देश की राजधानी दिल्ली में भाजपा को चित्त करने और कांग्रेस का सफाया करने के बाद अब अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) उत्तराखंड हिमालय पर चढ़ाई की तैयारी कर रही है.
जाहिर है कि हिमालयी राज्य दिल्ली जैसा सपाट नहीं है जहां कि एक ही दिन में सभी 70 विधानसभा सीटों पर घूमा जा सके.
उत्तराखंड की एक ही विधानसभा सीट पर एक दिन में नहीं घूमा जा सकता और अगर एक सीट के सारे गांव घूमने हों तो फिर पूरा महीना भी कम है.
उत्तराखंड के भूगोल जैसा ही इसका राजनीति का अखाड़ा भी उतना ही ऊबड़ खाबड़ और पथरीला है जिस पर दिल्ली के सपाट मैदान की तरह झाड़ू फेरना आसान नहीं है.
फिर भी आप के झाड़ू की आहट से राज्य की राजनीति के अखाड़ेके दोनों पहलवानों, भाजपा और कांग्रेस की पेशानी में बल तो पड़ ही गया है.
दिल्ली विधानसभा चुनाव से ठीक पहले वहां गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषा अकादमी की स्थापना और हीरा सिंह राणा (अब स्वर्गीय) जैसे प्रख्यात लोक गायक को उसका उपाध्यक्ष बनाये जाने से संकेत मिल गया था कि केजरीवाल की पार्टी को दिल्ली में प्रवासी उत्तराखण्डियों की राजनीतिक अहमियत का तो अहसास हो ही गया साथ ही उसका अगला निशाना उत्तराखंड पर ही है.
इस साल फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक बार फिर दिल्ली पर झाड़ू लग जाने के बाद तय हो ही गया था कि केजरीवाल इस जीत को उत्तराखंड में भी भुनाने से नहीं चूकेंगे और अंतत: उन्होंने इस अगस्त में अपनी मंशा साफ कर ही दी.
जिस उत्तराखंड हिमालय ने देश को गोविंद बल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी जैसे राजनीतिक महारथी और भारत में वामपंथी राजनीति के संस्थापकों में से एक पीसी जोशी जैसे नेता दिये हों उस उत्तराखंड के राजनीतिक पहाड़ पर चढ़ना तो बड़ी बात है लेकिन पैर टिकाना भी आसान नहीं है.
पिछले 20 सालों में इन पहाड़ों पर मायावती का हाथी नहीं चढ़ पाया जबकि यहां दलित वोट लगभग 19 प्रतिशत से अधिक माना जाता है.
राज्य विधानसभा के 2002 में हुए पहले चुनाव में 7 और फिरस दूसरे चुनाव में 8 सीटें जीत कर मायावती की पार्टी तीसरी शक्ति के रूप में अवश्य उभरी मगर 2012 के चुनाव में उसकी ताकत घट कर 3 पर सिमट गयी और 2017 में तो वह साफ ही हो गई. इसी प्रकार समाजवादी पार्टी पिछले 20 सालों में अपना खाता तक नहीं खोल पाई.
उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर चले ऐहितहासिक आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला उत्तराखंड क्रांति दल भी राज्य की सत्ता पर काबिज होने के बजाय धीरे-धीरे अपना अस्तित्व ही गंवाता रहा.
पहले चुनाव में उसे 4 सीटें मिलीं, दूसरे में उसकी सीटें घट कर 3 हो गयीं और 2012 के तीसरे चुनाव में 1 ही सीट नसीब हो पाई.
चौथे चुनाव में उसका सफाया ही हो गया.
इस दौरान जनरल टीपीएस रावत के रक्षा मोर्चा ने तीसरे विकल्प बनने का प्रयास किया तो वह भी पहाड़ से फिसल कर चकनाचूर हो गया और जनरल साहब को अपना ठिकाना पुनः कांग्रेस में तलाशना पड़ा.
तीसरा विकल्प खड़ा करने का प्रयास तो यहां राज्य गठन के बाद से ही शुरू हो गया था मगर बार-बार की असफलता के बाद तीसरा विकल्प खड़ा करने वालों में मुन्ना सिंह चौहान जैसे नेताओं को अन्ततः भाजपा और कांग्रेस की छत के नीचे शरण लेनी पड़ी.
राजनीति में स्थाई कुछ नहीं होता. इसलिए केजरीवाल की संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता. वैसे भी तीसरा विकल्प बनने के लिये गैर भाजपा और गैर कांग्रेस दलों तथा गुटों की तुलना में परिस्थितयां केजरीवाल की आप के पक्ष में अधिक अनुकूल हैं.
कांग्रेस और भाजपा वास्तव में मूलतः यथास्थितिवादी हैं जबकि आप पार्टी परिवर्तन की प्रतीक मानी जाती रही है.
नया कुछ कर दिखाने का वायदा कर ही उसने दिल्ली में पहला चुनाव जीता और पांच साल के कार्यकाल में इतना कर दिखाया कि भाजपा जैसी पार्टी, जिसके रणनीतिक कौशल का कोई शानीनहीं, वह भी मोदी मैजिक के बावजूद केजरीवाल के आगे चारों खाने चित्त हो गयी.
आप वालों के पास नये खून और नयी सोच के साथ ही संसाधनोंकी भी कमी नहीं है. वह वास्तव में आम आदमी को प्रतिबिंबित करती है.
जबकि कांग्रेस और भाजपा के नेता चुनाव जीतने के बाद राजा बन जाते हैं और अपने मतदाताओं के साथ वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं जैसा कि राजा अपनी प्रजा के साथ करते थे.
उनके समर्थक भी फिर आम आदमी नहीं रह जाते. यद्यपि आम आदमी पार्टी के कई नेता भी दूध के धुले नहीं निकले, फिर भी पार्टी की भ्रष्टाचार विरोधी छवि अब भी कायम है.
उत्तराखंड में शुरू से ही इतने घोटाले हो चुके हैं कि स्वयं कांग्रेस और भाजपा के नेता राज्य का नामकरण घोटाला प्रदेश के रूप में करते रहे हैं. आप की यह छवि उत्तराखंड में भी काम आ सकती है.
वैसे भी देखा जाय तो मनुष्य में नयेपन की चाह के साथ ही जिज्ञासा होती है और यही जिज्ञासा मनुष्य को पाषाणकाल से इस विज्ञान और प्रोद्योगिकी के उन्नत युग में लायी है.
दिल्ली में उत्तराखंड के प्रवासियों की संख्या 35 लाख से अधिकमानी जाती है, जिनमें से लगभग 25 लाख के वोटर होने का अनुमान है.
दिल्ली में आप को पहले चुनाव में 70 में से 67 और फिर दूसरे चुनाव में 62 सीटें मिलना बिना इन लाखों पहाड़ी प्रवासियों के समर्थन के बिना संभव नहीं था.
दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया उस पटपड़गंज सीट से चुनाव जीते हैं जहां उत्तराखण्डियों का बहुमत है.
सिसोदिया ने इस बार के चुनाव में यह सीट भाजपा के रवीन्द्र सिंह नेगी और कांग्रेस के लक्ष्मण सिंह रावत को हरा कर जीती है. ये दोनों ही उत्तराखंड के प्रवासी हैं. माना जाता है कि प्रवासियों ने दिल्ली की कम से कम 30 सीटों पर चुनाव नतीजे प्रभावित किये होंगे.
जिन प्रवासी उत्तराखण्डियों ने दिल्ली में आप को दूसरी बार सत्ता में बैठाया उन्ही में से लाखों प्रवासी कोराना के डर से बच कर बेहद कठिन और कष्टकारक परिस्थितियां भुगत कर गढ़वाल और कुमाऊं में अपने गांव पहुंचे हैं. उनके साथ जो सलूक हुआ उसे भी वे शायद ही कभी भूलेंगे.
कोरोना काल में लौटने वाले प्रवासियों की सही संख्या तो प्रमाणिक तौर पर नहीं बताई गयीं फिर भी समय समय पर सरकारी लोगों की ओर से दिये गये बयानों के अनुसार लगभग 3.27 लाख प्रवासी वापस लौटे हैं.
गैर सरकारी अपुष्ट आंकड़े यह संख्या 5 लाख तक बताते हैं. क्योंकि पुलिस के डर से कई लोग लुकछिप कर अपने गांव पहुंचे हैं.
इनमें से लगभग 60 प्रतिशत प्रवासी दिल्ली से लौटे हैं और उन लौटने वालों में भी लगभग 50 प्रतिशत प्रवासी 30 से 45 साल उम्र के हैं. इन सभी ने दिल्ली में केजरीवाल का शासन अपनी आखों से देखा और चखा है.
ये युवा प्रत्याशी आतिथ्य या होटल के साथ ही छोटे व्यवसाय और प्राइवेट सेक्टर के हैं, जिनमें आइटी सेक्टर भी एक है.
कुछ ही महीनों पहले ये आप पार्टी को वोट देकर आये हैं और अगर इन्हीं को आप वालों ने अपने कार्यकर्ता के रूप में मोर्चे पर लगा दिया तो ये समर्पित कार्यकर्ता भाजपा और कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर भारी पड़ सकते हैं.
शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, पानी, सड़क और भ्रष्टाचार उत्तराखंड की मूलभूत समस्याओं में शुमार रही हैं और इन्हीं समस्याओं का केजरीवाल सरकार ने जिस सफलतापूर्वक समाधान किया है उसके गवाह ये प्रवासी उत्तराखण्डी हैं. इनको दिल्ली के स्कूलों, अस्पतालों, मुहल्ला क्लीनिकों, सरकारी कार्यालयों, बिजली पानी के दफ्तरों में सुधार का केवल आखों देखा हाल सुनाना है.
लेकिन आप के नेता अगर अनुकूल परिस्थितियों के भरोसे उत्तराखंड विजय की कल्पना कर रहे हैं तो यह उनकी गलतफहमी ही होगी.
वर्तमान में आप पार्टी के फोरम से ऐसे अपरिचित नेता प्रकट हो रहे हैं, जिन्हें कभी परखा नहीं गया. उत्तराखंड के लोग समस्याग्रस्त और नयेपन के प्रति जिज्ञासु अवश्य हैं, मगर आंख मूंद कर मतदान करने वाले कतई नहीं हैं.
पिछली बार शमशेर सिंह बिष्ट जैसे जो आन्दोलनकारी और बुद्धिजीवी इस पार्टी से जुड़े थे, बाद में वे किनाराकसी कर गए थे. चुनावी वैतरणी पार कराने के लिये कुशल नेतृत्व की जरूरत होगी.
इसके लिये आप नेतृत्व के पास दो विकल्प हैं, जिनमें से एक विकल्प भाजपा-कांग्रेस से जनाधार वाले नेता तोड़ने का और दूसरा ठीक वैसा ही आंदोलन का विकल्प जैसा कि अन्ना हजारे के आंदोलन से आप पार्टी का नेतृत्व उपजा था.
अन्ना के आन्दोलन के दौरान उत्तराखंड में ऐसे बहुत सारे लोगहाथों में मोबत्तियां लेकर सड़क पर मार्च करते देखे गए जो कि जीवनभर भ्रष्टाचार में आकंठ तक डूबे रहे.
अगर केजरीवाल को भी सत्ता के दलालों और अवसरवादियों कीवैकल्पिक फौज खड़ी करनी है तो फिर कांग्रेस या भाजपा में अलग से बुराई बुराई ही क्या है ?
बहरहाल उत्तराखंड में परिवर्तन की कुलबुलाहट महसूस तो होने ही लगी है.
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