योगेश भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
तकरीबन साढ़े चौदह हजार करोड़ की अर्थव्यवस्था से शुरूआत करने वाले उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था आज ढाई लाख करोड़ के पार पहुंचने जा रही है. प्रति व्यक्ति सालाना आय पंद्रह हजार से दो लाख रुपए तक हो गयी है.
जो सालाना बजट शुरुआत में मात्र चार हजार करोड़ था, आज वह पचास हजार करोड़ के आंकड़े को पार कर रहा है. उत्तराखंड की यह रफ्तार मात्र दो दशक की ही तो है. इस रफ्तार को तरक्की के आईने में देखा जाए तो निसंदेह सुकून मिलना चाहिए, फक्र होना चाहिए.
मगर यह सुकून उस वक्त हवा हो जाता है जब राज्य के अलग-अलग हिस्सों से स्वास्थ्य सेवा न होने के कारण कभी किसी युवा की अकाल मौत, तो कभी सुविधाएं न होने के कारण जच्चा-बच्चा के मरने की खबर आती है.
फक्र करने का तो तब कोई कारण नहीं रह जाता जब पता चलता है कि बेहतर शिक्षा व्यवस्था न होने के कारण तीस फीसदी से अधिक लोग अपने घर गांव से पलायन कर रहे हैं.
तरक्की की इस रफ्तार पर तब यकीन नहीं होता जब बेरोजगारी से जूझते और अवसाद से घिरे युवाओं की भीड़ से सामना होता है. प्रति व्यक्ति सालाना आय के बड़े-बड़े आंकड़े तब झूठे साबित हो जाते हैं जब कर्ज में डूबे किसी किसान या व्यापारी के आत्महत्या की खबर आती है.
इस सब के बीच यह आंकड़े उस वक्त और भी बेमानी लगते हैं जब एक ओर चर्चा चलती है कि मुख्यमंत्री बदला जा रहा है और दूसरी ओर कोई जिम्मेदार उसे अफवाह करार दे रहा होता है.
और अंत में आंकड़ों की इस तरक्की के भी उस वक्त कोई मायने नहीं रह जाते जब एक दिन खबर आती है कि दिल्ली में हाईकमान ने मुख्यमंत्री बदलने का फैसला लिया है.
दरअसल दो दशक से यह खेल उत्तराखंड की नियति बना हुआ है. हकीकत यह है कि आंकड़े कितने ही रंगीन क्यों न हों, दो दशक बाद भी व्यवस्था से आम आदमी हताश और आखिरी आदमी निराश है.
मुद्दे पर न जनता रही, न सरकारें, मुद्दे पर न विपक्ष है, न सिस्टम, मुद्दे पर है तो सिर्फ ‘कुर्सी’.
कुर्सी के ‘लंगड़ीमार’ खेल में हर कोई विवेकशून्य हो चला है, आम आदमी की हताशा और अंतिम व्यक्ति की अपेक्षा तो मुद्दा ही नहीं है.
विडंबना देखिए कि प्रचंड बहुमत की सरकार में भी आए दिन मुख्यमंत्री के बदलने की चर्चाएं जोर पकड़ रही हैं, त्रिवेंद्र सिंह रावत के अपने ही उन्हें कुर्सी से हटा देखना चाहते हैं. दरअसल यह ‘लंगड़ीमार’ खेल यूं ही नहीं खेला जाता, इस खेल की आड़ में असल मुद्दों से ध्यान हटाया जाता है.
खेल बहुत गहरा है. जरा सोचिए, आज मुख्यमंत्री बदलने का न कोई कारण है और न कोई सियासी मजबूरी. न सरकार अल्पमत में है न बहुमत का आंकड़ा बनाए रखने की चुनौती है. न असंतुष्टों के कारण सरकार के गिर जाने का डर है और न पार्टी के टूटने का.
तीन साल में न कोई ऐसा घपला घोटाला जिससे पार्टी की छवि खराब हुई हो या हाईकमान का भरोसा टूटा हो. हाईकमान के रिमोट की तरह काम करने वाले त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाने का दूर-दूर तक कोई वाजिब कारण नहीं, फिर भी ‘त्रिवेंद्र का हटना’ तय है का शोर है तो आखिर क्यों?
सही मायने में आज सवाल त्रिवेंद्र के हटने या रहने का नहीं है बल्कि सवाल नजरिये का और इस पूरे खेल को समझने का है.
दरअसल नेतृत्व परिवर्तन और उसकी चर्चा से प्रदेश में एक अस्थिरता का माहौल बनता है, राजकाज में अराजकता उत्पन्न होती है. उस राजनैतिक अस्थिरता में व्यापक हितों की नीतियां तो बन ही नहीं पाती उल्टा सरकार और सिस्टम की तमाम नाकामियां इस माहौल में आसानी से गुम हो जाती हैं. उन तमाम बड़े मुद्दों से सबका ध्यान हट जाता है, जिनसे सरकार और सिस्टम पर सवाल खड़े होते हैं.
मौजूदा दौर को ही देखिए, आज क्या कोई मुद्दे की बात हो रही है? जबकि मुद्दा मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं, मुद्दा है सरकार का कामकाज, मुद्दा है विपक्ष की भूमिका, मुद्दा है राजनेताओं और नौकरशाहों की निष्ठा और सबसे बड़ा मुद्दा है राज्य का भविष्य.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एक मुख्यमंत्री बदलने के नाम पर ये तमाम मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं. ऐसा लगता है मानो जानबूझकर हर किसी को ‘विवेकशून्य’ आरै संवेदनहीन कर दिया गया हो.
यह विवेक शून्यता नहीं तो क्या है कि जनता का ही एक चुना हुआ नुमाइंदा तमंचे पर ‘डिस्को’ करता हुआ राज्य को ही गाली दे मगर कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं?
राजधानी के मेडिकल कालेज और बड़े सरकारी अस्पतालों में एमआरआई और सीटी स्केन मशीनें शो पीस बनी रहें और मरीज जांच के लिए भटकते रहें, किसी को कोई दिक्कत नहीं ?
कर्ज का ब्याज चुकाने और राज्य में तनख्वाह के लिए सरकार कर्ज उठाए और दूसरी ओर करोड़ों रुपया सिर्फ प्रायोजित कार्यक्रमों और आयोजनों पर लुटा दिये गए, मगर किसी पर कोई फर्क नहीं ?
सरकार ने भू-कानून में संशोधन कर जमीन खरीद फरोख्त की खुली छूट दे दी, किसी को कोई आपत्ति नहीं ?
राज्य के हालात कितने बदतर हैं यह केंद्र की तमाम रिपोर्टें बयां करती हैं. नीति आयोग की स्वास्थ्य से जुड़ी रिपोर्ट में पांच सबसे खराब राज्यों में उत्तराखंड का नाम है. आर्थिक सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट में उत्तराखंड स्वास्थ्य के मामले में समान भौगोलिक परिस्थतियों वाले राज्य हिमाचल से काफी पीछे है. हिमाचल के 62 अंकों की टक्कर में उत्तराखंड के मात्र 36 अंक हैं जो कि राष्ट्रीय औसत अंक 58 से भी नीचे है.
मुद्दे बहुत हैं और हालात गंभीर भी. सरकार का हाल यह है कि पर्यटन और तीर्थाटन में अंतर स्पष्ट नहीं कर पा रही है. एक तरफ परंपरागत खेती को बढ़ाने की बात करती है और निवेशक भांग की खेती के लिए ढूंढती है. कंडाली की जैकेट और भांग के रेसे का कुर्ता पहनकर सरकार ब्रांडिंग तो करती है लेकिन सरकार के पास उसकी कोई ठोस योजना नहीं होती.
राज्य की आमदनी बढ़ाने के लिए सरकार के पास शराब, खनन और जमीन से बाहर नहीं नकल पाती. अब सवाल यह है कि क्या अकेले मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत इसके जिम्मेदार हैं ? नहीं ऐसा नहीं है, मौजूदा स्थिति के लिए हर सरकार और हर मुख्यमंत्री जिम्मेदार हैं.
रहा सवाल त्रिवेंद्र का तो उनकी स्थिति का अंदाजा तो इससे लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके पहले निर्देश और पहली प्राथमिकता तक पर आज तक अमल नहीं हो पाया.
मुझे अच्छे से याद है कि मुख्यमंत्री बनते ही त्रिवेंद्र सिंह ने गढ़वाल और कुमाऊं को जोड़ने वाली कंडी रोड को अपनी पहली प्राथमिकता बताया था. मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने अफसरों को निर्देश दिए कि वह अनिवार्य रुप से अपने मोबाइल फोन पर उपलब्ध रहें, जनता के फोन जरूर उठाएं.
तीन साल बीत चुके हैं, ऐसा नहीं है कि त्रिवेंद्र ने कोशिश नहीं की होगी, मगर आज तक न गढ़वाल कुमांऊ को जोड़ने वाला मार्ग ही बन पाया और न अफसर ही लाइन पर आए.
अफसर अपने सरकारी नंबर पर फोन उठाना तो दूर संदेश का जवाब देना तक जरूरी नहीं समझते. जरा सोचिये, एक मुख्यमंत्री की प्रदेश हित से जुड़ी प्राथमिकता और जनता की सहूलियत से जुड़े निर्देश पर अगर अमल नहीं हो पा रहा है तो बात कितनी गंभीर है.
दरअसल यहीं से स्थितियों को समझना जरूरी है, कोई ताकत है जो मुद्दों से इतर उलझा कर विवेकशून्य बनाये रखना चाहती है. कोई ताकत है तो कि राजनैतिक नेतृत्व को मजबूत नहीं होने देना चाहती.
पर्दे के पीछे कोई ताकत है जो राजनैतिक नेतृत्व को अपनी अंगुली पर नचाना चाहती है. कोई है जो इस राज्य में आम लोगों के बीच नेताओं की छवि को बेईमान बनाए रखना चाहता है.
कहते हैं कि बात निकलेगी तो फिर थमेगी नहीं, बहुत दूर तक जाएगी. मुद्दों से पहले बात उस व्यवस्था की जो सरकार के चंद नौकरशाहों और सलाहकारों के चंगुल में है.
यूं ही नहीं कहा जाता कि उत्तराखंड में नौकरशाही हावी है, राजनैतिक नेतृत्व का उस पर कोई नियंत्रण नहीं है. ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि सरकार उन नौकरशाहों पर भरोसा करती है, उनकी सलाह पर चलती है, जिन्हें राज्य के भूगोल तक का ज्ञान नहीं है. जिनकी निष्ठा राज्य और राज्य के लोगों के प्रति कभी रही ही नहीं. जिनके लिए उत्तराखंड सिर्फ एक चारागाह और निजी हित साधने का संसाधन मात्र रहा.
चलिए इसे एक उदाहरण के जरिये समझते हैं. दिल्ली में भारत सरकार के साथ संवाद व संपर्क के लिए हर राज्य का एक सिस्टम होता है जिसे स्थानिक आयुक्त कहा जाता है. सामान्यत: एक स्थानिक आयुक्त राज्य की ओर से नियुक्त होता जो भारतीय प्रशासनिक सेवा का वरिष्ठ अधिकारी होता है.
इसकी अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिल्ली में यही अधिकारी केंद्रीय मंत्रालयों व अन्य राज्य सरकारों के साथ महत्वपूर्ण मामलों पर राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व करता है. भारत सरकार में होने वाली बैठकों, सम्मेलनों, कार्यशालाओं और सेमिनारों में वह राज्य सरकार का प्रतिनिधत्व करता है.
राज्य सरकार के विशिष्ट, अति विशिष्ट महानुभावों तथा प्रदेश शासन के अधिकारियों के विदेश दौरे, प्रशिक्षण अदि के लिए विदेश मंत्रालय, भारत सरकार से अनुसरण कर जरूरी क्लीयरेंस भी इसी अधिकारी को प्राप्त करना होता है.
केंद्र सरकार के स्तर पर राज्य के लंबित महत्वपूर्ण मामलों का प्रभावी अनुसरण के साथ ही भारत सरकार में रुकी हुई वित्तीय स्वीकृतियों को जारी कराने में स्थानिक आयुक्त ही सहयोग करता है. केद्रीय मंत्रालयों, भारत सरकार के विभिन्न कार्यालयों, भारत में विदेशी दूतावासों, अतर्राष्ट्रीय एजेन्सियों जैसे – विश्व बैंक तथा चैंबर आफ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज, फिक्की, एसेकैम, सीआईडी आदि संगठनों से भी उच्च स्तर पर संपर्क स्थानिक आयुक्त द्वारा ही संपर्क स्थापित किया जाता है. यही कारण है कि प्रत्येक राज्य अपने स्थानिक आयुक्त को दिल्ली में पूरी तरह साधन संसाधन संपन्न रखता है.
उत्तराखंड की नौकरशाही की मानसिकता को इसके स्थानिक आयुक्त कार्यालय के जरिये आसानी से समझा जा सकता है. जरा गौर कीजिये दिल्ली स्थित कार्यालय में पूर्णकालिक स्थानिक आयुक्त तक तैनात नहीं है और पद यहां स्थानिक आयुक्त के अलावा मुख्य स्थानिक आयुक्त का भी स्वीकृत है. दिल्ली स्थित इन पदों की जिम्मेदारी देहरादून में बैठे पावर सेंटर बने अफसरों के पास है. देहरादून में उनके ऊपर प्रदेश के तमाम अहम विभागों और पदों की जिम्मेदारी है, यहां उनका सरकार पर पूरा दबदबा है.
अब सवाल उठता है कि इन अफसरों को दिल्ली में स्थित पदों का जिम्मा क्यों ? दरअसल इन अफसरों ने यह जिम्मा अपने पास खुद रखा, जिम्मा पदों का दायित्व निभाने के लिए नहीं बल्कि दिल्ली में इन पदों पर तैनात रहने वाले अफसरों की सुविधा भोगने के लिए.
दिल्ली में भारत सरकार की बैठकों में शायद ही कभी ये अधिकारी राज्य का प्रतिनिधित्व करते हों, बैठकों में विभाग के छोटे अधिकारियों को धकेल दिया जाता है.
स्थानिक आयुक्त कार्यालय के अन्य अहम कार्य भी दूसरे अफसरों के ही जिम्मे हैं, लेकिन दिल्ली में स्थित आवास और गाड़ी, स्टाफ आदि सब पर देहरादून में बैठे अफसरों का कब्जा है.
यह है उत्तराखंड की नौकरशाही की कड़वी सच्चाई जिसने उत्तराखंड को सिर्फ ‘संसाधन’ समझा हुआ है. दुर्भाग्य यह है कि इस पर पर्दा पड़ा हुआ है. व्यवस्था के लिहाज से यह बड़ा मुद्दा होना चाहिए पर इसे मुद्दा बनाएगा कौन ?
सवाल उठाने वाले ही जब उपकृत होने लगें, छोटे छोटे निजी हितों के लिए नौकरशाहों पर आश्रित हों तो सवाल करेगा कौन ? सरकार भी क्यों आपत्ति करेगी जब राज्य के मुख्यमंत्री के लिए भी एक दिल्ली में इसी तर्ज पर एक आवास आवंटित करा दिया गया हो.
यह तो एक बानगी भर है. नौकरशाहों की मनमानी से जुड़े इस तरह के कारनामों की लंबी फेहरिस्त है.
अब एक उदाहरण नौकरशाही के दुस्साहस का. मसला उस बड़े अधिकारी से जुड़ा है जिनके पास राजधानी को अतिक्रमण मुक्त कराने की जिम्मेदारी है. उच्च न्यायालय के एक आदेश का हवाला देते हुए इन साहब ने पिछले दिनों सालों पुराने तमाम अतिक्रमण ध्वस्त कराए.
कई जगह पर तो सालों से कब्जे पर बैठे लोगों ने अपने सालों पुराने रिकार्ड दिखाते हुए रहम की भीख भी मांगी, लेकिन उच्च न्यायालय का हवाला देते हुए इन साहब ने किसी की एक नहीं सुनी.
आश्चर्य यह है कि राजधानी में अतिक्रमण खाली कराने वाले यह साहब जहां अपना आशियाना बनाए हुए हैं वही सरकारी जमीन पर कब्जा किये हुए हैं. साहब को अपना यह कब्जा परोपकार और समाजसेवा लगता है.
उनका यह कारनामा मुद्दा नहीं बनता क्योंकि वह राज्य के असरदार नौकरशाहों में जो शुमार हैं. सरकार को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं है, होगी भी कैसे, सरकार के तमाम चेहरे खुद न जाने कितने व्यक्तिगत अहसानों के तले दबे हैं.
नौकरशाही पर बात शुरू हुई है तो चलो एक नजर इस पर भी कि कोई भी नौकरशाह किस हद तक जा सकता है. किसी नौकरशाह पर कितना भरोसा किया जा सकता है, यह इस उदाहरण से समझा जा सकता है.
मृत्युजंय मिश्रा का नाम तो सुना ही होगा, महाविद्यालय के शिक्षक से नौकरशाह बने इस शख्स की सियासी गलियारी में बड़ी धूम रही है. एक समय में खासा चर्चित रहा यह शख्स इन दिनों भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों में जेल में है. पूरे चौदह महीने हो चुके हैं देश के नामी वकील खड़े करने के बाद भी अभी जमानत नहीं मिल पायी.
बात अगर राज्य के हित की हो रही है तो मुझे लगता है कि मृत्युंजय की चर्चा जरूरी है. यह बात होनी चाहिए कि कैसे मृत्युंजय इस राज्य में इतना शक्तिशाली बना? कैसे उसने करोड़ों रुपए की संपत्ति अर्जित की? कैसे बड़े नौकरशाहों के साथ उसके करीबी रिश्ते बने? क्यों उस पर सरकार की मेहरबानियां होती रहीं?
और इस पर भी बात होनी चाहिए कि जहां भ्रष्टाचार के तमाम आरोपी अफसर जेल से बाहर आकर वापस तैनाती भी पा जाते हैं, वहीं बेहद शक्तिशाली होने के बावजूद मृत्युंजय आज जेल में क्यों है?
राज्य के एक बड़े नौकरशाह की ‘नाक का बाल’ रहा यह शख्स खुद बाहर नहीं आना चाहता या कोई है जो उसे बाहर नहीं आने देना चाहता?
यहां तो सभी को मालूम है कि मृत्युंजय पर कानून का शिकंजा तब कसा, जब एक बड़े नौकरशाह का कथित स्टिंग चर्चा में आया. बताते हैं कि इस स्टिंग के लिए मृत्युंजय को ही जरिया बनाया गया था. आज तक उस नौकरशाह का स्टिंग तो सामने नहीं आया, मगर पूरे मामले की हकीकत जानने वाला मृत्युंजय सलाखों के पीछे जरूर चला गया.
जहिर है मृत्युंजय नौकरशाहों का राजदार है, मृत्युंजय उनके लिए दिक्कतें खड़ी कर सकता है. जब तक स्टिंग प्रकरण को लोग भूल नहीं जाते तब तक मृत्युंजय का बाहर आना नौकरशाहों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. सवाल यह है क्यों जेल जाने के बाद भी मृत्युंजय और नौकरशाहों के रिश्तों पर से पर्दा नहीं उठा?
ध्यान रहे, नौकरशाही आज अगर मनमानी पर है तो यूं ही नहीं है. नौकरशाही की मनमानी के एवज में ही तो विधायकों के वेतन भत्तों में 120 फीसदी का इजाफा किया जाता है. अपने यहां स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर बढ़ाने के बजाय माननीयों को विदेश में इलाज की व्यवस्था करायी जाती है.
आश्चर्यजनक रूप से सिर्फ जनप्रतिनिधियों को ही नहीं, मनोनीत नेताओं के वेतन और सुविधाओं में भी बढोतरी कर दी जाती है. ऐसा करने के लिए न बजट की दिक्कत आती है और न कोई नियम कानून आड़े आता है.
प्रदेश में नौकरशाहों के इस तरह के कारनामों की फेहरिस्त बहुत लंबी है. नजर घुमाइये सिस्टम में चारों ओर, साफ नजर आता है कि संस्थाएं दरक रही हैं पदों का न महत्व है और न कोई गरिमा . तिकड़म और चाटुकारिता के आगे दक्षता, योग्यता, क्षमता, अनुभव और विशेषज्ञता के तो कोई मायने नहीं है.
नौकरशाहों के इन कारनामों पर से पर्दा न उठना सिर्फ सरकार या किसी मुख्यमंत्री की नाकामी नहीं बल्कि प्रदेश और उसकी जनता की भी नाकामी है. मगर जनता को इस सबसे सरोकार कहां?
जनता को तो इससे भी मतलब नहीं कि सरकार सौ दिन का वायदा भी पूरा नहीं कर पायी. एक हजार दिन से ऊपर हो गए जीरो टालरेंस का जुमला सुनते हुए मगर एक लोकायुक्त नहीं दे पायी सरकार.
दरअसल ऐसा माहौल बन चुका है कि हम मुद्दे की बात तो करना ही नहीं चाहते, गंभीर मुद्दों पर न चिंतन होता है और न प्रतिक्रिया आती है.
त्रिवेंद्र हटेंगे या रहेंगे, यह बहुत बड़ा मुद्दा बन जाता है. जबकि सच यह है कि क्या फर्क पड़ता है कि अब त्रिवेंद्र हटें या रहें ?
आज से पहले भी मुख्यमंत्री बदले गए हैं. मुख्यमंत्री बदलने के बाद का एक भी अनुभव बेहतर साबित नहीं हुआ है. सनद रहे, इस राज्य में मुख्यमंत्री कभी भी न तो इस की बेहतरी के लिए बनाए गए और न राज्य के भविष्य के लिए हटाए गए.
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