बीती 20 जून को तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले में पुलिस कस्टडी में हुई पिता-पुत्र की मौत की घटना ने पुलिस के वीभत्स चेहरे को सबके सामने लाकर रख दिया था.
पुलिस कस्टडी में पिता-पुत्र के साथ बर्बरता की सारी सीमांएं लांघले हुए उन्हें इस कदर पीटा गया कि दोनों की मौत हो गई. इस घटना की देशभर में भारी भर्त्सना हुई और लोगों ने पुलिस के खिलाफ खूब गुबार निकाला.
इस घटना से पहले भी कई बार पुलिस पर कस्टडी के दौरान आरोपितों से मारपीट के आरोप लगते रहे हैं. उत्तराखंड की पुलिस पर भी बीते दिनों कस्टडी के दौरान लोगों से मारपीट का गंभीर आरोप लगा है.
प्रदेश की अस्थाई राजधानी देहरादून की पुलिस पर आरोप है कि उसने वर्षों से जंगल में रह रहे वन गूजरों के साथ बुरी तरह मारपीट की और उनके साथ अमानवीय बर्ताव किया.
19 जून को हुई इस घटना पर बात करने से पहले इसकी पृष्ठभूमि पर एक नजर डालते हैं.
16-17 जून को देहरादून के आशारोड़ी इलाके में स्थित रामगढ़ बीट के जंगल में रहने वाले वन गूजरों के डेरे में वन विभाग के कर्मी पहुंचे और उन्हें डेरे खाली करने को कहा.
आरोप है कि इस दौरान वन गूजरों और वन विभाग के कर्मचारियों के बीच कहासुनी हुई जो बाद में हिंसक झड़प में बदल गई.
इस घटना के बाद वन विभाग ने वन गूजरों पर मारपीट का आरोप लगाते हुए पुलिस से शिकायत की जिसके बाद वन गूजरों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया.
दूसरी तरफ वन गूजरों का आरोप है कि अपने साथ हुई मारपीट की शिकायत करने जब वे पुलिस के पास पहुंचे तो उनकी शिकायत दर्ज नहीं की गई.
बहरहाल इस घटना के दो दिन बाद 19 जून को वन विभाग के कर्मचारी और दून पुलिस की एक टीम वन गूजरों के डेरे पर पहुंची और कुल सात वन गूजरों को पकड़ कर थाने ले आई. वनगूजरों का कहना है कि पकड़े गए सात लोगों में चार महिलाएं, एक बुजुर्ग और एक नाबालिग था.
इन सात लोगों में से एक महिला, नूरजहां का कहना है कि पुलिस ने उनके साथ कस्टडी में बुरी तरह मारपीट की. नूरजहां ने कहा, ‘पुलिस वाले वन विभाग के लोगों से साथ हमारे डेरे पर आए और हम लोगों को पकड़ कर थाने ले गए. वहां हमारे साथ मार-पीट की गई. पुलिस ने हमें इतना पीटा कि मैं बेहोश हो गई थी. अगले दिन हमें कोर्ट ले जाया गया. हमने कोर्ट में अपनी बात बताई मगर हमें जेल में डाल दिया गया. सात-आठ दिन बाद चार लेडीज की जमानत हो गई लेकिन जेंट्स अभी भी जेल में हैं.’
पुलिस द्वारा जिन चार महिलाओं को पकड़ा गया उनमें से एक महिला का कहना है कि वह 16-17 जून की घटना में शामिल नहीं थी फिर भी उसे पुलिस लेकर गई और मारपीट की. उस महिला ने बताया कि उसकी पांच महीने की बच्ची इस दौरान उससे दूर रही.
महिला ने कहा, ‘मैंने पुलिस से कहा कि मेरी छोटी बच्ची को भी मेरे साथ रहने दो लेकिन उन्होंने कहा कि शाम को तुम्हें छोड़ देंगे. लेकिन उन्होंने मुझे भी पकड़े रखा और अब इतने दिन बाद मेरी जमानत हुई है. ’
इस पूरे वाकये को लेकर वग गूजरों के वकील केपी सिंह ने पुलिस पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं. उनका आरोप है कि पुलिस कस्टडी में महिलाओं के साथ न केवल अभद्र व्यव्हार किया गया बल्कि उन्हें बुरी तरह पीटा गया.
वकील केपी सिंह का आरोप है कि पुलिस कस्टडी में 73 वर्षीय बुजुर्ग वन गूजर को बुरी तरह पीटा गया.
केपी सिंह का आरोप है कि वन गूजरों के जो मेडिकल बनाए, उनमें किसी भी तरह के चोट के निशान नहीं दिखाए हैं जबकि हकीकत इसके बिल्कुल उलट है.
केपी सिंह ने कहा कि रिमांड मजिस्ट्रेट ने जब आईओ (जांच अधिकारी) से वन गूजरों के शरीर पर पड़े चोट के निशानों के बारे में पूछा तो वे कोई जवाब नहीं दे पाए. उनका यह भी आरोप है कि महिलाओं को देखे-सुने बिना ही रिमांड के आदेश दे दिए गए.
मालूम हो कि तमिलनाडु की घटना में भी इसी तरह के आरोप लगे हैं. आरोप के मुताबिक पिता-पुत्र को देखे-सुने बगैर ही रिमांड के आदेश दे दिए गए थे.
वन गूजरों के वकील केपी सिंह ने इसके अलावा नाबालिग की गिरफ्तारी को लेकर भी सवाल उठाए हैं. उनका आरोप है कि नाबालिग की सुनवाई जूवेनाइन कोर्ट में होनी चाहिए थी मगर उसे भी वयस्क आरोपियों के साथ जेल में डाला गया है.
बहरहाल इस पूरे मामले के सामने आने के बाद उत्तराखंड के वन मंत्री डाक्टर हरक सिंह रावत ने जांच के आदेश दे दिए हैं. उन्होंने कहा कि जांच रिपोर्ट आने पर उचित कार्रवाई की जाएगी.
डाक्टर हरक सिंह रावत ने कहा कि इस घटना को टाला जा सकता था. उन्होंने कहा कि कोरोना संकट के कठिन दौर में जब प्रदेश सरकार गरीब वर्ग की मदद के लिए तमाम कदम उठा रही है, तब इस तरह की घटना से बचा जा सकता था.
वहीं इस मामले को लेकर डीआईजी एवं देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अरुण मोहन जोशी ने भी जांच के आदेश दिए हैं. उन्होंने कहा कि साक्ष्यों के आधार पर मामले की जांच की जा रही है.
बहरहाल इस वाकये के चलते न केवल पुलिस बल्कि वन विभाग की कार्यप्रणाली भी सवालों के घेरे में है.
उत्तराखंड में हजारों की संख्या में वन गूजर हैं जो पीढियों से अलग-अलग वन क्षेत्रों में रहते आ रहे हैं. इसके लिए इन्हें बकायदा परमिट जारी किया जाता है. वन गूजरों को जंगल में रुकने के लिए ब्रिटिश शासनकाल से ही परमिट दिया जाता आ रहा है. वन गूजर पशुपालन और दूध बेच कर अपनी आजीविका चलाते हैं.
परंपरागत रूप से ये वनगूजर गर्मियों के दिनों में (मार्च-अप्रैल में) अपने पशुओं को लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों के लिए रवाना होते थे, जिन्हें स्थानीय भाषा में बुग्याल कहते हैं. लेकिन उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद, जिसमें बुग्यालों में जाना प्रतिबंधित किया गया है, ये गूजर नजदीकी इलाकों का रुख करते हैं, जहां उनके पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा, पानी और ठंडा वातावरण मिल सके.
इस बार भी बड़ी संख्या में वन गूजर अपने डेरे छोड़ कर ग्रीष्मकालीन पड़ावों का रूख कर चुके थे. मगर इस बीच 24 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हो गई. लॉकडाउन के चलते कई परिवार जंगलों में स्थित अपने डेरों में ही रुक गए.
महीनेभर भाद 28 अप्रैल को उत्तराखंड सरकार ने एक आदेश जारी कर लॉकडाउन अवधि तक वन गूजरों के किसी भी तरह के मूवमेंट पर रोक लगा दी.
प्रदेश के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि वन गूजरों के पशुओं के लिए पशुपालन विभाग चारा उपलब्ध कराएगा तथा डेरी विभाग दूध खरीदेगा ताकि उनकी रोजी रोटी बाधित ना हो.
कितनी हैरत की बात है कि जिस वन विभाग को कोरोना संकट के मुश्किल दौर में वन गूजरों की सुरक्षा की अहम जिम्मेदारी सौंपी गई, उसी विभाग के कारिंदे इस संकट के वक्त उनके सर से छत छीनने पर आमादा हैं.
वन गूजरों के साथ लॉकडाउन की इस अवधि में और भी इस तरह की घटनाएं सामने आ चुकी हैं जहां विभाग के कर्माचारियों ने उन्हें जंगल छोड़ने का फरमान सुनाया है. दूसरी तरफ वन गूजरों की बेबसी यह है कि आखिर वे जाएं तो जाएं कहा.
बीस वर्षों से वन पंचायत संर्घष मोर्चे से जुड़े एक्टिविस्ट तरुण जोशी बताते हैं कि कानून के मुताबिक वनों में रहने वाले किसी भी वनवासी को उनकी जगह से हटाया नहीं सकता है. वे कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट में भी इससे जुड़ा एक वाद चल रहा है और कोर्ट का कहना है कि जब तक इस केस का निपटारा नहीं हो जाता किसी भी वन गूजर या वनवासी को हटाया नहीं जा सकता.’
तरुण जोशी का कहना है कि उत्तराखंड सरकार के 28 अप्रैल के आदेश के बाद बड़ी संख्या में वन गूजर अलग-अलग इलाकों में फंसे हुए हैं. देहरादून जिले में यमुना नदी के किनारे लगभग 93 परिवार और हरिद्वार में गंगा किनारे लगभग 120 परिवार सरकारी आदेश के बाद फंसे हुए हैं. वे बताते हैं कि लॉकडाउन की कोई भी रियायत उनके काम नहीं आ रही है.
कुल मिलाकर असल बात यह है कि पीढ़ियों से जंगलों में रहने वाले वन गूजरों के लिए यह कोरोना काल त्रासदी बन कर आया है. सिस्टम की संवेदनहीनता के चलते उनके सामने ऐसी स्थितियां पैदा हो गई हैं, जहां से वे आगे बढें या पीछें हटें, दोनों ही स्थितियों में उनके हिस्से नुकसान ही आना है.
यह भी देखें : कोरोना संकट : अफवाहों ने वन गूजरों के लिए रोजी रोटी का संकट खड़ा कर दिया है ।
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