शहीद बाबा मोहन उत्तराखंडी के साथ रहना एक अद्भुत अनुभव था. मई 2004 में द्वाराहाट के तत्कालीन विधायक स्वर्गीय विपिन त्रिपाठी के सुपुत्र और पूर्व विधायक भाई पुष्पेश त्रिपाठी का जनेऊ था.
तीन दिन तक द्वाराहाट ही रहना था. इसके बाद हमें एक बैठक में गैरसैंण जाना था. काशी सिंह ऐरी, प्रताप शाही, एसके शर्मा और मैं, इस बीच आसपास के क्षेत्र में घूमते रहे. चौखुटिया के डाक बंगले में हम लोग रह रहे थे.
यहां से मासी, मानिला और अन्य जगहों से जनसंपर्क के बाद हम लोग गैरसैंण पहुंचे. त्रिपाठी जी भी अपने काम निपटाकर गैरसैंण आ गये.
हम लोग जब भी गैरसैंण जाते वरिष्ठ पत्रकार और आंदोलनकारी बड़े भाई स्वर्गीय पुरुषोत्तम असनोडा जी के यहां पहला पड़ाव होता. अभी असनोड़ा जी की दुकान पर बैठे थे कि बाबा मोहन उत्तराखंडी आ गये.
पहली बार उनसे मुलाकात हुयी. सहज, सरल व्यक्तित्व लेकिन आंखों में व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा साफ पढ़ा जा सकता था. बाबा बनना तो उनका समाज के लिये समर्पण था, लेकिन उत्तराखंड के बारे में एक साफ समझ उनके अन्दर थी.
हम लोग दो दिन गैरसैंण के डाक बंगले में रहे इस बीच लगातार वह हमारे साथ रहे. हमने उनसे कहा था कि राजधानी की बात राजनीतिक है इसलिये इस अभियान में वह भी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जुड़ें लेकिन वह हमेशा एक सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी के रूप में इस अभियान को चलाते रहे.
यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जो व्यक्ति राज्य के सवालों पर इतना आंदोलन कर रहा हो उसमें कहीं भी किसी प्रकार का अतिवाद नहीं दिखाई दिया. हां, वह एक बात बार-बार दोहराते कि राज्य के सवालों को मुखरता से उठना चाहिये.
राज्य की स्थायी राजधानी गैरसैंण बनाने और राज्य का नाम उत्तराखंड करने सहित पांच मांगों को लेकर 2 जुलाई, 2004 से बेनीताल, आदिबदरी में आमरण अनशन में बैठने के 38 दिन बाद बाबा मोहन उत्तराखंडी को प्रशासन ने 8 अगस्त, 2004 की रात को जबरदस्ती उठा लिया. जबरन कर्णप्रयाग अस्पताल में भर्ती कराने ले जाते समय 9 अगस्त, 2004 को उन्होंने दम तोड़ दिया.
गैरसैंण को राजधानी बनाने के संघर्ष के इतिहास में अपना नाम अमर कर गये. उनकी शहादत को नमन करते हुये कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धांजलि.
गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग को लेकर शहादत देने वाले अमर सपूत बाबा मोहन उत्तराखंडी का जन्म पौड़ी जनपद के चौंदकोट के ग्राम बठोली में सन 1948 में हुआ. उनके पिता का नाम मनवर सिंह नेगी था.
मोहन सिंह नेगी बचपन से ही जनूनी तेवरों के लिये जाने जाते थे. इंटरमीडिएट और उसके बाद आईटीआई करने के पश्चात उन्होंने बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप में बतौर क्लर्क नौकरी की शुरुआत की.
सेना की नौकरी उन्हें ज्यादा रास नहीं आयी. वर्ष 1994 में उत्तराखंड आंदोलन के ऐतिहासिक दौर में बाबा ने सक्रियता से हिस्सेदारी की. दो अक्टूबर, 1994 में मुजफरनगर कांड के बाद बाबा ने आजीवन दाड़ी-बाल ने काटने की शपथ ली. उसके बाद मोहन सिंह नेगी बाबा उत्तराखंडी के नाम से प्रसिद्ध हो गये.
उत्तराखंड राज्य निर्माण में खुद को अर्पित करने वाले बाबा उत्तराखण्डी अपनी मां की मृत्यु पर भी घर नहीं गये. उन्होंने अपनी दाड़ी-बाल भी नहीं कटवाये.
राज्य आंदोलन और जनता की लड़ाई में लगे बाबा को अपने घर में तीन बच्चों और पत्नी की ममता भी नहीं डिगा पायी. बाबा का उत्तराखंड की जनता के लिये लंबा संघर्ष रहा. वे गैरसैंण को राजधानी बनाने और विभिन्न क्षेत्रीय समस्याओं को लेकर कई बार अनशन पर बैठे-
– 11 जनवरी, 1997 को लैंसडोन के देवीधार में उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिये अनशन.
– 16 अगस्त, 1997 से 12 दिन तक सतपुली के समीप माता सती मंदिर में अनशन.
– 1 अगस्त 1998 से दस दिन तक गुमखाल, पौड़ी में अनशन.
– 9 फरवरी से 5 मार्च, 2001 तक नंदाढोक, गैरसैंण में अनशन.
– 2 जुलाई से 4 अगस्त, 2001 तक नंदाढोक, गैरसैंण में राजधानी बनाने के लिए अनशन.
– 31 अगस्त, 2001 को पौड़ी बचाओ आंदोलन के तहत अनशन.
– राजधानी गैरसैंण के मुद्दे पर 13 दिसंबर, 2002 से फरवरी, 2003 तक चौंदकोट गढ़ी, पौड़ी में अनशन.
– 2 अगस्त से 23 अगस्त, 2003 तक कनपुर गढ़ी, थराली में अनशन.
– 2 फरवरी से 21 फरवरी, 2004 तक कोदिया बगड़, गैरसैंण में अनशन.
– 2 जुलाई से 8 अगस्त, 2004 तक बेनीताल, आदिबदरी में अनशन. आधी रात को प्रशासन ने उन्हें जबरन अनशन स्थल से उठा लिया था.
– अखिरकार राजधानी के लिये संषर्ष करते हुये 9 अगस्त, 2004 को उन्होंने अपना बलिदान कर दिया.
(हमने ‘क्रिएटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़’ की ओर से उनका पोस्टर प्रकाशित किया था.)
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