इन दिनों पूरी दुनिया खतरनाक कोरोना वायरस संक्रमण के खौफ से सहमी हुई है. दस हजार से ज्यादा लोगों की जान ले चुके इस वासरस संक्रमण को वैश्विक महामारी घोषित किया जा चुका है.
भारत में भी इस वायरस के 70 से अधिक मरीजों की पुष्टि हो चुकी है. उत्तराखंड में भी अब तक तीन मामले सामने आ चुके है. इस संक्रमण से निपटने के लिए भारत सरकार के साथ ही उत्तराखंड सरकार भी इन दिनों मुस्तैद नजर आ रही है.
कोरोना के इस खतरनाक दौर के बीच उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था की पड़ताल की जाए तो कहना गलत नहीं होगा कि प्रदेश की समूची स्वास्थ्य व्यवस्था कोरोना से भी खतरनाक संक्रमण की चपेट में है.
जिस राज्य की सेहत दिनों दिन गिरती जा रही हो, उसकी सरकार का ‘हेल्थ कार्ड’ कैसे सही कहा जा सकता है ? तीन साल पूरे हुए स्वास्थ्य महकमा बिना मंत्री के चल रहा है, मुख्यमंत्री की सीधी निगरानी में होने के बावजूद राज्य की स्वास्थ्य सेवाएं दुरुस्त नहीं हुईं.
हालात सुधरने के बजाए और गंभीर हुए हैं. देश के इक्कीस राज्यों में उत्तराखंड का स्वास्थ्य सूचकांक 15 वें स्थान से गिरकर 17 वें स्थान पर आ गया है.
साल 2015-16 में राज्य का जो स्वास्थ्य सूचकांक 45.22 था वह गिरकर 40.20 हो गया है. नवजात मृत्यु दर 28 से बढकर 30 हो गयी है.
पांच साल से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 38 से बढकर 41 पहुंच चुकी है. जन्म के समय कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत 7.3 से बढकर 8.2 हो गया है.
राज्य में टीबी के मरीजों की उपचार दर की सफलता मे तो भारी गिरावट आयी है. टीवी के उपचार में सफलता का यह प्रतिशत 86 फीसदी से गिरकर 77.6 रह गया है.
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्साधिकारियों के तकरीबन 70 फीसदी पद खाली हैं. जिला चिकित्सालयों में विशेषज्ञों के 68 फीसदी पद खाली हैं. टीकाकरण में भी स्थिति 99.3 से गिरकर 95 हो गयी है.
अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की वास्तविकता क्या है.
सरकार कह दे कि यह सब झूठ है ! नहीं…सरकार हकीकत से मुंह भले ही फेर ले लेकिन यह नहीं कह सकती कि ये झूठ है.
उत्तराखंड के बारे में यह रिपोर्ट केंद्र सरकार के नीति आयोग की है. स्वास्थ्य से जुड़े 29 अलग-अलग मानकों पर तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं में कोई सुधार नहीं है.
ऐसा नहीं है कि स्वास्थ्य के क्षे़त्र में सुविधाएं नहीं बढ़ी या संसाधन नहीं हैं. तकरीबन 1900 करोड़ रुपये का सालाना बजट है स्वास्थ्य सेवाओं का, और हाल यह है कि सरकारी अस्पताल तो छोड़िए मेडिकल कालेजों में सुरक्षित प्रसव तक की गारंटी नहीं है.
जब राज्य में सरकार सुरक्षित प्रसव की व्यवस्था ही न करा पाए तो वहां गंभीर बीमारियों के इलाज की उम्मीद की क्या जा सकती है ? सरकार तो खुद भुक्तभोगी रही है, इन्हीं तीन वर्षों के दौरान सरकार के एक मंत्री और विधायक की स्वास्थ्य कारणों से असमय मृत्यु हुई. मंत्री-विधायकों तक के लिए बेहतर इलाज की सुविधा प्रदेश में नहीं है.
बहुत दूर मत जाइए, मौजूदा सरकार के कार्यकाल ही तो बात है जब अस्थाई राजधानी देहरादून के सबसे बड़े महिला अस्पताल में जच्चा और बच्चा ने फर्श पर दम तोडा. ठीक उसी के आसपास की एक शर्मनाक घटना यह भी है कि देहरादून में ही एक महिला ने शौचालय में बच्चे को जन्म दिया और बाद में बच्चे की मृत्यु हो गई.
दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि सरकारें तो संवेदनहीन हैं ही आमजन में भी संवेदनहीनता बढ गयी है.
यकीन नही नहीं होता कि प्रसव पीड़ा से गुजर रही एक महिला को बस से उतारकर बीच रास्ते में छोड़ दिया जाता है और फिर सड़क पर महिला बच्चे को जन्म देती है.
उस घटना को भी कैसे भूल जाएं कि प्रदेश के सरकारी मेडिकल कालेज में एक मरीज की मौत हो जाने पर उसके परिजन शव को कंधे पर लाद कर ले गए. यह भी बहुत पुरानी घटना नहीं है जब राजधानी में अस्पताल दर अस्पताल भटकते हुए 35 वर्षीय आशू ने आईसीयू न मिलने के कारण दम तोड़ा.
यह सच्चाई है इस राज्य की कि सबसे बडे सरकारी अस्पताल में आईसीयू के मात्र पांच बेड हैं. अंदाजा लगाइए, जब यह हाल राजधानी के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के हों तो बाकी राज्य के अस्पतालों की क्या स्थिति होगी ?
हर रोज देहरादून के ही सरकारी अस्पतालों में सैकड़ों बीमार लोग उत्तरकाशी, टिहरी, पौडी, रुद्रप्रयाग, चमोली जिलों से आते हैं. उनकी उम्मीदें यहां उस वक्त टूट जाती हैं जब या तो जांच के लिए उपकरण सहीं नहीं होते या उनके रोग का ही डाक्टर नहीं होता.
मजबूरन उन्हें फिर उन प्राइवेट अस्पतालों की शरण में जाना होता है, जिनके दलाल सरकारी अस्पताल के बाहर अपना जाल बिछाए बैठे होते हैं. हाल यह है सरकारी अस्पताल तो रैफरल सेंटर बने हुए है. राजधानी के सरकारी अस्पतालों के भरोसे ही प्राइवेट अस्पतालों और जांच केंद्रों की दुकानें चल रही हैं.
अभी कुछ पहले की घटना है जब दून मेडिकल कालेज के बाहर मरीज की लूट के लिए प्राइवेट अस्पतालों के दलालों के बीच जमकर मारपीट भी हुई. पता चला मरीज स्ट्रेचर पर तड़प रहा था और दलाल अपने अपने अस्पताल में ले जाने के लिए भिड़े हुए थे.
सवाल यह है कि क्या यह सब सरकार को दिखायी सुनायी नहीं देता ? सब पता है सरकार और उसके जिम्मेदारों को, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडता.
सरकार अपना सिस्टम सुधारने और मजबूत करने के बजाय निजी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों पर मेहरबान है.
दरअसल बहुत बडा खेल है यह, इस खेल की चर्चा किसी और मौके पर. फिलहाल तो यह देखिए कि दून मेडिकल कालेज की सिटी स्कैन मशीन साल भर से खराब पड़ी है. दूसरे सरकारी अस्पताल में मशीनें खरीदी तो गईं लेकिन खुली ही नहीं.
श्रीनगर मेडिकल कालेज की सिटी स्कैन मशीन दो साल से बंद है. पौड़ी में भी साल भर होने जा रहा है मशीन खराब हुए. शासन से फाइलें नई खरीद और निर्माण कार्यों की तो मंजूर होती हैं मगर खराब मशीनों पर कोई फैसला नहीं होता.
सरकार को सब पता है, सरकार को ही नहीं विपक्ष और जनता को भी पूरे खेल का पता है. सच्चाई यह है कि सरकारी सिस्टम को जानबूझकर ‘अपाहिज’ बनाकर रखा गया है.
इसमें राज्य के नौकरशाह और राजनेता दोनो ही शामिल हैं. देहरादून जिले के डोईवाला का सरकारी अस्पताल निजी हाथों में क्यों दिया गया क्या इसका संतोषजनक जवाब सरकार के पास है ?
अच्छा खास चलता हुए यह सरकारी अस्पताल निजी मेडिकल कालेज को ऐसे ही नहीं सौंपा गया, सबको पता है मगर क्या हुआ ?
नौकरशाहों की मनमानी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए केंद्र से मिलने वाला बजट राज्य के कोषागारों से तीन महीने बाद भी ट्रांसफर नहीं किया जाता. तेलंगाना जैसे राज्य में इसमें एक भी दिन नहीं लगता.
दरअसल सरकारी अस्पताल सिर्फ सरकारी बजट ठिकाने लगाने का जरिया हैं, वो दिन हवा हुए जब सरकारी अस्पतालों में कम साधन-संसाधन होने के बावजूद गरीब को इलाज मिलता था.
सरकार इतने के बाद भी खम ठोकती है कि उसने बहुत काम किया. अस्पतालों में आनलाइन रजिस्ट्रेशन, सीसीटीवी और अटल आयुष्मान योजना को सरकार बड़ी उपलब्धि मानती है.
यह सही है कि अटल आयुष्मान योजना में राज्य के लोगों को चुनिंदा प्राइवेट अस्पतालों में इलाज की सुविधा मिली है, इससे काफी मदद भी मिली. यह इलाज सरकारी अस्पतालों में भी हो सकता था लेकिन सवाल यह है कि अगर सरकारी अस्पतालों में इलाज मिलने लगेगा तो प्राइवेट दुकानें कैसे चलेंगी ?
प्राइवेट अस्पतालों और संस्थानों पर सरकार की मेहरबानी का हाल यह है कि आज तक राज्य में क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट प्रभावी तरीके से लागू नहीं हो पाया.
हां, अटल आयुष्मान योजना के गोल्डन कार्ड बनाने में उत्तराखंड देश में केरल के बाद दूसरे स्थान पर है और निजी अस्पतालों के क्लेम भुगतान में पहले स्थान पर है. इस उपलब्धि पर सरकार इतरा भी रही है लेकिन यह नहीं देख रही है कि केरल स्वास्थ्य सूचकांक में 74.01 अंकों के साथ पहले स्थान पर है.
वहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में मात्र 2.4 फीसदी चिकित्साधिकारियों के पद रिक्त हैं, वहां नवजात मृत्यु दर मात्र छह और पांच साल से कम आयु वाले बच्चों की मृत्यु दर 11 है.
एक बात और, सरकार का दावा है कि पहाड़ के अस्पतालों में बड़े पैमाने पर डाक्टर तैनात किए हैं. इस दावे की सच्चाई यह कि एमबीबीएस की जगह सरकार ने दांतों के डाक्टरों को नियुक्त किया है, जिनकी उपयोगिता इतनी ही है कि उनसे सरकारी डाक्टरों का आंकड़ा बढ़ जाता है.
तीन साल के कार्यकाल में प्रदेश को पूर्णकालिक स्वास्थ्य मंत्री नहीं मिला मगर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष स्वास्थ्य सलाहकार की नियुक्ति जरूर की. तब कहा गया कि स्वास्थ्य सलाहकार प्रदेश की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारने में सरकार को सुझाव देगें.
मगर क्या सरकार बता सकती है कि स्वास्थ्य सलाहकार की अब तक की क्या उपलब्धियां रही हैं ?
बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को सुधारने के लिए उन्होंने क्या-क्या सुझाव सरकार को दिए, और सरकार ने उनके सुझावों पर कितना अमल किया ?
स्वास्थ्य सलाहकार को दी जा रही सुविधाओं पर हर महीने सरकारी खजाने से बड़ी राशि खर्च हो रही है. क्या इसी ‘सुविधा’ का लाभ लेने के लिए स्वास्थ्य सलाहकार की नियुक्ति हुई ?
बहरहाल तीन साल सरकार सिर्फ स्वास्थ्य पर ही फोकस करती तो तस्वीर कुछ अलग ही होती. तब यह सवाल भी नहीं उठता कि तीन साल से राज्य को स्वास्थ्य मंत्री क्यों नहीं मिला ?
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