लंबे समय से बेहद गंभीर बीमारी से लड़ रहे प्रखर सामाजिक कार्यकर्त्ता, चिन्तक और साहित्यकार मित्र त्रेपन सिंह चौहान की छवि मेरे मन-मस्तिष्क में विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार हावर्ड फास्ट के नायक ‘स्पार्टाकस’ की तरह है जो सामाजिक-राजनैतिक सत्ता के अन्याय के विरुद्ध हमेशा आंदोलित रहता है.
‘स्पार्टाकस’ का निजी जीवन भी संघर्ष की सेज पर है, परन्तु अपने स्वाभाविक स्वभाव से उसके अधरों पर हर समय मनमोहक मुस्कान, प्रेम और खुशियों के गीत समाये रहते हैं.
क्योंकि वह आश्वस्त है कि दुनिया का आने वाला कल, आज से बेहतर होगा. यही सकारात्मकता उसे अन्याय से लड़ने की ताकत और जीने का जज्बा प्रदान करता है.
त्रेपन सिंह चौहान का जीवन हकीकत में संघर्ष का पर्याय है। वो चाहे जनता के लिए संघर्ष हो या फिर खुद के जीवन को बचाये रखने की कशमकश हो। यही कारण है कि सामाजिक आन्दोलनों और लेखन में उनकी सक्रियता हमेशा चर्चा का विषय बनती है.
त्रेपन सिंह चौहान देश में सामाजिक आन्दोलनों और साहित्य का एक जाना-पहचाना लोकप्रिय नाम है. जन आन्दोलनों में रहकर जो साहित्य उन्होने रचा है वो कल्पना की डोर के बजाय धरातलीय विषयों से जीवंत होकर, सामाजिक-राजनैतिक अन्याय के खिलाफ बोधगम्य और किस्सागोई रचना शैली में मुखरित हुआ है।.
तभी तो, उनके साहित्यिक पात्र आज के समाज की विसंगतियों, चिंताओं, समस्याओं और उनके समाधानों पर संवाद करते हुए कहते हैं कि- निराशा के आगे एक रोशनी है, जरा घर से निकल के देखो यारों, जो लोग सड़कों पर लड़ रहे हैं, उनके साथ जरा मुठ्ठी तो तानो यारों.
‘जब नया राज्य बनेगा तब तो और भी बुरा वक्त आ सकता है. क्योंकि सत्ता तब इनके हाथ में रहेगी. और मेरा मानना है कि अभी लोग सड़कों पर आन्दोलित हैं इसलिए ‘कैसा हो उत्तराखंड’ के सवालों को भी हमें लोगों के बीच में छोड़ना चाहिए. लोग चाहे आपको पागल ही क्यों न कहें. मैं कम से कम अपनी आत्मा की आवाज को अनुसुना करके नहीं चलूंगा. यह लोगों के साथ गद्दारी होगी. हरीश ने दृढ़ता से कहा.’ (यमुना उपन्यास)
‘जिस राज के लिए हमने इतना कुछ बर्बाद किया उस राज का फैदा हमारे भाई बंदों को मिलना चाए. इन फैकटरियों से हमको फैदा मिलना तो दूर वो हमारे छोरों का खून चूसने वाली जोंक बनकर आए हैं, इस राज में. अपना हाड़-मांस गलाकर हम इन बच्चों को जवानी दे रहे हैं और वे इस जवानी को चूसकर बर्बाद कर रे हैं. यमुना की नसों में खून का संचार कुछ उबलने वाले रूप में दौड़ने लगा था. वह गुस्से में बोली, ‘‘अब तू देरादून नी जाएगा।. कतै नी जाएगा.’ (हे ब्वारी ! उपन्यास)
4 अक्टूबर, 1971 को केपार्स, बासर टिहरी (गढ़वाल) में जन्मे त्रेपन सिंह चौहान ने डीएवी कालेज, देहरादून से वर्ष-1995 में एमए (इतिहास) करने के बाद सामाजिक सेवा की राह उन्होने अपनाई.
अपने गृहक्षेत्र में 18 मार्च, 1996 को ‘चेतना आंदोलन’ की शुरुवात उन्होने भ्रष्टाचार के खिलाफ भिलंगना ब्लाक आफिस पर तालाबंदी करके की थी. उसके बाद ‘जल-जंगल-जमीन हमारी, नहीं सहेंगे धौंस तुम्हारी’ की तर्ज पर आन्दोलन दर आन्दोलन में वे अग्रणी भूमिका में सक्रिय रहने लग गये.
उत्तराखंड आन्दोलन, शराबबंदी आन्दोलन, टिहरी बांध से प्रभावित फलेण्डा गांव आन्दोलन, भ्रष्टाचार के खिलाफ सूचना के अधिकार का आन्दोलन, नैनीसार आन्दोलन आदि के जरिए वे देश भर में चलाये जा रहे कई आंदोलनों से जुड़ गए.
वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक समन्वय और उत्तराखंड नव निर्माण मजदूर संघ के संस्थापक सदस्य हैं. सामाजिक जागरूकता और अन्याय के विरुद्ध सक्रिय होने के कारण समय-समय पर शासन-प्रशासन के कोपभाजन की यंत्रणा को भी उन्होने सहा है. नतीजन, जेल और मुकदमों से उनका नजदीकी नाता रहा है.
त्रेपन सिंह चौहान ने श्रम के सम्मान के लिए अनेक जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया है। ‘घसियारी हो या मजदूर, श्रम का सम्मान हो भरपूर’ नारे के तहत ‘घसियारी प्रतियोगिता’ का आयोजन करना उनका एक अभिनव प्रयोग है.
यह बहुप्रचारित किया जाता है कि पहाड़ के ग्रामीण अर्थतंत्र की रीढ़ महिलायें हैं. गांव की किसानी में पुरुषों और पशुओं के सम्मलित योगदान से कहीं ज्यादा महिलाओं का व्यक्तिगत योगदान है. फिर भी उनके योगदान को उत्पादक और सम्मानयुक्त मानने में सारा समाज हिचक जाता है.
उदाहरणार्थ ‘घास छीलना’ और ‘घास काटना’ शब्दों का प्रयोग अक्सर बेकारी के संदर्भ में किया जाता है. पर यही घास काटना ग्रामीण महिलाओं के लिए अपनी दिनचर्या का सबसे अहम काम है. घास काटते हुए पहाड़ की घसियारिन मातायें और बहिनें पहाड़ के पूरे पारिस्थिकीय तंत्र को बचाये रखती हैं. इस नाते वे ‘बेस्ट इकोलॉजिस्ट’ की भूमिका में हैं.
त्रेपन का मानना है कि पहाड़ी गांवों में पली-बढ़ी हमारी पीढ़ी जो बाद में नगरों में जा बसी है, इन्हीं घसियारिनों याने ‘बेस्ट इकोलॉजिस्ट’ की संताने हैं.
हमारी ‘बेस्ट इकोलॉजिस्ट’ माताओं ने पहाड़ के गांवों की सामुहिक दायित्वशीलता वाली संस्कृति को जीवंत रखा है. गांवों में ‘घसियारिनों के गीतों’ की लोकप्रियता इसी कारण सर्वाधिक है.
त्रेपन ने माना कि जब गांव की महिलायें ‘बेस्ट इकोलाजिस्ट’ हैं, तो फिर उनके काम के प्रति इतना अनादर क्यों हैं ? इसी बिडम्बना को समाप्त करने के लिए उन्होने वृहद स्तर पर ‘घसियारी प्रतियोगिता’ का आयोजन प्रारम्भ किया है, जिसका ध्येय विचार है ‘पहाड़ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में घसियारिनों के श्रम को सम्मान एवं उसे और उत्पादक बनाना.’
इसके तहत दिसम्बर, 2015 में भिलंगना ब्लाक, टिहरी गढ़वाल की 112 ग्राम पंचायतों की 600 से अधिक महिलाओं ने ‘घसियारी प्रतियोगिता’ में भाग लिया.
इस प्रतियोगिता का समापन 6 जनवरी 2016 को चमियाला के कोठियाड़ा गांव में हुआ. इसी प्रकार दूसरी ‘घसियारी प्रतियोगिता’ 22 दिसम्बर, 2016 को अखोड़ी गांव सम्पन्न हुई.
यह प्रतियोगिता ग्राम पंचायत, न्याय पंचायत के बाद ब्लाक स्तर पर सम्पन्न होती है. प्रतियोगिता के अन्तर्गत 2 मिनट में सबसे ज्यादा घास काटनी होती है और इसमें यह घ्यान रखा जाता है कि घास के साथ अन्य उपयोगी पौधे न कटे.
प्रथम विजेता को 1 लाख, द्वितीय को 51 हजार और तृतीय को 21 हजार रुपये का पुरस्कार दिया जाता है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आयोजन के लिए संपूर्ण व्यय राशि को स्थानीय जनता स्वयं ही जुटाती है. भिलंगना ब्लाक में सफलता के बाद यह ‘घसियारी प्रतियोगिता’ कुमाऊं मंडल के गरुड़ क्षेत्र में भी आयोजित की जाने लगी है.
त्रेपन चौहान ने अपनी धर्मपत्नी नीमा चौहान के सहयोग से चमियाला क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण एवं रोजगारपरख शिक्षा के लिए प्रयास किए हैं। स्थानीय परिवेश आधारित 2 विद्यालय उनके द्वारा संचालित किए जा रहे हैं.
इन स्कूलों में स्थानीय किसान, पशुपालक, घसियारिन, शिल्पी आदि भी टीचर के रूप में अपने विभिन्न अनुभवों और ज्ञान को नियमित रूप में बच्चों को बताते और सिखातें हैं.
यह सुखद है कि बच्चे अपने गांव-इलाके के पारिस्थिकीय तंत्र को जानने को उत्सुक रहते हैं. इन्हीं स्कूल के बच्चों की एक रिपोर्ट विशेष उल्लेखनीय है. जिसमें कहा गया है कि भिलंगना क्षेत्र के औसतन प्रत्येक गांव से साल भर में 4 लाख रुपये खर्च करने के बदले में 40 लाख रुपये के उत्पाद सरकार स्वयं ले जाती है.
त्रेपन सिंह चौहान के व्यक्तित्व के दूसरे पक्ष ने उन्हें एक संवेदनशील रचनाकार की पहचान दी है. उनका रचना संसार व्यापक और बहुआयामी है. परन्तु सामाजिक सवाल और संघर्ष की आवाज उनके संपूर्ण लेखन के ‘तल और तट’ पर हर समय मौजूद रहती हैं.
उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘सृजन नव युग’, ‘यमुना’, ‘भाग की फांस’, ‘हे ब्वारी !’ (उपन्यास), उत्तराखंड आन्दोलन का एक सच यह भी (विमर्श), पहले स्वामी फिर भगत अब नारायण (कहानी), सारी दुनिया मांगेंगे (संपादन-जनगीतों का संकलन), गढ़वाली साहित्य की झलक, कुमाऊंनी साहित्य की झलक (साहित्य एकेडमी की द्वैमासिक पत्रिका इंडियन लिट्रेचर में प्रकाशित), टिहरी की कहानी (कहानी संग्रह-कन्नड़ भाषा में), उत्तराखंड आन्दोलन (विमर्श-कन्नड़ भाषा में), भावानु ढोल और बांध (कन्नड़ भाषा में), प्लॉट (कन्नड़ भाषा में) आदि हैं.
उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान पहाड़ी गांव का सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश कैसे करवट बदल रहा था, इसी कथानक पर ‘यमुना’ और उसका दूसरा भाग ‘हे ब्वारी !’ उपन्यास ने आकार लिया है.
ये उपन्यास उत्तराखण्ड के ग्रामीण जनजीवन की जीवन्तता, जीवन शैली की सहजता, अभावों में जीते हुए परन्तु भविष्य के प्रति हमेशा आशावान समाज की मनःस्थिति को दर्शाते हैं. यमुना’ मात्र एक पात्र नहीं है वरन् उसके व्यक्तित्व में पहाड़ी जनजीवन के कई पात्रों का चेहरा और दायित्व समाया हुआ है.
यह उपन्यास इंगित करता है कि पृथक राज्य आन्दोलन के दौरान एक आम आदमी नए राज्य की परिकल्पना में अपनी समस्याओं के समाधानों का कैसे स्वप्न देखता था.
यह उपन्यास उन पक्षों को भी बताता है कि कहां-कहां पर आन्दोलनकारियों से चूक हुयी थी. इन अर्थों में ‘यमुना’ उपन्यास को मात्र उपन्यास के बतौर ही नहीं देखा एवं पढ़ा जाना चाहिए, वरन् उत्तराखण्ड आन्दोलन को जानने एवं समझने के लिए एक जीवंत दस्तावेज और सन्दर्भ साहित्य के रूप में भी उसकी हमेशा अहमियत रहेगी.
पिछले कुछ सालों से ‘मोटर न्यूरान’ बीमारी से त्रेपन चौहान उभर ही रहे थे कि 25 मार्च, 2018 को चमियाला में अपने घर पर गिरने से सिर की चोट ने उन्हें फिर से बीमार कर दिया. अस्पतालों की यात्रा फिर शुरू हो गई.
यह तसल्ली देने वाली बात है कि महंगा इलाज और विदेश से दवाई मंगाने की मजबूरी के बावजूद भी देश-विदेश में अपने मित्रों-शुभचिन्तकों की मदद से त्रेपन के जीवन की जीवटता और जीवंतता कम नहीं हुई है.
त्रेपन भाई को इस विकट समय में आत्मीय मदद देने वाले उन मित्रों को सलाम और धन्यवाद. उन्हीं मित्रों की बदौलत वो आज कमजोर भले ही हो पर उसकी सामाजिक सक्रियता शिथिल नहीं हुई है. समसामयिक मुद्दों पर सोशियल मीडिया पर वह सक्रिय रहता है.
अपने नया उपन्यास ‘ललावेद’ (थोपी हुई समस्या-उत्तराखंड के राजनैतिक-सामाजिक परिपेक्ष्य में) जो कि ‘यमुना’ और ‘हे ब्वारी !’ का अगला भाग है को कम्प्यूटर में टाइप करने वह व्यस्त रहता है.
उसकी जाबांजी देखिए कि हाथों ने टाइप करने में असमर्थता जाहिर की तो वो बोल के टाइप करने लगा और जब आवाज ने भी साथ देना छोड़ दिया तो आंखों की पलकों के इशारे से अब कम्प्यूटर पर टाइप करने लगा है. यह उसकी जीने की दृढ़-इच्छाशक्ति का ही कमाल है.
परन्तु सबसे ज्यादा साधुवाद की पात्र उनकी धर्मपत्नी नीमा जी एवं बच्चे अक्षर और परिधि हैं जो उसकी सेवा में दिन-रात तत्पर हैं.
हावर्ड फास्ट के नायक ‘स्पार्टकस’ की तरह ही ‘उत्तराखंड का स्पार्टकस’ त्रेपन सिंह चौहान के चेतना आंदोलन ने उसकी जीवनीय चेतना को कभी कमजोर नहीं होने दिया है.
आज भी जीवन के कठिन समय में अपनी पलकों में अनगिनत खुशहाली के सपने लिए वह अपने लेखन के प्रति समर्पित योद्धा का भाव लिए हुए दद्चित है.
मित्र त्रेपन, तुम्हारा यह कहना कि ‘मुझसे मिल कर तुम्हें जीने की नई ताकत मिली’। पर मुझे तो तुमसे मिलकर जीने का जज्बा और सच्चा मकसद ही मिल गया है। बस तुम जल्दी से सेहतमंद हो जाओ. मित्रों से पुनः अनुरोध इस संकट की घड़ी में त्रेपन भाई की मदद के लिए आगे आयें.
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