद ही बड़कोट तिलाड़ी सेरा में लोग इकट्ठा हुए.
डीएफओ और वन विभाग के कर्मचारियों ने मीटिंग में हस्तक्षेप किया, फलत: कोई निर्णय नहीं लिया जा सका. नए कर पूरे समाज को बारूद की तरह सुलगाने लगे.
दिसंबर 1929 के प्रतिनिधि सभा के चुनाव में यही कर नए मुद्दे के रूप में उठाए गए. जनवरी 1930 में संयुक्त प्रांत के गवर्नर नरेंद्र नगर आए. उनके सम्मान में जो कार्यक्रम आयोजित हुए उनमें रंवाई ,जौनपुर के युवाओं को तरणताल में कूदने के निर्देश हुए.
इस ठंड में यह अमानवीय व्यवहार क्षेत्र के युवकों के भीतर घर कर गया, साथ ही इलाके के थोकदार ,मालगुजार और सरपंचो को भी दरबार में तवज्जो नहीं दी गई, उन्हें परंपरा अनुसार बकरा भेंट नहीं किया गया.
यह पूरे क्षेत्र का अपमान था. इस कारण ने भी आग में घी का काम किया. पूरी घाटी में इस भेदभावपूर्वक किए गए व्यवहार से दरबार के प्रति गुस्सा था.
दरबार से पदच्युत वजीर, भवानी दत्त और सेटलमेंट ऑफिसर रामप्रसाद इस मौके को ताड़ गए. उन्होंने जौनपुर रंवाई के लोगों को विद्रोह की राह बताई. यहीं से गढ़वाली के संपादक विशंभर दत्त चंदोला भी रंवाई के मामलों में सक्रिय हो गए.
फरवरी 1930 से रंवाई और जौनपुर क्षेत्र के गांव-गांव में प्रतिरोध स्वरुप बैठक होने लगी.
28 फरवरी 1930 को रंवाई के मालगुजार व ग्रामीणों की तिलाड़ी सेरा में बैठक हो रही थी. कि हल्का पटवारी और पदम सिंह ने उसमें व्यवधान उत्पन्न कर दिया.
गिरफ्तारी की धमकी दी, बैठक भंग हो गई. इसके बाद की बैठक गांव से बाहर चंदा टोकरी में हुई. जिसमें रंवाई और जौनपुर दोनों क्षेत्र के प्रमुख व्यक्ति लगातार भाग ले रहे थे.
पहला धर्मपट्टा (राजीनामा) : डीएफओ पदम दत्त के नए करों से पूरे समाज के नेता 13 मार्च 1930 को रंवाई, जौनपुर, बिष्ट पट्टी परगना उदयपुर के प्रमुख ग्रामीणों ने, जिसमें 68 व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे, एक धर्म पट्टा जारी किया जिसमें कहा गया, ‘भविष्य में इस पूरे क्षेत्र के लोग सामूहिकता के आधार पर निर्णय लेंगे, राजशाही से संघर्ष करेंगे.’ यह धर्म पट्टा चंदा डोखरी में हुआ.
इस धर्म पट्टे के प्रमुख नेता हीरा सिंह नगार गांव, दयाराम कनसेरू, रूद्र सिंह बड़कोट, शिव सिंह, महानंद देवल, रामानंद कुदाऊ, रामदत्त नंद गांव आदि थे. महाराजा को तार से सूचना देने चकराता गए. गांव-गांव अगले धर्म पट्टे के लिए संपर्क होने लगा.
दूसरा धर्म पट्टा 28-29 मार्च 1930 को चांदा डोखरी में ही संपन्न हुआ. इस धर्म पट्टे में दरबार के प्रतिनिधि बेजराम, लूदर सिंह, पंडित बद्री दत्त, श्रीचंद कंडारी आदि जनता के भारी दबाव से शामिल हुए.
इस धर्म पट्टे में 195 लोगों की उपस्थिति रही. इसे आजाद पंचायत का नाम दिया गया.
अब दरबार के कर्मचारियों से सीधा संघर्ष शुरू होने लगा, पंचायत के लिए चंदा डोखरी के साथ ही तिलाड़ी और थापला, टटाउ और सरूका ढंडक बैठक के स्थान तय किए गए.
इस आजाद पंचायत में राजा से डीएफओ पदम दत्त की घोषणाओं के विरुद्ध एक मांग पत्र चार्टर तैयार किया गया, जिसमें थोपी गई सभी बंदिशों को हटाने सहित पुरानी स्वच्छंद गतिविधियों मौण,मदिरा के प्रतिबंध को समाप्त करने, खेती किसानी के लिए लकड़ी की मांग और जानवरों को बिना टैक्स पालने का अधिकार, बेगार उतार सहित सभी 12 मांग रखी गई.
इस मांगपत्र को तिलाड़ी चार्टर भी कहा जाता है. जिस वक्त रंवाई और जौनपुर क्षेत्र में यह उथल-पुथल चल रही थी, तब राजा गले की बीमारी के इलाज के लिए यूरोप रवाना हुए.
शासन का भार चाचा विचित्र शाह के नेतृत्व में काउंसिल के सुपुर्द किया गया. अब दीवान चक्रधर जुयाल, भूतपूर्व वजीर हरि कृष्ण रतूडी महत्वपूर्ण भूमिका में थे.
विलायत से पढ़ कर आए डीएफओ पदम दत्त रतूड़ी तथा नए- नए दीवान पद पर प्रोन्नत हुए चक्रधर जुयाल ने रंवाई घाटी के वनों की पैमाइश तथा नए करों को लागू कराने को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया था.
वे महाराज के विलायत प्रवास को एक अवसर के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे.
रंवाई के डिप्टी कलेक्टर सुरेंद्र दत्त नौटियाल की यह रिपोर्ट कि, ग्रामीण चंदा डोखरी तथा अन्य स्थानों पर संगठित होकर बैठक कर रहे हैं, पर दीवान ने सख्त रुख अपनाया और यह कहा कि विरोधियों की भाषा किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति की है जो उन्हें बरगला रहा है.
इस रूप में एक चश्मे वाले ,जिसे कि ज्यादातर लोग गढ़वाली के संपादक विशंभर दत्त चंदोला से जोड़ते हैं.
रंवाई से बाहर इन ढंडको की जीवंत रिपोर्ट गढ़वाली मे ही छप रही थी, से इस बाह्य व्यक्ति की विशंभर दत्त चंदोला होने की पुष्टि होती है. अन्य मत में इस चश्मे वाले व्यक्ति को आर.डी भारद्वाज के रूप में देखते हैं जिसके अन्य प्रमाण नहीं मिलते हैं.
दीवान को रंवाई से डिप्टी कलेक्टर सुरेन्द्र दत्त नौटियाल ने 8 लोगों को ढंडक का नेता बताकर रिपोर्ट दी.
1-हीरा सिंह नगाण गांव 2- स्वरूप राम नगाण गांव
3- लूदर सिंह मालगुजार बड़कोट 4- दयाराम-कन्सेरू
5- शिव सिंह- डख्याट गांव , 6-मोहर सिंह -स्यालना
7- श्याम सिंह भाटिया 8-शिव सिंह पटवारी सुनाल्डी
दीवान चक्रधर जुयाल ने हर हाल में इनके विरुद्ध कार्रवाई के लिए पांच अप्रैल 1930 को डिप्टी कलेक्टर रंवाई को पत्र भेजा.
साथ ही चीफ सेक्रेटरी देवेंद्र दत्त रतूड़ी ने गुप्त रूप से रंवाई जौनपुर के ढंडको की जानकारी के लिए पूर्ण शक्ति संपन्न एक पुलिस अधिकारी अंबा दत्त बहुगुणा को भी नियुक्त किया.
दो अप्रैल 1930 को क्षेत्र के प्रमुख ढंडकियों ने डीएफओ पदम दत्त को महाराज के वापस आने तक क्षेत्र छोड़ने की धमकी दी, जिसके प्रत्युत्तर में डीएफओ पदम दत्त ने ढंडकियों द्वारा जंगलों में आग लगाने ,फारेस्ट गार्ड तथा दो वन कर्मचारियों से मारपीट करने आदि का उल्लेख कर दीवान से 100 सशस्त्र सैनिक भेजने की मांग की जिसे दीवान चक्रधर ने ठुकरा दिया.
इधर शांति के प्रयास तेज हो गए. चीफ सेक्रेटरी देवेंद्र दत्त ने ढंडक प्रभावित क्षेत्रों में यह घोषणा भी करवाई की जो कर बढ़ाने और वन भूमि की पैमाइश का आदेश है वह भ्रामक है. यदि किसी को आपत्ति है तो वह उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है लेकिन इन प्रयासों का कोई प्रभाव नहीं हुआ.
इस वक्त कर्नल सुरेंद्र सिंह सरदार बहादुर सेनापति थे ।दीवान चक्रधर ने जब उन्हें डीएफओ की मांग पर सेना सहित रंवाई प्रस्थान का आदेश दिया तो सेनापति ने राजा की अनुपस्थिति में यह कदम उठाने से इंकार कर दिया.
तब दीवान ने 17 अप्रैल 1930 को सेनापति सुंदर सिंह को पदच्युत कर नाथूसिंह को सेनापति बना दिया.
इस बीच ढंडक और उग्र हो गया ढंडकियों ने आजाद पंचायत के माध्यम से क्षेत्र को स्वतंत्र घोषित कर दिया. हीरा सिंह नगाण गांव को पांच सरकार तथा तेजराम को तीन सरकार के पद से विभूषित किया.
एजेंट अंबा दत्त बहुगुणा और पूर्व वजीर हरिदत्त रतूड़ी के प्रयास
क्षेत्र में लाला राम प्रसाद के ढंडकियों तथा प्रशासन से मधुर संबंध थे. अंबा दत्त बहुगुणा ने लाला राम प्रसाद को मध्यस्थ की भूमिका में तैयार किया जिसने ढंड़कियों से की महाराज की वापसी तक आंदोलन वापसी की पहल की.
साथ ही पूर्व वजीर बुजुर्ग हरीकृष्ण रतूड़ी भी क्षेत्र में आ गए थे, जिनका क्षेत्र में सम्मान था. उन्होंने भी ग्रामीणों से भूमि की पैमाइश और करों को टालने का पुरजोर प्रयास करने का आश्वासन दिया.
एक बैठक 27 अप्रैल को तिलाड़ी में बुलाई जिसमें क्षेत्र के मालगुजार लखीराम, हीरा सिंह, रणवीर सिंह इस बैठक में आए लेकिन ढंडकियों का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं हुआ. बैठक बेनतीजा रही.
इस पूरे समय चक्रधर जुयाल दरबार में खुद की स्थिति मजबूत करने के लिए लगातार षडयंत्र कर ढंडक के दमन की व्यूह रचना कर रहा था.
उसने रंवाई की ग्रामीण जनता को परंपरागत लुटेरे और डकैत की संज्ञा देकर सबक सिखाने की बात भी कही. इसके लिए पदम दत्त के पत्र और वन कर्मचारियों की हिंसा को आधार बनाया गया.
चक्रधर जुयाल हरि कृष्ण रतूड़ी के कूटनीतिक प्रयासों की सफलता से भी घबराया हुआ था.
तिलाड़ी से पहले राडी घाटी गोलीकांड
विलायत से वानिकी की शिक्षा लेकर लौटे डीएफओ यमुना घाटी, पदम दत्त रतूड़ी ने नवंबर 1929 को कृषि, वन एवं पशुपालन की बहुलता वाले क्षेत्र रंवाई घाटी और जौनपुर से राज्य की आमदनी में बेतहाशा वृद्धि करने की मंशा से वनों की पैमाइश कर, कृषि और समाज व्यवस्था के लिए करो का एक नया ढांचे की घोषणा की.
12 बिंदुओं की इस नई कर प्रणाली से जंगल ,कृषि, मवेशी, समाज और संस्कृति सब कुछ एक साथ प्रभावित हो रहा था.
इस घोषणा के साथ ही रंवाई की 16 पट्टी ,जौनपुर की नौ पट्टी, बिष्ट पट्टी उदयपुर परगना एकजुट होकर मुखर हो गए.
वर्ष 1929 में ही चक्रधर जुयाल ने दीवान की महत्वपूर्ण पदवी प्राप्ति की.
अब नए करों के ढांचे को सफलतापूर्वक लागू कराना इन दोनों अधिकारियों ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. क्षेत्र के जन संघर्षों की अनदेखी कर षड्यंत्र में मशगूल रहे.
वन कर्मचारियों से मारपीट, वन संपदा को नुकसान पहुंचाने की डीएफओ पदम दत्त रतूड़ी की झूठी रिपोर्ट के आधार पर सेना का दखल बढ़ाने की गरज से चीफ जज की अदालत से क्षेत्र के प्रमुख आंदोलनकारियों के नाम वारंट भिजवाए और उनकी तामिली हेतु डिप्टी कलेक्टर रंवाई सुरेन्द्र दत्त नौटियाल को अधिकृत किया.
वारंटी नेताओं में दयाराम, जमनु, रामप्रसाद, लूदर सिंह, फतेह सिंह, हीरा सिंह, बैंजराम दलपति सिंह आदि प्रमुख थे.
20 मई 1930 को लदूर सिंह और जमन सिंह कंसेरू राजगढ़ी से किसी मुकदमे की पैरवी से लौट रहे थे. डिप्टी कलेक्टर सुरेन्द्र दत्त नौटियाल उन्हें वजीर से बात कराने के धोखे में डाक बंगला बड़कोट तक ले आए.
वहां से डीएफओ पदम दत्त, सुपरवाइजर के चपरासी रोशन सिंह को भी साथ बुला लिया.
तब नेताओं को गिरफ्तारी का एहसास हुआ. रास्ते में दयाराम कनसेरू भी मिल गए. लाला राम प्रसाद को भी गिरफ्तार कर लिया गया, अब चार अभियुक्त हो गए.
डंडाल गांव के पास दाताराम ने अधिकारियों का काफिला रोककर डंडाल गांव से ही चलने की जिद की. मार्ग को सुविधाजनक जानकर अधिकारी राजी हो गए. इसी बीच ढंडक नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना गांव वालों को मिल गई.
इस गिरफ्तारी का प्रतिरोध और गिरफ्तार नेताओं को रोटी-कपड़े की मदद के लिए ग्रामीण रात में ही उनसे मिलने निकल पड़े.
इसमें नंगाण गांव के झून सिंह व अजीत सिंह तथा अन्य गांव मोरिया छटा आदि के नारायण दत्त किशन दत्त लाल सिंह आदि का गिरफ्तार करने वाले अधिकारियों की टीम से उनका , आमना सामना हो गया.
डीएफओ पदम दत्त ने ग्रामीणों को धमकाना शुरू किया तो रोशनी सीटी बज गई, मानो जंग का ऐलान हो गया.
उत्तेजित पदम दत्त रतूड़ी ने निहत्थे ग्रामीणों पर रिवाल्वर से गोली दाग दी. झूना सिंह पुत्र पुत्र खडक सिंह नगाण गांव और अजीत सिंह पुत्र कांशीराम वहीं शहीद हो गए. जबकि नारायण दत्त व जीतू पालक गोली लगने से जख्मी हुए.
डिप्टी कलेक्टर सुरेंद्र दत्त नौटियाल के भी टांग में गोली लगी इस हंगामे का फायदा उठाकर पदम दत्त राड़ी पार भाग गया यह घटना रात्रि 11:30 बजे की थी.
दो ग्रामीणों की शहादत से रियासत का अमला घबरा गया और गिरफ्तार व्यक्तियों की हथकड़ियां सुपरवाइजर ने खुद खोल दी लेकिन अब बात बिगड़ चुकी थी. गांव-गांव में नरसिंह बज उठे थे और लोग संघर्ष के लिए अपने घरों से निकल पड़े थे!
डीएफओ पदमदत्त भागने सफल रहा, लेकिन डिप्टी कलेक्टर सुरेंद्र दत्त नौटियाल ग्रामीणों के बीच फंस गए.
उन्हें ग्रामीणों ने कब्जे में ले लिया लेकिन कोई बड़ी मारपीट नहीं हुई. स्वयं ढंडकियो ने उन्हें बचाए रखा.
वह आजाद पंचायत के सामने 22 मई को एक कैदी के रूप में पेश हुए, जहां गोली कांड की सुनवाई हुई.
डिप्टी कलेक्टर ने अपने भाई धर्मानंद के लिए एक दस्ती पत्र रामप्रसाद के द्वारा भेजा, जिसमें गोलीकांड के सही तथ्यों डीएफओ पदम दत्त की हठधर्मिता का उल्लेख था लेकिन ग्रामीणों ने स्वयं डिप्टी कलेक्टर सुरेंद्र दत्त की ग्रामीण आक्रोश से रक्षा भी की.
यह आजाद पंचायत की बुनियादी परम्परा थी.
इधर पूरे ग्रामीण क्षेत्र में राजशाही के प्रति जबरदस्त विद्रोह दिखाई देने लगा, बडियार पट्टी में उत्तेजित ग्रामीणों ने राज्य के कर्मचारियों को बंधक बनाना शुरू कर दिया.
फारेस्ट रेंजर गुंदरू गांव में पकड़े गए. ग्रामीणों ने इसकी सूचना व्हाटस पॉलिटिकल एजेंट को चकराता से तार द्वारा भेजी.
डीएफओ पदम दत्त राडी घाटी से भागकर धनारी के जमीदारों की सहायता से टिहरी पहुंचे और उनके द्वारा घटना को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया. लेकिन काउंसिल डीएफओ पदम दत्त की बातों से संतुष्ट नहीं थी. इसलिए उसे स्वयं दीवान चक्रधर जो उस वक्त नैनीताल गए हुए थे से मिलने नैनीताल जाना पड़ा.
इस बीच 25 सशस्त्र सैनिकों के साथ भोला नाथ पंत को रंवाई के लिए रवाना किया गया, लेकिन राड़ी में रास्ता रोक दिए जाने के कारण वह आगे नहीं बढ़ पाए.
आजाद पंचायत की अवधारणा रंवाई घाटी के जन संघर्ष के अतिरिक्त, अन्य स्थानों पर नहीं दिखाई देती है, जो क्षेत्र की मजबूत संघर्ष परंपरा को दर्शाती है. आगे जाकर माओवादी क्षेत्रों में यह आजाद पंचायत दंडकारण्य के रूप में प्रचलित हुई.
तिलाड़ी उत्तराखंड का जलियांवाला : अंतिम कड़ी
अपनी समस्याओं को लगातार पत्र और सभाओं के माध्यम से दरबार को बताने के लगातार प्रयासों के बाद भी अहंकारी दीवान चक्रधर जुयाल और महत्वाकांक्षाओं से भरे डीएफओ पदमदत्त रतूडी लगातार रंवाई और जौनपुर के जन आक्रोश और जन भावनाओं की अनदेखी कर रहे थे.
नवंबर 1929 को पदम दत्त रतूड़ी ने कृषि और पशुपालक समाज में जिस प्रकार 12 नए करों का एलान किया, उससे 16 पट्टी रवाईं घाटी, 9 पट्टी जौनपुर घाटी तथा बिष्ट पट्टी परगना उदयपुर के लोग जो पूरी तरह कृषि और पशुपालट समाज थे, प्रभावित हुए.
उनकी न केवल कृषि बल्कि उनके समाज और संस्कृति (मौण,मदिरा, नृत्य, मिलन व चूल पर कर ) पर भी रियासत ने इन करों के बहाने हमला किया.
जनता लगातार प्रतिकार कर रही थी. मार्च के माह में राजा नरेंद्र साह अपने गले का इलाज कराने यूरोप गए. सत्ता काउंसिल के हाथों में थी जिसके मुखिया दीवान चक्रधर जुयाल और हरिकृष्ण रतूड़ी थे.
हरिकृष्ण रतूड़ी बुजुर्ग और पूरे राज्य में प्रभाव रखने वाले व्यक्ति थे. उनके इस प्रभाव से चक्रधर रंज रखते थे. लगातार अपना दबदबा बनाए रखने के लिए षड्यंत्र कारी कदमों को बढ़ावा देते थे.
20 मई को राड़ी घाटी में दो निर्दोष ग्रामीणों की डीएफओ पदम दत्त रतूड़ी द्वारा हत्या किए जाने के बाद भी रियासत द्वारा जनता के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति नही दिखाई, जबकि वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी वहां जनता से संवाद स्थापित कर दिल जीतने का प्रयास कर रहे थे.
तभी भोला नाथ पंत के नेतृत्व में 25 सशस्त्र सैनिकों को कार्रवाई के लिए तिलाड़ी भेजे जाने के समाचार ने जनता का मोह पूरी तरह भंग कर दिया.
लोगों को यह विश्वास हो गया कि टिहरी रियासत में उनकी कोई कदर नहीं है. उन्हें जानवर ही समझा जा रहा है. तब गांव -गांव में लोग सशस्त्र विद्रोह के लिए संगठित होने लगे. विद्रोह की सभाएं और रणभेरी आम हो गई.
हालांकि हरि कृष्ण रतूड़ी जन विश्वास जीतने में कामयाब हो रहे थे. लाला राम प्रसाद मध्यस्थ की भूमिका में कारगर हो रहे थे. जनता और दरबार के बीच संदेशों का आदान प्रदान कर रहे थे.
तिलाड़ी के गोली कांड के दिन भी रामप्रसाद संदेश लेकर नरेंद्रनगर गए थे. काउंसिल और दरबार में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए चक्रधर जुयाल षडयंत्र कर रहे थे.
कूटनीतिक रूप से अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए दीवान चक्रधर जुयाल नैनीताल में पॉलिटिकल एजेंट मिस्टर स्टाइफ से डीएफओ, पदम दत्त रतूड़ी के साथ मिले, रंवाई घाटी के जनता के बगावती तेवर डीएफओ तथा रियासत कर्मचारियों के ऊपर हो रहे हमलो की मनगढ़ंत कहानी सुना कर पॉलिटिकल एजेंट की तिलाड़ी के क्रूर दमन हेतु मौन सहमति प्राप्त कर ली.
अपने कूटनीतिक मिशन में कामयाब होते ही डीएफओ पदम दत्त और चक्रधर जुयाल आनन-फानन नैनीताल से नरेंद्र नगर पहुंचे और वापस पहुंचते ही दीवान ने पूर्व में किए गए राजनीतिक प्रयासों की कोई समीक्षा किए बगैर ही सेना को बैरक से निकाल लाइन आफ होने का आदेश किया.
26 मई को ही दीवान चक्रधर और डीएफओ पदम दत्त नैनीताल से नरेंद्र नगर पहुंचे थे. उसी अपराह्न सेना के साथ रंवाई के लिए कूच कर दिया.
भल्डियाणा नामक स्थान पर दीवान ने फौज की जांच की तो आगम सिंह बखरेटी, जीत सिंह, मालचंद, सीताराम नगाण गांव, झूम सिंह, सैपाल सिंह, लखीराम निवासी काली बाजरी कुल सात सिपाही रंवाई क्षेत्र के पाए गए जिन्हें वापस भेज दिया गया.
28 मई को दीवान चक्रधर फौज के साथ राजगढ़ी पहुंच गए तब टाटाव गांव में ढंडकियो की बैठक चल रही थी.
ढंडकियों को भी सेना के आने की भनक लग गई, तो उन्होंने 29 मई को टाटाव गांव छोड़ दिया और तिलाड़ी सेरा में एकत्रित होने लगे.
इस अफरातफरी का फायदा उठाकर थोकदार रणजोर सिंह महत्वपूर्ण कागजों को लेकर दीवान के पास भाग गया. उसने ढंडकियों की रणनीति ,शस्त्रों का ब्यौरा दीवान को दिया.
उसने बताया कि ढंडकियो के पास खुकरी, तलवार, डांगरे हैं. उसने दीवान को बयाता कि भूतपूर्व दीवान सदानंद और पत्रकार विशंभर दत्त चंदोला का भी समर्थन ढंडकियों को प्राप्त है.
इसके बाद दीवान चक्रधर ने क्षेत्र के प्रतिनिधियों को महाराज के यूरोप प्रवास का हवाला देकर ढंडक खत्म कर देने की बात कही.
दीवान ने बातचीत का प्रस्ताव भेजा, लेकिन ढंडकियों ने बातचीत को तब तक मना कर दिया जब तक क्षेत्र में सेना की मौजूदगी है. सेना की वापसी पहली शर्त रखी गई.
चक्रधर ने पैंतरा बदला और संदेश दिया कि वह उन अपराधियों को पकड़ना चाहते हैं, जिन्होंने सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया और डिप्टी कलेक्टर सुरेंद्र दत्त नौटियाल पर जानलेवा हमला किया.
चेतावनी दी कि तिलाड़ी सेरा में एकत्रित लोग अगर 29 मई की शाम तक तितर-बितर नहीं हुए तो सैनिक कार्रवाई की जाएगी.
30 मई की सुबह फिर चपरासी भेज कर संदेश दिया लेकिन ढंडकियों की संख्या और हौसला लगातार बढ़ता गया. तब 2:00 बजे दिन बहुत प्रभावी सैनिक कार्रवाई की गई.
पहाड़ की चोटी पर सेनाध्यक्ष नत्थू सिंह ने पोजीशन ली. उत्तर पूरब की तरफ से ग्राम छटांगा से ग्राम किसना तक तिलाड़ी सेरा को सेना ने घेर लिया. बेतहाशा गोलियों की बौछार हुई.
निर्दोष ग्रामीणों के साथ ही नदी के पार मुर्दा ले जा रहे, लोगों की पार्टी तक भी गोलियां पहुंची.
भयभीत दर्जनों ग्रामीण यमुना के तेज बहाव में कूद बह गए. कुछ ने किन्सेरु के पेड़ों में आड़ ली तो वहीं चिपक गए. नदी के पार ग्राम सुनाल्डी में चर रही गाय-बकरियां तथा ग्रामीण भी इस गोलीबारी से घायल हुए.
इस बीच चक्र गांव के धूम सिंह दीवान के नजदीक पहुंच गए और उसके माथे पर बंदूक रख दी लेकिन खुद का अंगूठा गवा बैठे.
दीवान चक्रधर इस घटना के कूटनीतिक प्रभाव को जानता था. इसी लिए घटना पॉलिटिकल एजेंट स्टाइफ की जानकारी में भी थी
इसलिए घटना के साथ ही उसने इसकी गंभीरता को कम करने के लिए गलत रिपोर्ट पेश की. मौके से शवों को कालिख पोत यमुना नदी में प्रवाहित किया.
मात्र 20 राउंड गोली चलाने की बात कही जबकि चश्मदीद गवाह एक घंटे से अधिक लगातार गोलीबारी का जिक्र करते हैं.
घटना से सीधे तौर पर जुड़े रहे गढ़वाली के संपादक विशंभर दत्त चंदोला इस घटना में एक सौ से अधिक निर्दोष ग्रामीणों के मारे जाने और 194 व्यक्तियों की गिरफ्तारी की रिपोर्ट करते हैं.
सरकारी रिपोर्ट मात्र दो तो कहीं चार व्यक्तियों के मारे जाने की बात करती है, जबकि कई स्थानीय ग्रामीण- सतानंद ग्राम भाटिया, सते सिंह बड़थ्वाल ग्राम बगासू जो कि इस संघर्ष में शामिल थे मृतकों की संख्या 67 बताते हैं.
जून प्रथम सप्ताह तक पूरे क्षेत्र में दमन और लूट का सरकारी क्रम चलता रहा. थोकदार रणजोर सिंह और लखीराम राम की भूमिका खलनायक की रही. वह ग्रामीणों को गिरफ्तार करवाते रहे. 298 व्यक्तियों की गिरफ्तारी का उल्लेख मिलता है.
लेकिन इस गोलीकांड के बाद भी ग्रामीणों का हौसला पस्त नहीं हुआ.
चंदा डोकरी, थाबला अडूर – बडासू में हजार से अधिक की संख्या में लोग आजाद पंचायत में जुटते रहे.
इस कांड की गूंज पूरे उत्तर भारत में हुई. डैमेज कंट्रोल को सात जुलाई 1930 को महाराजा यूरोप से लौटे और 9 जुलाई को पॉलिटिकल एजेंट स्टाइफ से नैनीताल में बात की.
पॉलिटिकल एजेंट के समक्ष चक्रधर जुयाल पहले ही मजबूती से अपना पक्ष रख चुके थे. इस कारण चक्रधर जुयाल महाराज के विश्वास पात्र बने रहे. 24 जुलाई से 26 जुलाई 1930 तक रवांई जौनपुर क्षेत्र का नरेंद्र साह ने भ्रमण किया.
तब भी चक्रधर जुयाल साथ बना रहा तांकि सच्चाई सामने ना आए. धीरे-धीरे नरेंद्र शाह सच्चाई समझ गए, उन्होंने डीएफओ पदम दत्त द्वारा लगाए गए अधिकांश करों को वापस ले लिया.
राज्य की प्रतिष्ठा बचाए रखने की खातिर गिरफ्तार सभी ढंडकियों को 3 माह 10 दिन तक अनिवार्य रूप से जेल में रखा. उसके बाद 70 ढंडकियों को 4 माह से 10 वर्ष तक अलग-अलग श्रेणी की सजा से दंडित किया गया.
समाचार पत्रों और समाज में प्रतिक्रिया
तिलाड़ी गोलीकांड एक दिन की अचानक घटित घटना नहीं थी, यह डीएफओ पदम दत्त रतूड़ी और दीवान चक्रधर जुयाल की महत्वाकांक्षा और अहंकार में जन उपेक्षा का परिणाम थी, जिस कारण चार-पांच वर्ष से रंवाई घाटी सुलग रही थी.
इस घटना से पूर्व ही श्री विशंभर दत्त चंदोला संपादक गढ़वाली तथा शिमला, देहरादून के कई अखबार रंवाई घाटी पर नजर रखे हुए थे.
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना जिसे की उत्तराखंड का जालियांवाला बाग कांड कहा गया में हर जुर्म के बाद शासन सत्ता द्वारा जो हथकंडे अख्तियार किए जाते हैं, वह अख्तियार किए गए तथ्यों को छुपाया गया और घटना के तुरंत बाद जब ग्रामीण भाग गए तो सशस्त्र सैनिकों ने पूरे क्षेत्र को अपने काबू में लिया, शवों को गुमनाम दर्शाने के लिए उनके चेहरे पर कालिख पोत नदी में बहा दिया गया.
क्षेत्र की परंपरा पुरुषों के स्वर्ण आभूषण पहनने की थी अधिकांश शवो से स्वर्ण आभूषण सेना द्वारा लूट लिए गए.
दमन से घाटी को शांत किए जाने के सारे प्रयास विफल हो गए. साथ ही रंवाई घाटी से बाहर देहरादून, शिमला यहां तक कि दिल्ली के अखबारों में भी इस घटना को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया, जिससे टिहरी रियासत की साख को धक्का लगा.
जांच आयोग
अंग्रेजों की नजर में रियासत की साख बचाने के लिए और इस कांड में गौ हत्या के आरोप से मुक्त होने के लिए पंजाब सनातन धर्म के प्रतिनिधि पंडित गणेश दत्त शास्त्री पंडित शिवानंद थपलियाल अवकाश प्राप्त प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में एक जांच आयोग गठित किया गया.
जांच आयोग ने सभी संबद्ध पक्षों के बयान दर्ज किए, माना यह जाता है कि इसकी रिपोर्ट चक्रधर जुयाल और रियासत के खिलाफ थी. इस कारण यह रिपोर्ट दबा दी गई.
महाराज, दीवान चक्रधर जुयाल की अंग्रेजी भाषा और शैली से प्रभावित थे. उन्होंने रंवाई की यात्रा व जांच में भी मुख्य आरोपी चक्रधर जुयाल को खुद से अलग नहीं किया.
चीफ सेक्रेटरी सुरेंद्र रिपोर्ट दीवान चक्रधर की रिपोर्ट पर ही आधारित थी जिसमें ढंडकियों को मुख्य रूप से हमलावर माना गया. परिणाम स्वरूप सही तथ्य महाराज नरेंद्र शाह तक नहीं पहुंचें.
इसके साथ ही दवाव बनाने के लिए दीवान चक्रधर जुयाल द्वारा गढ़वाली के संपादक विशंभर दत्त चंदोला तथा इंडियन स्टेट रिफार्म्स के संपादक अनंतनारायण पर मानहानि का मुकदमा चलाया, जिसमें विशंभर दत्त चंदोला और अनंत नारायण राम दोनों को एक वर्ष की सजा हुई.
रियासत के विरुद्ध भडकाऊ भाषण दिए जाने के लिए अधिवक्ता तारा दत्त गैरोला पर भी मानहानि का मुकदमा चलाया गया, लेकिन यह मुकदमा असफल हुआ.
दीवान चक्रधर जुयाल के उपर मुकदमे के खर्च की भरपाई करने के आदेश तारा दत्त गैरोला के पक्ष में किए गए.
तमाम कोशिशों और बढ़ते जन दबाव के बाद के बाद एक जुलाई 1939 को चक्रधर जुयाल को पद से हटाया गया. साथ ही उसका देश निकाल कर कालसी से ऊपर राज्य प्रवेश की अनुमति भी प्रतिबंधित कर दी गई थी.
यहां सच्चाई जानने के बाद राजा द्वारा चक्रधर जुयाल की आंखें निकाल देने का उल्लेख होता है. लेकिन उसके कोई प्रमाण नही मिलते
इस घटना से टिहरी रियासत की साख तार-तार हो चुकी थी. राज्य में प्रजामंडल के प्रवेश की परिस्थितियां भी बनी.
शहीदों का ब्यौरा :
तिलाड़ी घटना के तुरंत बाद गढ़वाली के संपादक श्री विशंभर दत्त चंदोला ने अखबार में 100 लोगों के शहीद होने का जिक्र किया था.
यह भी कहा कि अधिकांश मृतकों को राजा की सेना ने चेहरे में पहचान छुपाने के लिए कालिख पोत यमुना में बहा दिया.
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, शतानंद गोलीकांड के शहीदों की संख्या 67 बताते हैं. अधिकांश सेनानी इसकी पुष्टि करते हैं. प्रमाणिक तौर पर नौ शहीदों का विवरण उपलब्ध होता है.
1- तुलसी ग्राम पंडारी जौनपुर2- किसिया ग्राम पांडे खनेती 3-मोर सिंह ग्राम बड़ोंगी, दशमी-4- नारायण सिंह ग्राम कामदा 5- भागीरथ ग्राम कामदा हरिराम गौरव पुत्र बडली ग्राम कुमाड़ी मुगरसंती, गंदरू ,ज्वाला सिंह, चमन सिंह ,ज्वाला सिंह, मदन सिंह ,रूद्र सिंह व गुलाब सिंह आदि कुल सात लोग जेल में शहीद हुए.
लंबी जद्दोजहद के बाद महाराजा नरेंद्र शाह ने रंवाई चार्टर की सभी 12 मांग जो कि पदम दत्त के नए कर प्रणाली से उत्पन्न थे को वापस ले लिया. लेकिन राजा व्यर्थ में की गई इस कवायद की सही समीक्षा नहीं कर पाए और लगातार दीवान चक्रधर जुयाल के चंगुल में ही फंसे रहे.
इस प्रकार तिलाड़ी का यह नरसंहार न केवल जौनपुर रंवाई क्षेत्र के लोगों के संघर्ष, संगठन और उनके जीवन में कृषि पशु और जंगल के महत्व को दर्शाता है, बल्कि यह संघर्ष, यह भी बताता है कि समूचे उत्तराखंड के नागरिकों का यह मूल स्वभाव है कि जब उनके आधार अस्तित्व पर चोट की जाती है तो वह संगठित होते हैं.
अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तत्पर भी रहते हैं ,यही हमारी संघर्ष परंपरा है.
तिलाड़ी के शहीदों को नमन !
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