उत्तराखंड सरकार पहले से ही मौजूद पौड़ी और नैनीताल कमिश्नरियों में कमिश्नर समेत मंडल स्तरीय अधिकारियों को तो बिठा नहीं पा रही है और अब मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने गैरसैंण के नाम से तीसरी कमिश्नरी की घोषणा भी कर डाली है.
यह एक तरह से कमिश्नरी का शव ढोने की जैसी सजा ही है.
घोषणा के अनुसार चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर जिले नयी कमिश्नरी में शामिल होने हैं. सन 2010 में जिन चार जिलों के गठन के शासनादेश तक हो गये उनका कहीं अता पता नहीं है.
गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने के साथ ही कई नये जिलों की मांग काफी पहले से चल रही है.
स्थाई राजधानी की जगह ग्रीष्मकालीन राजधानी का झुनझुना मिलने के साथ ही अब जिले की जगह मंडल की घोषणा थमा दी गयी है.
नई कमिश्नरी भी पहाड़ के लोगों के लिये उतनी ही अवांछित है जितनी कि ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा है.
पहाड़ के लोग गैरसैंण में कुछ दिन के लिये विधानसभा सत्र की रौनक नहीं बल्कि वहां सरकार की गद्दी मांग रहे थे ताकि लोगों को देहरादून न आना पड़े और सरकार देहरादून से खिसक कर पहाड़ की ओर रुख कर सके.
इसी प्रकार जिला मांगने के पीछे लोग अपने करीब डीएम आदि जिला स्तर के प्रशासनिक एवं विकास सम्बन्धी अधिकारी चाहते थे. जबकि कमिश्नर का न तो प्रशासन में और ना ही विकास में कोई प्रभावी रोल है.
हिमाचल प्रदेश में तो कमिश्नरी ही नहीं है। इसीलिये उत्तराखंड में भी अनावश्यक कमिश्नर का पद समाप्त करने की मांग भी उठती रही है.
सरकार उन 4 जिलों का जिक्र तक नहीं कर रही है जिनके शासनादेशों का दम फाइलों में घुट रहा है.
उत्तराखंड के पहले (उस समय देहरादून मेरठ मंडल में था) के पहले बार एट लॉ हुये बैरिस्टर मुकन्दी लाल के प्रयासों से 1 जनवरी 1969 को नैनीताल कमिश्नरी के विभाजन के बाद स्थापित गढ़वाल कमिश्नरी की स्थापना हुई थी.
गढ़वाल मंडल में एससी सिंघा से लेकर वर्तमान डॉक्टर रविनाथ रमन तक कुल 32 कमिश्नर पदासीन रह चुके हैं जिनमें से केवल 9 कमिश्नर ही पूरी तरह पौड़ी में बैठकर काम करते रहे.
उसके बाद के सभी 23 कमिश्नर देहरादून के ही होकर रह गये। इस तरह अभागे मंडल मुख्यालय पौड़ी को केवल 13 साल तक फुल फ्लेज्ड कमिश्नरी मुख्यालय का सौभाग्य हासिल हुआ और शेष 39 सालों तक गढ़वाल के कमिश्नर पौड़ी के नाम पर देहरादून से अपनी हाकिमी चलाते रहे। पौड़ी ही क्यों ?
पहाड़ों की रानी के नाम से विख्यात नैनीताल में भी स्थिति कोई बेहतर नहीं हैं. नैनीताल के कमिश्नर को अक्सर देहरादून स्थित सचिवालय में भी जिम्मेदारियां का दिया जाना इसका उदाहरण है.
यहां तक कि प्रमुख वन संरक्षक वन्य जीव को भी नैनीताल में बैठना गंवारा नहीं है. गढ़वाल के कमिश्नर को सचिव स्तर की कई जिम्मेदारियां स्वयं सरकार ने दे रखी हैं ताकि उनको पौड़ी की ठंड न लग सके.
जो अफसर 6 हजार फुट से कम ऊंचाई वाले अंग्रेजों द्वारा स्थापित पौड़ी की ठंड नहीं झेल पा रहे हैं, उनसे 8 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित भराड़ीसैण में बैठने की कल्पना करना व्यवहारिक नहीं है.
सन 1969 से लेकर 1982 तक तो कमिश्नरी के मुख्यालय में रौनक ही रौनक रही. लेकिन सन् 1975 में देहरादून के गढ़वाल में शामिल होने पर गढ़वाल के कमिश्नर देहरादून के प्रति अपने मोह को ज्यादा समय तक नहीं रोक पाए.
इसलिए मंडल के 10वें कमिश्नर (आयुक्त) एसके विश्वास ने 1982 में देहरादून के मोहिनी रोड पर एक कैंप कार्यालय खुलवा ही दिया.
कैंप कार्यालय क्या खुलना था कि मुख्यालय पौड़ी केवल गर्मियों में ठण्डी हवा खाने के लिये आराम स्थल और देहरादून का कैंप कार्यालय ही असली मण्डल मुख्यालय बन गया.
कुछ समय पहले तक लोकलाज के डर से देहरादून के ईसी रोड स्थित आयुक्त कार्यालय बोर्ड पर कैंप कार्यालय लिखा होता था, लेकिन अब उस बोर्ड से कैम्प शब्द भी हटा दिया गया.
कमिश्नर के बाद डीआइजी का कैंप कार्यालय भी पौड़ी को बीरान कर देहरादून आ गया। आज की तारीख में राज्य सरकार को दो-दो जगहों इनके कार्यालयों के खर्चे तथा अफसरों के आवागमन आदि के भत्ते भुगतने पड़ रहे हैं.
शासन द्वारा वर्तमान में मण्डल मुख्यालय पौड़ी में कुल 27 विभागों के मण्डलीय कार्यालय स्वीकृत हैं मगर वहां केवल 13 अधिकारी ही बैठते हैं। उनमें से भी कुछ यदाकदा पौड़ी पहुंचने वालों में से हैं.
कृषि निदेशक को देहरादून से पौड़ी भेजने के लिये नारायण दत्त तिवारी से लेकर बाद के मुख्यमंत्रियों तक सबने जोर लगाया मगर सभी थक हार गए.
पौड़ी में जिन अधिकारियों के मुख्यालय होने थे और वे इन मुख्यालयों को केवल कैंप आफिस के रूप में प्रयोग कर रहे हैं उनमें आयुक्त और डीआइजी के अलावा लोनिवि के मुख्य अभियन्ता तथा गढ़वाल जल संस्थान के साथ ही जल निगम के महा प्रबंधक शामिल हैं.
अपर निदेशक कृषि का भी केवल कैंप कार्यालय चल रहा है. अपर निदेशक चिकित्सा का यहां कार्यालय तो है मगर अधिकारी बहुत कम बैठता है.
महाप्रबंधक पावर कारपोरेशन, आरएफसी, एवं पुरातत्व अधिकारी ने पौड़ी में कैंप कार्यालय तक नहीं खोले. वहां आरटीओ का पद है मगर सहायक आरटीओ को बिठाया गया है.
मजेदार बात तो यह है कि पहाड़ों से पलायन रोकने के लिये अक्टूबर 2017 में त्रिवेन्द्र सरकार ने जिस पलायन आयोग का गठन कर उसका मुख्यालय पौड़ी बनाया था उसके अध्यक्ष डॉक्टर एसएस नेगी ही पलायन कर देहरादून में ही बैठ गए.
ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा गढ़वाल और कुमाऊ से गोरखों को परास्त करने के बाद 3 मई 1815 को गार्डनर को कुमाऊँ का कमिश्नर नियुक्त किया गया तथा इसी वर्ष जुलाई में टेल को गार्डनर का सहायक नियुक्त किया गया था.
उस जमाने में कमिश्नर असली शासक और प्रशासक होते थे. उस समय कुमाऊं का हिस्सा होने के नाते ब्रिटिश गढ़वाल भी कुमाऊं कमिश्नरी में शामिल था.
गार्डनर तो न केवल टिहरी रियासत बल्कि नेपाल दरबार में भी कंपनी का पालिटिकल ऐजेंट रहा.
उसके बाद ट्रेल आया जिसकी रेवेन्यू पुलिस व्यवस्था आज भी चल रही है। ट्रेल के बाद बेटन जैसे कई अन्य अंग्रेज कमिश्नर आये.
सन् 1854 में नैनीताल को कुमाऊं का मण्डल मुख्यालय बनाया गया. सन 1960 से 1969 तक कुमाऊं मण्डल में अल्मोड़ा नैनीताल, पौड़ी और टिहरी चार जिले रहे. सन् 1969 में गढ़वाल मण्डल का गठन कर उसमें चमोली, पौड़ी, टिहरी और उत्तरकाशी शामिल किये गये.
सन 1975 में देहरादून को मेरठ से हटा कर गढ़वाल कमिश्नरी में शामिल किया गया. सन् 2000 में हरिद्वार को सहारनपुर से हटा कर गढ़वाल मण्डल में शामिल किया गया.
बेहतर होता कि सरकार गैरसैण को सबसे पहले जिले का दर्जा देती. वैसे भी अभी घोषणा ही हुयी है.
इससे पहले पुरौला, कोटद्वार, रानीखेत और रुड़की जिलों के लिये निशंक सरकार ने 2010 में शासनादेश तक जारी कर दिये थे. उन शासनदेशों का कोई अता पता नहीं है.
वैसे भी सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में की गयी यह घोषणा उतनी ही हवाई है जितनी कि गैरसैंण के विकास के लिये 25 हजार करोड़ खर्च करने की घोषणा हुयी थी.
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