कोरोना महामारी के मोर्चें पर विश्व बिरादरी की अगुवाई कर रहा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) लंबी जद्दोजहद के बाद यह मानने के लिए विवश हो गया है कि शायद कोरोना महामारी कभी दुनिया से नहीं जाएगी और यह स्थानिक (एन्डेमिक) बीमारी के रूप में इस धरती पर कहीं-कहीं अपना स्थाई निवास बना लेगी..
ऐसी एन्डेमिक बीमारियां एक नहीं बल्कि अनेक हैं. ऐसी स्थिति में एक बार फिर हर्ड इम्यूनिटी या सामुदायिक प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने का खयाल विश्व पटल पर उभरने लगा है.
इस विचार के पीछे तर्क यह है कि बीमारी को हो जाने दो, जिससे प्रकृति ने जीवधारियों के अंदर जो प्रतिरक्षण क्षमता दी हुई है समूह में विकसित हो जाएगी जिससे महामारी की चेन स्वतः ही टूट जाएगी.
खसरा इसका एक उदाहरण है, जिसमें एक बार बीमारी लगने के बाद एक ही व्यक्ति पर दुबारा कभी वह बीमारी नहीं लगती, क्योंकि शरीर स्वतः ही उस बीमारी से लड़ने के लिए प्रतिरक्षण क्षमता हासिल कर लेता है.
लॉकडाउन – 4 की घोषणा से पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना था कि हमें अब मास्क पहने रहने और एक दूसरे से दो गज की दूरी बनाए रखने का पालन करने के साथ ही इन नियमों के साथ जीने की आदत डालनी होगी. इस सलाह या चेतावनी के पीछे प्रधानमंत्री का स्पष्ट संदेश है कि कोरोना फिलहाल कहीं नहीं जा रहा है और आगे भी जाने की उम्मीद नहीं है.
प्रधानमंत्री की यह आशंका बेबुनियाद नहीं है. दुनिया के अधिकांश वैज्ञानिक अब मानने लगे हैं कि शायद आने वाले कुछ समय तक हमें टीके की उम्मीद करने के बजाए इस वायरस के साथ जीने की आदत डालनी होगी. कई वैज्ञानिकों का कहना है कि एड्स और डेंगू जैसी बीमारियों का भी अब तक इलाज नहीं मिल पाया है.
हाल ही में ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेस (एम्स) के निदेशक डाक्टर रणदीप गुलेरिया का कहना भी था कि हमें अब कोरोना वायरस के साथ ही जीने की आदत डालनी होगी.
अब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन के आपातकालीन सेवाओं के निदेशक डाक्टर माइक रियान ने भी जेनेवा में एक प्रेस कान्फ्रेंस में कह दिया कि कोविड -19 वायरस संभवतः कभी समाप्त नहीं होगा और विश्व में कहीं-कहीं एन्डेमिक या स्थानिक बीमारी के तौर पर स्थाई रूप से मौजूद रहेगा.
जाहिर है कि अगर बीमारी ने जाना ही नहीं है तो उसी के साथ जीने की आदत तो डालनी ही पड़ेगी. मगर जीवित रहने के लिए मानव समाज को अपने अंदर की प्रतिरोधक क्षमता इतनी मजबूत करनी होगी जो कि इस वायरस को शरीर के अंदर टिकने ही न दे.
इसीलिए अब एक बार फिर ‘‘हर्ड इम्यूनिटी’’ ( झुंड प्रतिरक्षण) या सामूहिक प्रतिरक्षण क्षमता विकसित करने का खयाल चिकित्सा विज्ञानिकों को आ रहा है.
ब्रिटेन की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी और नई दिल्ली एवं वॉशिंगटन स्थित एनजीओ, सेंटर फॉर डिजीज डायनेमिक्स, इकोनोमिक्स एंड पॉलिसी (सीडीडीईपी) से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि यदि कोरोना वायरस को नियंत्रित रूप से फैलने का मौका दिया जाए तो इससे सामाजिक स्तर पर कोविड-19 को लेकर एक रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होगी.
इसी थ्योरी के तहत जंगल के कुछ क्षेत्र नियंत्रित ढंग से जलाकर या चेन ब्रेक कर जंगलों को दावानल से बचाया जाता है. इन विशेषज्ञों का मानना है कि अगर कोई बीमारी किसी समूह के बड़े हिस्से में फैल जाती है तो ठीक होने पर वे सारे लोग ‘इम्यून’ हो जाते हैं, क्योंकि उनमें वायरस का मुकाबला करने में सक्षम एंटी-बॉडीज तैयार हो जाते हैं या उनमें प्रतिरक्षात्मक गुण स्वतः ही विकसित हो जाते हैं.
इस प्रकार जैसे-जैसे ज्यादा लोग इम्यून होते जाएंगे, वैसे-वैसे संक्रमण फैलने का खतरा कम होता जाएगा, क्योंकि संक्रमण के बाद ठीक होने वालों पर इसका संक्रमण नहीं होता.
बड़ी संख्या में लोगों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से संक्रमण की श्रृंखला टूट जाएगी और उन लोगों को भी परोक्ष रूप से सुरक्षा मिल जाएगी जो पहले संक्रमित नहीं हुए थे.
शरीर की इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए इम्यूनाइजेशन या टीकाकरण का सहारा भी लिया जा सकता है, जिस पर चिकित्सा विज्ञानी या वायराॅलाॅजिस्ट काम कर रहे हैं.
विशेषज्ञ हर्ड इम्यूनिटी के तरीके को बड़ी और युवा आबादी वाले गरीब देशों के लिए कारगरा मान रहे हैं. खासकर भारत जैसे देशों में यह प्रणाली ज्यादा कारगर साबित हो सकती है.
शरीर के अंदर ही होते हैं शरीर के रक्षक
प्रकृति ने जीवधारियों की जीवन की रक्षा के लिए उनके अंदर प्रतिरोधक क्षमता की व्यवस्था कर रखी है. उदाहरणार्थ जब कोई आदमी मरता है, तो कुछ ही समय में विभिन्न तरह के बैक्टीरिया, माइक्रोब्स, वायरस और पैरासाइट्स मृत शरीर पर हमला कर देते हैं और उसे सड़ाना, गलाना शुरू कर देते हैं.
शव को अगर कुछ दिनों के लिए छोड़ दिया जाए तो मृत शरीर में केवल कंकाल भर बचा रहेगा. जबकि जिंदा आदमी के साथ कभी ऐसा नहीं होता क्योंकि जिंदा लोगों में रोग प्रतिरोधक तंत्र (इम्यून सिस्टम) नाम का एक ऐसा प्राकृतिक तंत्र होता है, जो इन बैक्टीरिया, वायरस और माइक्रोब्स को शरीर से दूर रखता है.
इंसान के मरते ही उसका इम्यून सिस्टम भी खत्म हो जाता है और शरीर पर हमला करने की फिराक में बैठे माइक्रोब्स मृत शरीर को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं.
ब्रिटेन की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी और नई दिल्ली एवं वॉशिंगटन स्थित एनजीओ, सेंटर फॉर डिजीज डायनेमिक्स, इकोनोमिक्स एंड पॉलिसी (सीडीडीईपी) से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि यदि कोरोना वायरस को नियंत्रित रूप से फैलने का मौका दिया जाए तो इससे सामाजिक स्तर पर कोविड-19 को लेकर एक रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होगी.
इसी थ्योरी के तहत जंगल के कुछ क्षेत्र नियंत्रित ढंग से जलाकर या चेन ब्रेक कर जंगलों को दावानल से बचाया जाता है. इन विशेषज्ञों का मानना है कि अगर कोई बीमारी किसी समूह के बड़े हिस्से में फैल जाती है तो ठीक होने पर वे सारे लोग ‘इम्यून’ हो जाते हैं, क्योंकि उनमें वायरस का मुकाबला करने में सक्षम एंटी-बॉडीज तैयार हो जाते हैं या उनमें प्रतिरक्षात्मक गुण स्वतः ही विकसित हो जाते हैं.
इस प्रकार जैसे-जैसे ज्यादा लोग इम्यून होते जाएंगे, वैसे-वैसे संक्रमण फैलने का खतरा कम होता जाएगा, क्योंकि संक्रमण के बाद ठीक होने वालों पर इसका संक्रमण नहीं होता.
बड़ी संख्या में लोगों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से संक्रमण की श्रृंखला टूट जाएगी और उन लोगों को भी परोक्ष रूप से सुरक्षा मिल जाएगी जो पहले संक्रमित नहीं हुए थे.
शरीर की इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए इम्यूनाइजेशन या टीकाकरण का सहारा भी लिया जा सकता है, जिस पर चिकित्सा विज्ञानी या वायराॅलाॅजिस्ट काम कर रहे हैं.
विशेषज्ञ हर्ड इम्यूूनिटी के तरीके को बड़ी और युवा आबादी वाले गरीब देशों के लिए कारगरा मान रहे हैं. खासकर भारत जैसे देशों में यह प्रणाली ज्यादा कारगर साबित हो सकती है.
एक अनुमान के अनुसार किसी समुदाय में कोविड-19 से लड़ने के लिए ‘हर्ड इम्यूनिटी’ तभी विकसित हो सकेगी जब उस समुदाय विशेष में 60 प्रतिशत आबादी कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुकी हो और वे उससे लड़कर इम्यून हो गए हों.
जान हापकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ जर्नल के 10 अप्रैल के अंक में छपे जिपस्याम्बर डीसूजा और डेविड डाउडी के शोध प्रत्र के अनुसार ‘हर्ड इम्युनिटी’ के लिए 70 से लेकर 90 प्रतिशत तक संक्रमित लोगों में ही विकसित होती है और इससे परोक्ष रूप से उन लोगों को भी प्रतिरक्षण मिलता है जो पूर्व में इस वायरस से संक्रमित न हों.
शोधपत्र में कहा गया है कि एक जमाने में अमेरिका में खसरा, कठमाला, पोलियो और चेचक जैसी संक्रामक बीमारियां आम थीं जिन पर वैक्सिनेशन के जरिए हर्ड इम्युनिटी या सामूहिक प्रतिरक्षण क्षमता करने से ये बीमारियां अब दुर्लभ हो गई हैं. जिन समुदायों में सामूहिक प्रतिरक्षण क्षमता का अभाव होता है वहां संक्रामक बीमारियां अधिक फैलती हैं. इसके लिए इन शोधकर्ताओं ने डिजनीलैंड में 2019 में फैली खसरा बीमारी का उदाहरण दिया है.
इन शोधकर्ताओं ने साथ ही यह चेतावनी भी दी है कि खसरे की तरह सभी बीमारियों में प्रतिरक्षण क्षमता दीर्घकालिक नहीं हो सकती. कोविड-19 के संक्रमण के बाद हासिल प्रतिरक्षण क्षमता कुछ महीनों या सालों तक साथ दे सकती है न कि जीवनभर के लिए.
दरअसल कोरोना फैलते ही ब्रिटेन में इस महामारी का मुकाबला करने के लिए सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता या हर्ड इम्युनिटी विकसित करने पर चर्चा ही नहीं बल्कि सरकार के स्तर पर विचार भी शुरू हो गया था.
इसी क्रम में 13 मार्च 2020 को, जब ब्रिटेन में कोरोना वायरस के मामलों ने एक तेज उछाल लिया तो ब्रिटिश सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार सर पैट्रिक वेलांस ने बीबीसी रेडियो-4 से बातचीत में कहा था कि ‘इस वायरस के प्रकोप को सीमित करने के लिए देश को कुछ हद तक ‘हर्ड इम्यूनिटी’’ विकसित करनी होगी.
इसके बाद एक टीवी न्यूज चैनल से बातचीत में उन्होंने कहा था कि ‘देश में हर्ड इम्यूनिटी विकसित हो और इसके लिए जरूरी है कि संक्रमण कम से कम 60 प्रतिशत आबादी में फैले. उनका ये कहना था कि ब्रिटेन के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले कम से कम 300 वैज्ञानिकों ने 14 मार्च 2020 को ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर हर्ड इम्यूनिटी का खयाल त्याग कर सख्त कदम उठाने का सुझाव दिया तो इसके बाद ब्रिटिश सरकार को लॉकडाउन का ही विकल्प चुनना पड़ा.
लेकिन अब जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन भी कह चुका है कि कोरोना फिलहाल कहीं जाने वाला नहीं है और उसी के साथ जीने की कला सीखनी होगी तो वह कला हर्ड इम्यूनिटी के अलावा क्या हो सकती है? भारत में कोविड-19 बहुत तेजी से फैल रहा है फिर भी सरकार धीरे-धीरे लाॅकडाउन के बंधन ढीले करती जा रही है.
धीरे-धीरे रेल और वायु सेवाएं भी खुल रही हैं तथा बाजारों में रौनक लौटती नजर आने लगी है. इससे समझा जा सकता है कि भारत सरकार भी अब परोक्ष रूप से समाज की सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता के विकास की सोच को स्वीकारने लगी है.
यह भी पढ़ें :कोरोना संकट : अब पहली सी तो नहीं रहेगी ये दुनिया (भाग-1)
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