जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार
एक के बाद एक कई राज्यों के हाथ से निकलने के बाद आखिर दिल्ली विधानसभा का चुनाव भी भारतीय जनता पार्टी के लिए पूरी ताकत झोंकने के बावजूद अच्छी खबर लेकर नहीं आ पाया.
अच्छी खबर तो रही दूर उसका सम्मानजनक हार के आंकड़े तक भी नहीं पहुंचना उसके लिए गंभीर आत्मचिन्तन का समय आ गया है.
हाल ही में झारखण्ड हाथ से निकला और अब दिल्ली में करारी हार के बाद भाजपा संगठन और भाजपा शासित राज्यों में भारी फेरबदल की संभावनाएं प्रबल हो गई हैं.
भाजपा के मुख्यमंत्रियों की अलोकप्रियता की आंच प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर पड़ने से रोकने के लिए सबसे पहले राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक उत्तराखण्ड जैसे उन राज्यों में हो सकती है जहां पार्टी अकेले दम पर सत्ता में है.
मार्च 2018 में भाजपा अपने दम पर देशभर के 13 राज्यों में सत्ता में थी, जबकि वह अन्य दलों के साथ गठबंधन में छह अन्य राज्यों पर शासन कर रही थी.
लेकिन हाल ही में झारखण्ड में चुनाव हारने के बाद भाजपा अब अपने दम पर आठ राज्यों पर शासन कर रही है, और इतने ही अन्य राज्यों में वह सत्तारूढ़ गठबंधन के सहारे या गठनबंधन के सहयोगियों के साथ सत्ता में है.
जबकि मार्च 2018 में देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 70 प्रतिशत क्षेत्र में भाजपा अकेले या साझेदारी में सत्ता में थी जो कि घटकर 34 प्रतिशत रह गया है.
भाजपा देश के कुल 16 राज्यों में से बिहार, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड और सिक्किम में सहयोगियों की सरकार में शामिल है. देखा जाए तो वह 5 राज्यों में अपने दम पर तथा 11 में सहयोगियों के साथ सत्ता में है.
जबकि भाजपा जिस कांग्रेस से भारत के मुक्त हो जाने का नारा लगा रही थी उस कांग्रेस वह 5 राज्यों में सत्ता में आ गई है, और इन राज्यों में मध्य प्रदेश, राजस्थान और पंजाब जैसे राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और बड़े राज्य भी शामिल हैं. यहां तक कि महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य की सत्ता में भी कांग्रेस साझेदार हो गई है.
अगर इसी तरह एक के बाद एक राज्य भाजपा के हाथ से खिसकता रहेगा और आगे दिल्ली की तरह उसकी उम्मीदों पर पानी फिरता रहेगा तो मोदी युग के अवसान की बात तो उठेगी ही साथ ही उसका राज्यसभा में अपने दम पर बहुमत जुटाने का सपना अधूरा ही रह जाएगा.
ऐसा नहीं है कि भाजपा अपने तेजी से खिसकते जनाधार से बेखबर होगी. जाहिर है कि पार्टी निश्चित रूप से उन सभी 16 राज्यों के बारे में समीक्षा करेगी जहां वह अकेले या फिर साझे में सरकार चला रही है.
चर्चा यहां तक है कि दिल्ली चुनाव के नतीजों की मार भाजपा के वर्तमान कुछ अलोकप्रिय मुख्यमंत्रियों और उप मुख्यमंत्रियों पर पड़ने जा रही है.
इनमें उत्तराखण्ड सहित पांच राज्य रडार पर माने जा रहे हैं, जिन राज्यों में दूसरे दल के मुख्यमंत्री हैं वहां भाजपा के उप मुख्यमंत्रियों की समीक्षा होनी है.
सूत्रों के अनुसार हाल ही में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री, जो कि स्वयं पार्टी नेतृत्व के रडार पर हैं, अपने मंत्रिमण्डल के विस्तार की अनुमति लेने एवं मंत्रिमण्डल में शामिल किए जाने वाले 3 नए मंत्रियों की सूची लेकर दिल्ली गए थे, लेकिन उन्हें इसकी इजाजत नहीं मिली.
राज्य में मंत्रियों के दो पद तो शुरू से खाली हैं और एक पद प्रकाश पंत के निधन के बाद खाली हुआ है. आलाकमान से अनुमति न मिलना मंत्रिमण्डल में फेरबदल के बजाय सरकार के नेतृत्व में फेरबदल का संकेत माना जा सकता है.
इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली में मिली लैण्डस्लाइड विक्ट्री के बावजूद सालभर से पहले इस तरह की करारी हार के बाद भाजपा आत्ममंथन तो अवश्य ही करेगी.
चर्चा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय भी भाजपा के मुख्यमंत्रियों के कामकाज की समीक्षा निरंतर कर रहा है.
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा और प्रधानमंत्री ने राज्यों के मुखियाओं को खुली छूट दी हुई थी. माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री उत्तराखण्ड के बारे में भी काफी निराश इसलिए हैं, क्योंकि उत्तराखण्ड की ओर से समीक्षा के दौरान ओडीएफ जैसी केन्द्रीय योजनाओं के ऐसे आंकड़े पेश किए गए जो कि बाद में जांच करने पर फर्जी पाए गए.
कई राज्यों में कलह के बावजूद मुख्यमंत्री नहीं बदले गए, जिसका नतीजा राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार के रूप में सामने आया. लेकिन अब शायद ही पार्टी अपने मुख्यमंत्रियों की अलोकप्रियता का खामियाजा और अधिक झेलेगी.
इस तरह भाजपा का राज्यसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल करने का सपना भी सपना ही रह जाएगा.
भाजपा के राजनीतिक क्षरण की शुरुआत राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में हार के साथ ही शुरू हो गई थी. हालांकि भाजपा राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस से काफी कम अंतर से पिछड़ी थी मगर छत्तीसगढ़ में उसे कांग्रेस के आगे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा.
लोकसभा चुनाव से पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में तथा लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखण्ड में स्थानीय नेतृत्व की अलोकप्रियता पार्टी पर भारी पड़ी.
झारखण्ड और हरियाणा में लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा में 18 और 22 प्रतिशत वोट घट गए. दिल्ली में पूर्वांचलियों के वोट के लालच में प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए मनोज तिवारी भी गायक के रूप में अपनी लोकप्रियता को राजनीतिक मोर्चे पर नहीं भुना पाए..
मनोज तिवारी और भाजपा नेताओं तथा मुख्यमंत्रियों के बेतुके तथा उग्र बयानों का खामियाजा भी इस चुनाव में भाजपा को झेलना पड़ा.
वर्तमान में अकेला बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश भाजपा के हाथ में है और कर्नाटक में बड़ी मुश्किल से सत्ता वापस लौटी है.
हरियाणा में सत्ता बचाने के लिए दुष्यन्त चौटाला की जननायक जनता पार्टी की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा है.
बिहार, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड और सिक्किम में दूसरे दलों के मुख्यमंत्रियों की छत्रछाया में भाजपा की राजनीति चल रही है, इसलिए आने वाला समय भाजपा के लिए काफी चुनौतियों भरा हो सकता है. आने वाले समय में असम, पश्चिम बंगाल और बिहार विधानसभाओं के चुनाव होने हैं.
दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल पर भाजपा के राष्ट्रवाद, सीएए, तीन तलाक और धारा 370 जैसे भावनात्मक हथियार वूमरैंग कर गए. इन्हीं हथियारों को अब तक ममता बनर्जी पर भी अपनाया जा रहा था. इन परम्परागत आग्नेयास्त्रों के विफल होने पर ममता बनर्जी के लिए भाजपा को नए साजो-सामान की जरूरत होगी.
असम में एनआरसी और सीएए के बवाल के कारण सत्ता बचाना आसान नहीं रह गया है, जबकि बिहार में नितीश कुमार का कोई भरोसा नहीं. हवा का रुख देख कर वह फिर अपने भतीजे से हाथ मिला सकते हैं.
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